शोधकर्ताओं के अनुसार गर्भावस्था के दौरान अत्यधिक तापमान में रहने से बच्चे की गर्भ में ही मृत्यु होने का खतरा बढ़ गया था| यह जानकारी यूनिवर्सिटी ऑफ क्वींसलैंड के स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायर्नमेंटल साइंस और मेटर रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं द्वारा किए एक अध्ययन में सामने आई है, जोकि जर्नल एनवायर्नमेंटल रिसर्च में प्रकाशित हुआ है|
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुसार जब गर्भावस्था के 28 हफ्तों या उसके बाद बच्चे का जन्म होता है जिसमें जीवन के कोई निशान नहीं होते हैं तो उसे स्टिलबर्थ कहते हैं|
इस अध्ययन में वैज्ञानिक इस बात की जांच कर रहे थे कि क्या बढ़ते वैश्विक तापमान से स्टिलबर्थ के मामलों में वृद्धि हो सकती है| इसके लिए उन्होंने 12 अन्य अध्ययनों की समीक्षा की है| उनके अनुसार गर्भावस्था के दौरान अत्यधिक तापमान के संपर्क में रहने से स्टिलबर्थ के मामलों में, विशेषतौर पर गर्भावस्था के अंतिम हफ्तों में वृद्धि हो सकती है| हालांकि इसमें जलवायु परिवर्तन का कोई हाथ है, इसे पूरी तरह स्पष्ट करने के लिए और अध्ययन की जरुरत है|
इस शोध से जुड़ी शोधकर्ता जेसिका सेक्सटन ने जानकारी दी है कि हालांकि यह बहुत प्रारंभिक शोध था, पर इससे पता चला है कि गर्भावस्था के दौरान बहुत अधिक या बहुत कम तापमान में रहने से स्टिलबर्थ का खतरा बढ़ जाता है जो इसके और तापमान के बीच के सम्बन्ध को दिखाता है| उनके अनुसार स्टिलबर्थ को जोखिम तब ज्यादा होता है जब वातावरण का तापमान 15 डिग्री सेल्सियस से नीचे और 23.4 डिग्री सेल्सियस से ऊपर होता है| इसमें भी सबसे ज्यादा खतरा तापमान के 29.4 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा होने पर होता है|
उन्होंने सम्भावना व्यक्त की है कि करीब 17 से 19 फीसदी स्टिलबर्थ के लिए गर्भावस्था के दौरान अत्यधिक गर्म और ठंडा तापमान जिम्मेवार है| जैसे-जैसे जलवायु में आ रहे बदलावों के चलते तापमान में वृद्धि हो रही है, उससे दुनिया भर में स्टिलबर्थ का खतरा और बढ़ जाएगा| हालांकि साथ ही उन्होंने यह भी माना है कि इस मामले में बहुत सीमित शोध किए गए हैं, इस पर अभी और शोध करने की जरुरत है|
वहीं इस शोध से जुड़े अन्य शोधकर्ता और पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ स्कॉट लिस्के ने बताया कि जैसे-जैसे तापमान बढ़ रहा है, इसका असर विकासशील देशों में महिलाओं को अधिक प्रभावित करेगा| दुनिया भर में हर साल 20 लाख से ज्यादा स्टिलबर्थ के मामले सामने आते हैं| जिसकी सबसे बड़ी वजह संसाधनों की कमी है| ऐसे में पिछले देश जो पहले ही इस समस्या का सामना कर रहे थे वहां जलवायु परिवर्तन के चलते इसका खतरा कहीं अधिक बढ़ जाएगा|
स्टिलबर्थ के 18 फीसदी मामले अकेले भारत में आए थे सामने
वहीं इस शोध से जुड़े एक अन्य शोधकर्ता विकी फ्लेनडी के अनुसार ऐसे में जरुरी है कि स्टिलबर्थ के मामलों में कमी लाने के लिए शोध किए जाने की आवश्यकता है| यदि देखा जाए तो दुनिया में कहीं न कहीं हर 16 सेकंड में एक अजन्मे की मौत होती है| यह न केवल बच्चे की मां पर बल्कि पूरे परिवार पर लम्बे समय तक रहने वाला दर्दनाक प्रभाव डालता है| जिसका उच्च आय वाले देशों में रहने वाली महिलाओं पर भी गहरा मानसिक प्रभाव पड़ता है|
यदि संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2019 के लिए जारी आंकड़ों को देखें तो इस वर्ष में दुनिया भर में स्टिलबर्थ के करीब 19 लाख मामले सामने आए थे, जिनमें से करीब 3.4 लाख मामले अकेले भारत में सामने आए थे, जोकि दुनिया में सबसे ज्यादा थे| 8 अक्टूबर 2020 को जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत पांच अन्य देशों - पाकिस्तान, नाइजीरिया, कांगो, चीन और इथियोपिया में कुल मिलकर दुनिया के आधे से ज्यादा स्टिलबर्थ के मामले सामने आए थे।
यदि पिछले दो दशकों के आंकड़ों को देखें तो देश में स्टिलबर्थ के मामलों में काफी कमी आई है| 2019 में प्रति हजार बच्चों पर यह दर 13.9 दर्ज की गई थी जो 2000 में 29.6 थी, जिसका मतलब है कि इस अवधि में करीब 53 फीसदी की कमी आई है|
इसके बावजूद बढ़ता तापमान अपने आप में एक बड़ी समस्या है और यदि जलवायु परिवर्तन और इसके बीच का सम्बन्ध पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है, तो इसके मामलों में कमी लाने के लिए स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी ढांचे में सुधार करने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन पर रोक लगाना भी जरुरी हो जाता है|