जलवायु परिवर्तन आज एक ऐसी चुनौती है, जिससे दुनिया का कोई देश सुरक्षित नहीं हैं| कहीं बाढ़, कहीं सूखा तो कहीं घटती उत्पादकता| हर किसी पर इसका कुछ न कुछ असर जरूर पड़ रहा है| इसी खतरे को देखते हुए 2015 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में एक समझौता किया गया था जिसे 'पेरिस समझौते' के नाम से जाना जाता है| इस समझौते का लक्ष्य तापमान में हो रही बढ़ोतरी को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है| जिसे हासिल करने के लिए दुनिया भर के देशों को अपने उत्सर्जन में कटौती करनी होगी|
इसी से जुड़ा एक अध्ययन 29 अप्रैल को अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर कम्युनिकेशन में छपा है| जिसके अनुसार पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन में 40 से 50 फीसदी की कटौती करनी होगी| यह अध्ययन पीबीएल नीदरलैंडस एनवायर्नमेंटल एसेस्समेंट एजेंसी और यूट्रेक्ट विश्वविद्यालय द्वारा मिलकर किया गया है| दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए क्या कवायद हो रही है और पेरिस समझौते को हासिल करने में वो कितनी कारगर है| इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 5 अलग-अलग परिदृश्यों के आधार पर परिकल्पना की है|
इसमें शोधकर्ताओं ने उन सात देशों पर फोकस किया है| जो दुनिया में सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करते हैं| शोध से पता चला है कि इन देशों की जो जलवायु सम्बन्धी नीतियां और उनका क्रियान्वन हैं, वो पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए नाकाफी हैं| यही वजह है कि दुनिया के लिए चाहकर भी पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करना कठिन है।
हालांकि इनके बीच का अंतर देशों के हिसाब से कहीं कम तो कहीं ज्यादा है| पर एक बात तो तय है कि यदि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करना है तो दुनिया के हर देश को इस मुद्दे पर मिलकर काम करना होगा| उन्हें रिन्यूएबल एनर्जी और एनर्जी एफिशिएंसी सम्बन्धी नीतियों पर भी विशेष ध्यान देने कि जरुरत है| गौरतलब है कि कोरोनावायरस के चलते अगली कॉप मीटिंग को 2021 तक के लिए टाल दिया गया है| ऐसे में देशों से उम्मीद है कि वो राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान (एनडीसी) को अगले कॉप से पहले सुनिश्चित कर लेंगे| साथ ही उसमें कुछ और भी योगदान देंगे|
एनडीसी वर्त्तमान में मौजूदा राष्ट्रीय नीतियों का एक जरुरी हिस्सा है| इस शोध में देश कि घरेलू नीतियों के प्रभाव को 2030 तक की अवधि के लिए ध्यान में रखकर अध्ययन किया गया है| जिसके लिए उन्होंने दुनिया भर के अलग-अलग संस्थानों के 9 इंटीग्रेटेड असेसमेंट मॉडल्स का उपयोग किया है| गौरतलब है कि उत्सर्जन में कटौती करने के उद्देश्यों से दुनिया भर के देशों ने कार्बन कटौती के लक्ष्य निर्धारित किये हैं, जिन्हें ‘राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान’ (एनडीसी) के रूप में जाना जाता है।
इस शोध में शोधकर्ताओं ने जी20 देशों की क्लाइमेट सम्बन्धी नीतियों का विश्लेषण किया है| जिससे पता चला है कि इन नीतियों के प्रभावाधीन 2030 तक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करीब 2.5 से 5 गीगाटन कम हो जायेगा| जोकि नीतियों और लक्ष्यों के बिना भी केवल 5.5 फीसदी के अंतर के बराबर है| वहीँ यदि एनडीसी में निर्धारित लक्ष्यों पर गौर करें तो देशों द्वारा की गयी वास्तविक कटौती उसकी तुलना में काफी कम है| जबकि यदि एनडीसी का पूरी तरह पालन किया जाता है तो उत्सर्जन में करीब 5 से 10 गीगा टन सीओ2 की और कमी हो जाएगी| जोकि 2030 तक उत्सर्जन में केवल 17 फीसदी की कमी के बराबर ही होगी|
हालांकि शोध में यह भी माना गया है कि कहीं-कहीं पर वास्तविकता में सही नीतियों को लागु किया जा रहा है| जोकि एक अच्छी बात है| पर साथ भी यह भी कहा गया है कि यदि कार्यवाही में देरी होती है तो इसका खामियाजा भी भुगतना होगा| यहां तक कि इसके चलते यह समझौता विफल भी हो सकता है| ऐसे में शोध के अनुसार 2030 तक उत्सर्जन का यह अंतर करीब 22 से 28 गीगा टन के बराबर होगा| ऐसे में पेरिस समझौते को सफल बनाने के लिए उत्सर्जन में करीब 40 से 50 फीसदी कि कटौती करनी होगी|
शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन के साथ ही एक क्लाइमेट पालिसी डेटाबेस भी बनाया है जिसमें वो सभी देशों की जलवायु सम्बन्धी नीतियों का लेखा जोखा तैयार कर रहे हैं| जिससे उनका विश्लेषण किया जा सके|
आज जलवायु परिवर्तन एक ऐसा कड़वा सच है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता| ऐसे में यदि पेरिस समझौता फेल होता है, तो उसका मतलब होगा तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा की वृद्धि| अभी तापमान में पूर्व-औद्योगिक काल से करीब 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है और उसके चलते मौसम के पैटर्न में काफी बदलाव आ चुका है| बाढ़, सूखा, महामारी जैसी आपदाएं आम बात हो गयी है| ऐसे में तापमान में होने वाली 2 डिग्री की वृद्धि के परिणाम कितने विनाशकारी होंगे| इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है|
हाल ही में उससे जुड़ा एक अध्ययन जर्नल नेचर कम्युनिकेशन में छपा था। जिसके अनुसार यदि हम पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाए तो वैश्विक अर्थव्यवस्था को करीब 6,00,000 अरब डॉलर (4,59,30,300 अरब रुपए) का नुकसान उठाना पड़ेगा। जोकि विश्व के वर्त्तमान जीडीपी से करीब 7.5 गुना ज्यादा है। जलवायु परिवर्तन एक ऐसी त्रासदी है जिसकी कीमत सिर्फ हमें नहीं, हमारे आने वाली नस्लों को भी चुकानी होगी|