यूएन द्वारा प्रकाशित "एमिशन गैप रिपोर्ट 2020" से पता चला है कि यदि तापमान में हो रही वृद्धि इसी तरह जारी रहती है, तो सदी के अंत तक यह वृद्धि 3.2 डिग्री सेल्सियस के पार चली जाएगी। जिसके विनाशकारी परिणाम झेलने होंगे। तापमान में आ रही इस वृद्धि का सीधा असर आम लोगों के जनजीवन पर भी पड़ेगा। बाढ़, सूखा, तूफान जैसी आपदाओं का आना आम बात हो जाएगा। जिसका सबसे ज्यादा असर ग्रामीण क्षेत्रों पर पड़ेगा। जहां एक तरफ यह आपदाएं उनके जीवन पर असर डालेंगी वहीं दूसरी तरफ यह कृषि पर भी असर करेंगी जिसका असर आर्थिक क्षेत्र पर भी पड़ेगा। हालांकि रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 और उसके कारण आए ठहराव के चलते उत्सर्जन में कुछ कमी आई थी पर वो कमी लम्बे समय तक नहीं रहेगी।
रिपोर्ट का मानना है कि महामारी से आई आर्थिक मंदी के चलते 2020 में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में करीब 7 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। हालांकि यह कमी पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने में कोई ज्यादा मदद नहीं करेगी। अनुमान है कि 2020 में उत्सर्जन में जो कमी आई है, उसके चलते 2050 तक तापमान में सिर्फ 0.01 डिग्री सेल्सियस की कमी आएगी। ऐसे में यदि महामारी का फायदा उठाना है तो इस आर्थिक मंदी से उबरते वक्त पर्यावरण और क्लाइमेट को भी ध्यान में रखना होगा, इस महामारी ने हमें एक ऐसा मौका भी दिया है जिसका लाभ उठाकर हम अपने उत्सर्जन में कमी ला सकते हैं और आने वाले वक्त में 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल कर सकते हैं।
यदि रिपोर्ट में दिए आंकड़ों पर गौर करें तो लगातार तीसरे साल ग्लोबल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि दर्ज की गई है। जो 2019 में बढ़कर अब तक के 59.1 गीगाटन (ग्रीन हाउस गैस + भूमि उपयोग में आया परिवर्तन) के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुकी है। जबकि 2010 से उत्सर्जन में औसतन 1.4 फीसदी की दर से वृद्धि हो रही थी, जो 2019 में बढ़कर 2.6 फीसदी पर पहुंच चुकी है।
भारत में 2010 से 19 के बीच 3.3 फीसदी की दर से दर्ज की गई उत्सर्जन में वृद्धि
यदि भारत के उत्सर्जन को देखें तो 2019 के दौरान भारत में 3.7 गीगाटन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन हुआ था। इस आधार पर भारत, चीन (14 गीगाटन), अमेरिका (6.6 गीगाटन) और यूरोप और यूके (4.3 गीगाटन) के बाद चौथा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है। जबकि यदि भारत में प्रति व्यक्ति द्वारा किए जा रहे उत्सर्जन पर गौर करें तो यह 2.7 टन सीओ2इ प्रति व्यक्ति है, जोकि अंतराष्ट्रीय औसत (6.8 टन सीओ2इ प्रतिव्यक्ति) से भी काफी कम है।
साथ ही यह चीन (9.7 टन सीओ2इ प्रतिव्यक्ति), अमेरिका (20 टन सीओ2इ प्रतिव्यक्ति), यूरोप और यूके (8.6 टन सीओ2इ प्रतिव्यक्ति), रूस (17.4 टन सीओ2इ प्रतिव्यक्ति) और जापान (10.7 टन सीओ2इ प्रतिव्यक्ति) से भी कई गुना कम है। यदि भारत द्वारा 2010 के बाद से किए जा रहे उत्सर्जन की बात करें यह हर वर्ष औसतन 3.3 फीसदी की दर से बढ़ रहा था। जबकि 2019 में उत्सर्जन की दर में कमी दर्ज की गई है जब इसमें हो रही वृद्धि 1.3 फीसदी दर्ज की गई थी।
भारत अपने उत्सर्जन में कमी करने के लिए कई प्रयास कर रहा है इसी दिशा में उसने 2020 के पहले छह महीनों में कोई नया थर्मल पावर प्लांट स्थापित नहीं किया है। यही वजह है कि कोयले से उत्पन्न हो रही ऊर्जा में करीब 0.3 गीगावाट की कमी आई है। हालांकि भारत की रणनीति भविष्य में भी कोयला से ऊर्जा प्राप्त करने की है। यही वजह है कि 2020 में भारत का घरेलू कोयला उत्पादन रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच सकता है।
भारत सौर ऊर्जा पर भी विशेष ध्यान दे रहा है, 2022 तक अपने कृषि क्षेत्र में सौर ऊर्जा को बढ़ने और 25 गीगावॉट क्षमता विकसित करने के लिए निवेश को बढ़ाने की विस्तृत पीएम कुसुम योजना बनाई है। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर रिन्यूएबल एनर्जी को 2022 तक 175 गीगावाट करने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही भारत इलेक्ट्रिक व्हीकल्स पर भी विशेष ध्यान दे रहा है जिससे उससे हो रहे उत्सर्जन को सीमित किया जा सके। साथ ही भारतीय रेलवे ने 2023 तक अपने पूरे नेटवर्क का विद्युतीकरण करने का लक्ष्य रखा है और 2030 तक रेलवे को उत्सर्जन मुक्त करने का लक्ष्य भी तय किया है।