
हेग स्थित संयुक्त राष्ट्र की प्रधान न्यायिक निकाय अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) ने 23 जुलाई, 2025 को निर्णय सुनाते हुए कहा कि जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने वाली सरकारी गतिविधियां अवैध हैं और देशों को उनके उत्सर्जन के लिए कानूनी रूप से उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए।
न्यायालय ने कहा, “जलवायु परिवर्तन संधियों में राज्य पक्षों के लिए बाध्यकारी दायित्व निर्धारित किए गए हैं कि वे मानवजनित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से जलवायु प्रणाली और पर्यावरण के अन्य हिस्सों की सुरक्षा सुनिश्चित करें।”
जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक स्तर की सर्वोच्च न्यायिक संस्था का यह पहला निर्णय परामर्शात्मक रूप में दिया गया है, जिसकी मांग संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने 12 अप्रैल, 2023 को एक पत्र के माध्यम से की थी। यद्यपि इसका कोई बाध्यकारी प्रभाव नहीं है। विशेषज्ञों ने इसे “ऐतिहासिक” बताते हुए कहा कि न्यायालय की ऐसी राय का कानूनी प्रभाव और नैतिक अधिकार अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
इस निर्णय को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक ले जाने की पहल प्रशांत क्षेत्र के युवाओं और द्वीपीय देशों द्वारा की गई थी, जिसे नागरिक समाज, आदिवासी समुदायों और कुछ राज्यों का समर्थन प्राप्त था।
आदेश पारित करने वाले न्यायधीशों में शामिल इवासावा यूजी ने कहा, “यह पूरे ग्रह से जुड़ा मुद्दा है जो सभी जीवन रूपों के लिए खतरा बन चुका है। न्यायालय यह राय इस आशा के साथ प्रस्तुत करता है कि इसके निष्कर्ष कानून को सामाजिक और राजनीतिक कार्यवाही को दिशा देने में सक्षम बनाएंगे ताकि जलवायु संकट का समाधान हो सके।”
वहीं, इर रिपोर्ट के लिए बात करने वाले अधिकांश जलवायु विशेषज्ञों ने यह संकेत दिया कि यह आदेश ब्राजील के बेलेम में होने वाले आगामी कॉप30 सम्मेलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। साथ ही, यह हाल ही में समाप्त बॉन सम्मेलन के बाद वैश्विक जलवायु वार्ताओं को नई ऊर्जा देगा, जिन्हें अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की जलवायु-विरोधी बयानबाजी और दुनिया भर में हो रहे युद्धों ने दबा दिया था।
कुछ विशेषज्ञों ने यह भी कहा कि यह आदेश जलवायु संकट से प्रभावित देशों, विशेष रूप से भारत जैसे देशों को वार्ताओं में मजबूत तर्क प्रदान करेगा, जो दशकों से जलवायु प्रभावों का सबसे बड़ा शिकार रहे हैं, साथ ही दक्षिण एशिया के अन्य पड़ोसी भी।
स्पष्ट और ठोस आदेश
आईसीजे ने याद दिलाया है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा ने जलवायु परिवर्तन से संबंधित कुछ प्रमुख सवालों पर परामर्श मांगा था, जिनमें शामिल थे :
“मानवजनित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से जलवायु प्रणाली और पर्यावरण के अन्य हिस्सों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत राज्यों के दायित्व, वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिए …
“… और उन कानूनी परिणामों के बारे में, जहां राज्यों के कार्यों या चूकों ने जलवायु प्रणाली और पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुंचाई है, विशेष रूप से उन छोटे द्वीपीय विकासशील देशों के परिप्रेक्ष्य में जो भौगोलिक परिस्थितियों और विकास स्तर के कारण जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं …”
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने यह परामर्श स्वरूप आदेश 23 जुलाई को सर्वसम्मति से पारित की, जिसमें उसे 91 लिखित प्रस्तुतियां और 62 टिप्पणियां विभिन्न देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों से प्राप्त हुई थीं। इसके अलावा, 2 से 13 दिसंबर 2024 के बीच आयोजित सार्वजनिक सुनवाइयों में 96 देशों और 11 अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने मौखिक प्रस्तुतियां दी थीं। यह न्यायालय के लगभग 80 वर्षों के इतिहास में केवल पांचवीं बार ऐसा हुआ है।
न्यायालय के अनुसार, राज्यों के दायित्वों में “ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी और जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन हेतु उपायों को अपनाना” शामिल है।
आदेश में यह भी गौर कराया गया कि “संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा सम्मेलन (यूएनएफसीसीसी) के परिशिष्ट I में सूचीबद्ध राज्य पक्षों के पास ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को सीमित करने और सिंक व भंडारों को बढ़ाने के द्वारा जलवायु परिवर्तन से लड़ने में अग्रणी भूमिका निभाने का अतिरिक्त दायित्व है।”
एक विशेषज्ञ ने बताया, “हालांकि पूरा आदेश ऐतिहासिक है, लेकिन इसका दूसरा भाग विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने विकसित देशों की ऐतिहासिक जिम्मेदारी के मुद्दे को फिर से उजागर किया है, जिसे पेरिस समझौते में सभी देशों द्वारा समान जिम्मेदारी स्वीकार किए जाने के कारण लगभग भुला दिया गया था।”
आदेश में यह भी कहा गया है कि यूएनएफसीसीसी के सदस्य देशों पर “आपसी सहयोग का दायित्व है ताकि सम्मेलन के मूल उद्देश्य की प्राप्ति हो सके।” इस भाषा से अमेरिका पर दबाव पड़ने की संभावना जताई जा रही है, क्योंकि ट्रंप के सत्ता में आने के बाद अमेरिका ने पेरिस समझौते से तो हटने की घोषणा की, लेकिन वह यूएनएफसीसीसी से औपचारिक रूप से बाहर नहीं हुआ।
आदेश में इस बात पर भी ध्यान दिलाया गया कि पेरिस समझौते के तहत वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखने का निर्णय लिया गया था। साथ ही, इसमें वियना कन्वेंशन और मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (ओजोन परत की रक्षा हेतु), जैव विविधता पर सम्मेलन और मरुस्थलीकरण से लड़ने के लिए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (विशेष रूप से अफ्रीका में गंभीर सूखे और मरुस्थलीकरण झेल रहे देशों के लिए) के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी की भी याद दिलाई गई है।
“राज्यों पर अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत यह दायित्व है कि वे मानवाधिकारों के प्रभावी उपभोग को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक उपाय करें, जिनमें जलवायु प्रणाली और पर्यावरण के अन्य हिस्सों की रक्षा शामिल है,” आदेश में कहा गया है, जिसकी प्रति इस संवाददाता के पास उपलब्ध है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा उठाए गए अधिक विवादास्पद प्रश्न, जैसे समझौते के उल्लंघन के कानूनी प्रभाव पर प्रतिक्रिया देते हुए न्यायालय ने कहा कि “किसी राज्य द्वारा किसी दायित्व का उल्लंघन … एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय रूप से गलत कृत्य है जो उस राज्य की जिम्मेदारी को जन्म देता है।”
आदेश में कहा गया कि “एक अंतरराष्ट्रीय रूप से गलत कृत्य के लिए कानूनी परिणामों में निम्नलिखित दायित्व शामिल हो सकते हैं:
(क) यदि कृत्य या चूक जारी है, तो उसे रोकना;
(ख) यदि परिस्थिति की मांग हो तो, भविष्य में दोहराव न होने का आश्वासन और गारंटी देना;
(ग) और यदि राज्य की जिम्मेदारी के सामान्य कानून की शर्तें पूरी होती हैं, जिसमें यह दिखाया जाए कि गलत कृत्य और क्षति के बीच एक प्रत्यक्ष और निश्चित कारण-संबंध है तो पीड़ित राज्य को पूर्ण प्रतिकर देना, जिसमें पुनर्स्थापन, मुआवजा और संतोष शामिल हैं।”
यह अंतिम हिस्सा सीधे तौर पर संयुक्त राष्ट्र वार्ताओं में “हानि और क्षति” (लॉस एंड डैमेज) तत्व से जुड़ता है, जिसे हाल के वर्षों में औपचारिक रूप दिया गया है, लेकिन धरातल पर अब तक ज्यादा कार्यान्वयन नहीं हुआ है।
‘परिवर्तनकारी क्षण’
“यह एक ऐतिहासिक क्षण है। आज का निर्णय दुनिया की सर्वोच्च अदालतों की श्रृंखला में एक और मील का पत्थर है , सभी ने यह पाया है कि सरकारों पर कानूनी रूप से यह दायित्व है कि वे लोगों को जलवायु संकट से बचाएं। ऐसे समय में जब लगभग सभी देशों की जलवायु योजनाएं तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए अपर्याप्त हैं, न्यायालय के हालिया निष्कर्ष सरकारों और कंपनियों के खिलाफ चल रहे जलवायु मुकदमों को मजबूती देंगे,” क्लाइमा सीनियोरीनन मामले की प्रमुख वकील कोर्डेलिया बैहर ने कहा, जिसने इस निर्णय की नींव रखी।
जलवायु कार्यकर्ता और सतत संपदा क्लाइमेट फाउंडेशन के संस्थापक निदेशक हरजीत सिंह ने कहा, “आईसीजे की परामर्शात्मक राय केवल एक कानूनी वक्तव्य नहीं है; यह एक गेम चेंजर है जो इस नवंबर में ब्राजील के बेलेम में होने वाली कॉप30 चर्चाओं को मूल रूप से पुनर्गठित कर देगा।” उन्होंने आगे कहा, “वर्षों से जलवायु वार्ताएं राजनीतिक जोड़तोड़ और स्पष्ट कानूनी जवाबदेही की कमी से बाधित थीं; यह स्थिति अब बदलेगी।”
भारतीय स्कूल ऑफ बिजनेस में जलवायु वैज्ञानिक और आईपीसीसी लेखक अंजल प्रकाश ने टिप्पणी की, “राज्यों के लिए जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन कम करने के कानूनी दायित्व को मान्यता देकर यह आदेश जलवायु कार्रवाई की नैतिक और कानूनी नींव को मजबूत करता है।”
प्रकाश ने कहा, “जैसे-जैसे हम कॉप30 की ओर बढ़ते हैं, यह निर्णय स्पष्टता और तात्कालिकता को फिर से स्थापित करता है — सरकारें अब अस्पष्टता के पीछे नहीं छिप सकतीं।”
यूथ नेटवर्क क्लाइमेट चेंज बांग्लादेश से सोहानुर रहमान ने कहा, “युवाओं ने इस सबसे बड़े संकट, जलवायु परिवर्तन, को दुनिया की सबसे बड़ी अदालत में पहुंचाया और जीत हासिल की। यह सिर्फ कानूनी जीत नहीं, बल्कि यह एक स्पष्ट संदेश है कि हमारा भविष्य समझौते का विषय नहीं है।”
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया (सीएएनएसए) के निदेशक संजय वशिष्ठ ने कहा, “आईसीजे का निर्णय स्पष्ट करता है कि जलवायु परिवर्तन मानवता के खिलाफ अपराध है। जब दक्षिण एशिया में एक अरब से अधिक लोग जलवायु प्रभावों के खतरे में हैं, तो न्यायालय ने अपराधियों को उचित रूप से जिम्मेदार ठहराया है।” उन्होंने आशा जताई कि यह निर्णय बेलेंम वार्ताओं में कमजोर दक्षिण एशियाई देशों को मजबूत करेगा।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल और सुप्रीम कोर्ट में पर्यावरण मामलों के अग्रणी वकील ऋत्विक दत्ता ने कहा, “भले ही यह परामर्शात्मक राय है, लेकिन इसमें यह कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन को कम करने के दायित्व का उल्लंघन एक अंतरराष्ट्रीय गलत कृत्य है, जो राज्य की जिम्मेदारी को जन्म देता है, इसलिए इसका प्रभाव बहुत मजबूत होगा।” उन्होंने जोड़ा कि इसके पूरे असर को समझने के लिए विस्तृत अध्ययन आवश्यक होगा।
क्लाइमेट ट्रेंड्स नामक शोध संस्था की संस्थापक निदेशक आरती खोसला ने कहा, “यह विस्तृत निर्णय इस बात पर बल देता है कि जलवायु प्रभावों को देखते हुए उत्सर्जन कम करना अनिवार्य है, और सरकारों की वे नीतियां जो जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देती हैं, वे अवैध हैं। यह कॉप30 से पहले एक बड़ा संकेत है कि देशों को प्रदूषण रोकना होगा और ऐसी नीतियां बनानी होंगी जो संकट को और न बढ़ाएं।”