जलवायु परिवर्तन से बुरी तरह प्रभावित देशों में पत्रकारिता की भूमिका अहम

26 अधिक असुरक्षित देशों के बीच मीडिया कवरेज में अंतर्राष्ट्रीय शासन और विकास, ऊर्जा परिवर्तन का अर्थशास्त्र और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव शामिल रहे
अध्ययन में 10 वर्षों में 50 स्रोतों से लगभग 100,000 समाचार लेखों का विश्लेषण किया गया। फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स, मैट हरकैक
अध्ययन में 10 वर्षों में 50 स्रोतों से लगभग 100,000 समाचार लेखों का विश्लेषण किया गया। फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स, मैट हरकैक
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एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन का दुनिया भर में अलग-अलग प्रभाव पड़ता है, सबसे कमजोर और प्रभावित देशों में, पत्रकार इस मुद्दे पर अनोखे और गहन तरीकों से रिपोर्ट करते हैं। अध्ययन ने पिछले शोध पर सवाल उठाया जिसमें कहा गया था कि कम संसाधन वाले देशों में समाचार कवरेज में पत्रकारिता संसाधनों और वैज्ञानिक प्रशिक्षण का अभाव था।

इस अध्ययन की अगुवाई डेनिसन विश्वविद्यालय में पर्यावरण अध्ययन के प्रोफेसर लुसी मैकएलिस्टर ने की है। अध्ययन में म्यूनिख से मैनिटोबा तक की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञ शोधकर्ताओं की एक टीम जुड़ी थी।

मैकएलिस्टर ने कहा, जैसा कि लोग तेजी से कई तरह के जलवायु प्रभावों का अनुभव कर रहे हैं, यह जरूरी है कि मीडिया जलवायु परिवर्तन की परस्पर प्रकृति को स्पष्ट रूप से व्यक्त करे। यह एक पक्षपातपूर्ण कहानी है कि कम संसाधन वाले देशों में रिपोर्टिंग कम व्यापक है, लेकिन हमने इसके विपरीत पाया कि अधिक संसाधन वाले देशों की मीडिया को सबसे कमजोर देशों की मीडिया से बहुत कुछ सीखना चाहिए।

एनवायर्नमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन ने 10 वर्षों (2010-2020) में 50 स्रोतों से लगभग 100,000 समाचार लेखों का विश्लेषण किया। टीम ने बोत्सवाना और बांग्लादेश सहित जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे संवेदनशील 26 देशों पर गौर किया। अध्ययनकर्ताओं ने मशीन लर्निंग, सांख्यिकीय विश्लेषण और समाचार लेखों के गुणात्मक सामग्री विश्लेषण का उपयोग यह जांचने के लिए किया कि कम संसाधन वाले देशों ने जलवायु परिवर्तन को कैसे कवर किया।

यह अध्ययन निम्न-मध्यम और उच्च-मध्यम आय वाले देशों में मीडिया और जलवायु परिवर्तन कवरेज की जांच करने वाला पहला अध्ययन है। ये देश जलवायु परिवर्तन के सबसे गंभीर प्रभावों का अनुभव करते हैं, फिर भी अधिकांश शैक्षणिक अध्ययनों में इन्हें अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।

पिछले अध्ययनों ने कई कम-संसाधन देशों की एक-दूसरे से तुलना करने के बजाय भारत या घाना जैसे एक ही देश पर गौर किया है। शोधकर्ताओं ने किसी देश की जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता और समाचारों में शामिल विषयों की विविधता के बीच एक मजबूत संबंध पाया।

अध्ययनकर्ताओं ने बताया कि पिछले शोध में अक्सर कम संसाधन वाले देशों को एक बाल्टी में डाल दिया जाता था, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ये देश समान मुद्दों पर समान रूप से रिपोर्ट करते हैं।

म्यूनिख के तकनीकी विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर और  प्रमुख अध्ययनकर्ता सिद्धार्थ वेदुला ने कहा, हम अक्सर इन देशों पर 'उभरते देशों' या 'ग्लोबल साउथ' के देशों के रूप में चर्चा करते हैं। हालांकि, हमारा विश्लेषण समाचार मीडिया द्वारा जलवायु परिवर्तन को कवर करने के तरीके के संदर्भ में इन देशों के बीच पर्याप्त अंतर दिखाता है।

उदाहरण के लिए, उप-सहारा अफ़्रीका में मीडिया कवरेज कृषि पर केंद्रित था। दक्षिण एशिया में, कवरेज में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर जोर दिया गया, जैसे चरम मौसम की घटनाएं, शैक्षिक कार्यक्रम और जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और शमन के लिए देश की प्रतिक्रिया का नेतृत्व करने के लिए राष्ट्रीय सलाहकारों की नियुक्ति।

कुल मिलाकर, 26 अधिक असुरक्षित देशों के बीच मीडिया कवरेज में अंतर्राष्ट्रीय शासन और विकास, ऊर्जा परिवर्तन का अर्थशास्त्र और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव शामिल हैं।

अध्ययनकर्ताओं ने गौर किया कि उनके अध्ययन की सबसे महत्वपूर्ण सीमा अंग्रेजी भाषा के समाचार स्रोतों पर ध्यान केंद्रित करना है, यह देखते हुए कि अन्य भाषाओं में मीडिया का अध्ययन करने की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। आगे के शोध से रेडियो, टेलीविजन और सोशल मीडिया की जांच के लिए विश्लेषण का विस्तार भी हो सकता है।

मैक्स बॉयकॉफ ने कहा, मीडिया कवरेज का विश्लेषण जारी रखना महत्वपूर्ण है। क्योंकि जिस तरह से मीडिया जलवायु परिवर्तन को चित्रित करता है वह सार्वजनिक क्षेत्र में हमारी धारणाओं, बातचीत और कार्यों को आकार देता है क्योंकि वे हमारे रोजमर्रा के जीवन में औपचारिक विज्ञान और नीति को भी जोड़ते हैं।

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