जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग में अमीर देशों को पहले देनी होगी तेल और गैस की कुर्बानी

यदि वैश्विक तापमान में होती वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखना है तो अमीर देशों को अपनी बढ़ती महत्वाकांक्षाओं को सीमित करना होगा और 2034 तक अपने तेल और गैस उत्पादन को पूरी तरह बंद करना होगा
जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग में अमीर देशों को पहले देनी होगी तेल और गैस की कुर्बानी
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यदि वैश्विक तापमान में होती वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखना है तो अमीर देशों को अपनी बढ़ती महत्वाकांक्षाओं को सीमित करना होगा और 2034 तक अपने तेल और गैस उत्पादन को पूरी तरह बंद करना होगा। साथ ही रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दुनिया के कमजोर देशों को अपने तेल और गैस उत्पादन को बंद करने के लिए कुछ और समय देना चाहिए।  

इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट द्वारा जारी इस हालिया रिपोर्ट 'फेजआउट पाथवे फॉर फॉसिल फ्यूल प्रोडक्शन' में कहा गया है कि किसी भी देश के पास उत्पादन को बढ़ाने की कोई गुंजाईश नहीं है। हालांकि रिपोर्ट में कमजोर देशों के लिए अपने तेल और गैस उत्पादन को पूरी तरह बंद करने के लिए 2050 तक की समय सीमा दी गई है, जो संपन्न देशों को दी गई समय सीमा से 16 वर्ष ज्यादा है। 

मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के जलवायु वैज्ञानिक केविन एंडरसन और शोधकर्ता डैन कैल्वरली द्वारा तैयार इस रिपोर्ट का कहना है कि कमजोर देशों को उत्पादन बंद  करने के लिए 2050 तक का समय दिया जाना चाहिए क्योंकि उन्हें अपनी अर्थव्यवस्था में बदलाव लाने के समय चाहिए। साथ ही उसके लिए  वित्तीय मदद की भी जरुरी पड़ेगी।

शोधकर्ता केविन एंडरसन का कहना है कि दुनिया को जीवाश्म ईंधन से दूरी बनाने की तेजी से जरुरत है, लेकिन यह निष्पक्ष तरीके से किया जाना चाहिए। उन्होंने बताया कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद तेल और गैस की कीमतों में होती वृद्धि ने इससे दूर होने की जरुरत को और बल दिया है।  

भारत की भी 2 फीसदी जीडीपी तेल और गैस पर है निर्भर

रिपोर्ट के अनुसार अमीर देशों की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत है कि वो इन जीवाश्म ईंधनों से प्राप्त होने वाली आय के बिना भी अमीर बने रहेंगें, लेकिन कुछ कमजोर देश जैसे दक्षिण सूडान, कांगो और गैबॉन आदि इससे होने वाली आय पर इतना ज्यादा निर्भर है कि यदि वो इसे अभी बंद कर देते हैं तो उन देशों में राजनैतिक और आर्थिक अस्थिरता का खतरा पैदा हो सकता है।

गौरतलब है कि दक्षिण सूडान, लीबिया की 60 फीसदी, कोंगों की 65 फीसदी, गैबोन और अंगोला की करीब 50 फीसदी जीडीपी तेल और गैस पर ही निर्भर है, जबकि यह देश अभी भी अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

वहीं तेल और गैस उत्पादन में हिस्सेदारी की बात करें तो अंगोला की एक फीसदी और लीबिया की केवल 0.9 फीसदी हिस्सेदारी है, जबकि बाकि देश तो शीर्ष 33 प्रमुख उत्पादकों की सूचि में भी नहीं आते। ऐसे में इन देशों को इस बदलाव को अपनाने के लिए समय देना सही भी है। 

यदि भारत की बात करें तो देश की वैश्विक तेल और गैस उत्पादन में हिस्सेदारी 0.9 फीसदी है। वहीं  2018 में देश ने करीब 6.7 करोड़ टन तेल और गैस का उत्पादन किया था।  वहीं देश की जीडीपी में तेल और गैस की हिस्सेदारी की बात करें तो वो करीब 2 फीसदी थी।     

यदि अमेरिका जैसे साधन सम्पन्न देश को देखें तो वैश्विक तेल और गैस उत्पादन में उसकी हिस्सेदारी करीब 18 फीसदी है जबकि रूस की हिस्सेदारी 14.8 फीसदी है। वहीं अमेरिका की प्रति व्यक्ति जीडीपी देखें तो वो करीब 65,254 डॉलर है।  यदि उसमें से तेल और गैस से होने वाली आय को हटा भी दें तो भी वो 60,098 डॉलर प्रति व्यक्ति होगी। इसका मतलब है कि इसके बावजूद अमेरिका की स्थिति में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आएगा। 

रिपोर्ट के अनुसार यह पूरा बदलाव निष्पक्ष और न्यायसंगत तरीके से किया गया है। हालांकि इस कटौती के बावजूद भी इस बात की केवल 50 फीसदी ही सम्भावना है कि हम 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल कर पाएंगे, लेकिन इसके बावजूद तापमान में होती वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखने की उम्मीदें बरकरार रहेंगी।

रिपोर्ट में संपन्न देशों से तेल और गैस उत्पादन में 74 फीसदी जबकि 2034 तक उसे पूरी तरह बंद करने की सिफारिश की है। वहीं मध्यम आय वाले देशों में जिनकी बदलाव की क्षमता तुलनात्मक रूप से कम है उन्हें 2043 तक उत्पादन बंद करने की समय सीमा दी है। वहीं पिछड़े और कमजोर देशों के लिए 2030 तक 14 फीसदी और 2050 तक उत्पादन को पूरी तरह बंद करने की समय सीमा तय की है।  

कितनी जरुरी है जीवाश्म ईंधन से दूरी 

जलवायु परिवर्तन का खतरा कितना विकराल रूप ले चुका है इस बारे में चेतावनी देते हुए हाल ही में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा जारी छठी मूल्यांकन रिपोर्ट “क्लाइमेट चेंज 2022: इम्पैटस, अडॉप्टेशन एंड वल्नेरेबिलिटी” में कहा गया है कि यदि इस समस्या पर हमने अभी ध्यान न दिया तो भविष्य में हमारी नस्लें इसके आने वाले विनाशकारी खतरों को झेलने के लिए मजबूर होंगी।   

वहीं क्रिश्चियन एड द्वारा जारी रिपोर्ट ‘काउंटिंग द कॉस्ट 2021: ए ईयर ऑफ क्लाइमेट ब्रेकडाउन’ के अनुसार 2021 में जलवायु से जुड़ी चरम मौसमी घटनाओं ने भारत से लेकर दक्षिण सूडान, नाइजीरिया, चाड, कैमरून, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका तक को अपना निशाना बनाया था, जिसकी उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी थी।

गौरतलब है कि जहां 14 से 19 मई 2021 को भारत में आए चक्रवाती तूफान 'तौकते' से 11,243 करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ था। वहीं 25 से 29 मई को आए तूफान 'यास' से करीब 22,487 करोड़ रुपए की आर्थिक क्षति देश को उठानी पड़ी थी।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत ही इन जलवायु बदलावों की मार झेल रहा है। आज दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश होगा जिससे बढ़ते तापमान और जलवायु ने प्रभावित न किया हो। बस प्रभाव की मात्रा अलग-अलग हो सकती है। जो देश सशक्त हैं वो इसका बेहतर तरीके से सामना कर सकते हैं जबकि कमजोर वर्ग कहीं ज्यादा खामियाजा भुगतने के लिए मजबूर है।

ऐसे में यह जरुरी है कि सशक्त देश जो जीवाश्म ईंधन के बिना भी विकास कर सकते हैं उन्हें इससे दूर होने की जरुरत है। साथ ही उन्हें उन कमजोर देशों को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग में मदद करने की भी जरुरत है जिससे वो इस बढ़ते खतरों का बेहतर तरीके से मुकाबला कर सकें। हमें समझना होगा की यह समस्या किसी एक की नहीं है, इसके लिए हम सभी को मिलकर प्रयास करना होगा। 

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