डाउन टू अर्थ विशेष: बेलेम में हुए कॉप30 से क्या हुआ हासिल?

वैश्विक तापमान में तेज वृद्धि हो रही है और अनुकूलन फंड कमजोर पड़ रहे हैं। इस बार भी ब्राजील के बेलेम में कॉप 30 के वार्ताकारों के बीच से कुछ ठोस निकलकर सामने नहीं आया। जबकि इससे पहले ही वैज्ञानिकों की रिपोर्ट की एक श्रृंखला ने संकट की बड़ी चेतावनी दी है।
डाउन टू अर्थ विशेष: बेलेम में हुए कॉप30 से क्या हुआ हासिल?
फोटो: COP30 Brasil Amazôônia
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पिछले कुछ हफ्तों में, जब वैश्विक नेता और राजनयिक दुनिया के सबसे बड़े वर्षावन की हृदय स्थली ब्राजील के बेलेम में 30वें यूएन जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप30) के लिए एकत्र होने की तैयारी कर रहे थे, तभी वैज्ञानिकों, अनुसंधान समूहों और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने रिपोर्ट की एक झड़ी लगा दी, जो वर्षों की निष्क्रियता और जलवायु लक्ष्यों पर धीमी प्रगति से उत्पन्न आसन्न संकटों की चेतावनी देती हैं। अब तक, वैश्विक तापमान वृद्धि को सीमित करने पर होने वाली वार्षिक वार्ताओं से पहले ऐसी रिपोर्टें जारी करना एक दिनचर्या बन चुकी है। 10 नवंबर से शुरु हुई कॉप 30 के वार्ताकारों ने रिपोर्ट्स के इन निष्कर्षों पर ध्यान भी दिया है लेकिन कुछ ठोस उभरकर फिर नहीं आ रहा। यह रिपोर्ट्स साक्ष्यों का बढ़ता भंडार प्रस्तुत करती हैं, जो चिल्लाकर कहती हैं कि मानवता को इन चेतावनियों पर ध्यान देना होगा।

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इस श्रृंखला की नवीनतम रिपोर्ट विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की है, जो चेतावनी देती है कि 2025 रिकॉर्ड पर दूसरा या तीसरा सबसे गर्म वर्ष बनने की राह पर है। 2015 से 2025 तक के 11 वर्ष दरअसल 176 वर्षों के दर्ज रिकॉर्ड में सबसे गर्म 11 वर्षों में रहे हैं और पिछले तीन वर्षों में सबसे अधिक तापमान दर्ज किया गया। डब्ल्यूएमओ की “स्टेट ऑफ द ग्लोबल क्लाइमेट अपडेट 2025 इस बात पर ध्यान ले जाती है, “2025 में भी असाधारण तापमान का चिंताजनक सिलसिला जारी रहा।” रिपोर्ट कहती है कि जून 2023 से अगस्त 2025 तक 26 महीनों में फरवरी, 2025 को छोड़कर रिकॉर्ड-तोड़ मासिक तापमान का लंबा सिलसिला चला। महासागर की गर्माहट 2024 के रिकॉर्ड स्तर से भी ऊपर पहुंच गई और पिछले दो दशकों में महासागरों का तापमान तेजी से बढ़ा है।

इसके दूरगामी परिणाम नजर आते हैं। इसमें समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों का क्षरण, जैव विविधता का नुकसान और महासागर की कार्बन अवशोषित करने की क्षमता कमजोर होना। गर्म समुद्र भी अधिक शक्तिशाली तूफानों को ईंधन दे रहे हैं, ध्रुवों पर समुद्री बर्फ पिघलने को तेज कर रहे हैं, और भूमि-बर्फ नुकसान के साथ समुद्र-स्तर वृद्धि को बढ़ावा दे रहे हैं। उपग्रह युग की शुरुआत के बाद से, समुद्र-स्तर वृद्धि की दीर्घकालिक दर 1993–2002 के 2.1 मिमी प्रति वर्ष से दोगुनी होकर 2016–2025 में 4.1 मिमी प्रति वर्ष हो गई है। सर्दियों की बर्फ जमने के बाद आर्कटिक समुद्री बर्फ का क्षेत्रफल रिकॉर्ड में सबसे कम था, जबकि अंटार्कटिक समुद्री बर्फ पूरे वर्ष औसत से काफी कम रही।

डब्ल्यूएमओ की रिपोर्ट आगे नोट करती है कि 2023–2024 का जलविज्ञान वर्ष लगातार तीसरा वर्ष था, जिसमें सभी निगरानी किए गए हिमनद क्षेत्रों ने शुद्ध द्रव्यमान हानि दर्ज की, जो वैश्विक औसत समुद्र-स्तर में 1.2 मिमी वृद्धि के बराबर है और 1950 के बाद से सबसे बड़ी दर्ज हानि है। 2025 की चरम घटनाओं ने व्यापक विनाश किया। अफ्रीका और एशिया में बाढ़, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में जंगल की आग, घातक उष्णकटिबंधीय चक्रवात और दुनिया भर में लगातार हीटवेव जारी रहा।

रिपोर्ट बताती है कि वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड (सीओटू), मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जो कि तीन प्रमुख ग्रीनहाउस गैस हैं उनका स्तर 2024 में रिकॉर्ड उच्च पर पहुंच गया। सीओटू की वायुमंडलीय सांद्रता 1750 में 278 पार्ट्स पर मिलियन (पीपीएम) से बढ़कर 2024 में 423.9 पीपीएम हो गई। 2023–2024 में सांद्रता में वृद्धि 3.5 पीपीएम थी। हालिया दर्ज इतिहास में यह सबसे अधिक है। अब तक व्यक्तिगत स्थानों से लिए गए माप बताते हैं कि 2025 में इन स्तरों में और वृद्धि होगी।

डब्ल्यूएमओ की महासचिव सेलेस्टे साउलो कहती हैं, “इस अभूतपूर्व उच्च तापमान के सिलसिले के साथ पिछले वर्ष ग्रीनहाउस गैसों में रिकॉर्ड वृद्धि को देखते हुए, अगले कुछ वर्षों में वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना अस्थायी रूप से इस लक्ष्य को पार किए बिना लगभग असंभव होगा।” हालांकि साउलो सतर्क आशावादी हैं और कहती हैं कि “सदी के अंत तक तापमान को फिर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक लाना संभव और आवश्यक है”, लेकिन यूएन पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की एक रिपोर्ट का अनुमान है कि वर्तमान नीतियों के तहत दुनिया 2100 तक 2.8 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की ओर बढ़ रही है। ऐसी वृद्धि दुनिया के विशाल हिस्सों और उसकी आबादी के बड़े हिस्से को अस्तित्वगत संकट में धकेल सकती है। भारत अपनी विशाल संवेदनशील आबादी और लंबी समुद्री तटरेखा के साथ सबसे अधिक प्रभावित देशों में होगा।

क्या 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य मर चुका है?

पिछले 16 वर्षों से यूएनईपी वैश्विक “उत्सर्जन अंतर” का वार्षिक मूल्यांकन प्रकाशित कर रहा है यानी घोषित राष्ट्रीय नीतियों और प्रतिज्ञाओं के आधार पर वैश्विक उत्सर्जन जिस दिशा में जा रहा है और अंतरराष्ट्रीय तापमान लक्ष्यों को पूरा करने के लिए जो आवश्यक है, उसके बीच का अंतर। इस वर्ष की एमिशन गैप रिपोर्ट, जिसका शीर्षक “ऑफ टार्गेट” है, उससे पता चलता है कि राष्ट्र अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) को पूरा करने की राह पर नहीं हैं। मौजूदा नीतियों के आधार पर दुनिया 2.8 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की ओर बढ़ रही है।

यूएनईपी की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन कहती हैं, “इस सदी के लिए वैश्विक वार्मिंग के अनुमान, यदि सभी एनडीसी पूरी तरह लागू किए जाएं, अभी 2.3-2.5 डिग्री सेल्सियस है, जबकि पिछले वर्ष ये 2.6-2.8 डिग्री सेल्सियस थे।” वह कहती हैं, “हालांकि, पद्धतिगत अद्यतन से 0.1 डिग्री सेल्सियस का सुधार हुआ है और अमेरिका के पेरिस समझौते से बाहर निकलने से यह सुधार खत्म हो जाएगा यानी नई प्रतिज्ञाओं ने बहुत कम फर्क डाला है।”

इस वर्ष पेरिस समझौते के एक दशक पूरे हुए, जिसने तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से काफी नीचे रखने और इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के प्रयासों का लक्ष्य रखा था। समझौते के तहत देशों को फरवरी 2025 तक अपने नए एनडीसी जमा करने थे। कई लोगों को उम्मीद थी कि ये नई प्रतिज्ञाएं उत्सर्जन में भारी कटौती और जलवायु संकट की तीव्रता रोकने के लिए एक बड़े बदलाव का संकेत देंगी। ऐसा अब तक नहीं हुआ है।

30 सितंबर तक पेरिस समझौते के 193 पक्षों में से केवल 64 ने नए एनडीसी जमा किए या घोषित किए जो वैश्विक उत्सर्जन के 63 फीसदी का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहां तक कि मौजूदा प्रतिज्ञाओं का पूर्ण कार्यान्वयन भी 2035 में अपेक्षित उत्सर्जन को 2019 के स्तर की तुलना में केवल 15 फीसदी कम करेगा। 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य पर बने रहने के लिए उत्सर्जन को 55 फीसदी घटाने की आवश्यकता है। लेकिन अधिकांश देश अपने 2030 लक्ष्यों को भी पूरा नहीं कर पा रहे हैं। यूएनईपी इसे “क्रियान्वयन अंतर” कहता है।

ग्रीनहाउस गैसों (सीओटू, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और एफ-गैसें) का वैश्विक उत्सर्जन बढ़ता ही जा रहा है और 2024 में 57.7 गीगाटन सीओटू समतुल्य (जीटीसीओटूई) के रिकॉर्ड पर पहुंच गया। यह पिछले वर्ष की तुलना में 2.3 फीसदी वृद्धि है। 2010 के दशक की औसत वार्षिक वृद्धि से चार गुना और 2000 के दशक की 2.2 फीसदी दर के समान।

ऊर्जा और उद्योग क्षेत्र में जीवाश्म ईंधन दहन कोयला, तेल और गैस का उपयोग और सीमेंट, धातु व अन्य सामग्री का उत्पादन दरअसल कुल उत्सर्जन का 69 फीसदी है। मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और एफ-गैसें 24 फीसदी और जोड़ती हैं। रेफ्रिजरेशन और इंसुलेशन में उपयोग होने वाली एफ-गैसों का उत्सर्जन सबसे तेजी से बढ़ा, 3.8 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। वनों की कटाई और भूमि-उपयोग परिवर्तन ने भी योगदान दिया। भूमि-उपयोग परिवर्तन से सीओटू उत्सर्जन 2023–2024 के बीच 21 फीसदी बढ़ा। एक दशक से जारी गिरावट को उलटते हुए। वहीं, तुलना में जीवाश्म सीओटू उत्सर्जन में 1.1 फीसदी की वृद्धि हुई।

रिपोर्ट के मुताबिक, चीन, अमेरिका, भारत, यूरोपीय संघ, रूस और इंडोनेशिया जो कि दुनिया के सबसे बड़े 6 उत्सर्जक देश हैं। 2023–2024 के बीच उत्सर्जन में सबसे अधिक वृद्धि भारत और चीन में दर्ज हुई, जबकि ईयू एकमात्र ब्लॉक था जहां उत्सर्जन घटा।

रिपोर्ट पाती है कि भूमि-उपयोग उत्सर्जन को छोड़कर, जी20 देशों से उत्सर्जन 2023–24 के बीच उत्सर्जन में कुल वृद्धि का 77 फीसदी था। वहीं “सबसे कम विकसित देशों” समूह का योगदान केवल 3 फीसदी था। एंडरसन कहती हैं, “राष्ट्रों को पेरिस समझौते के वादों को पूरा करने के तीन मौके मिले और हर बार वे लक्ष्य से भटक गए।”

रिपोर्ट कहती है कि अब चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य का जो भी अतिक्रमण होगा, वह छोटा और सीमित हों। हर दसवें हिस्से की बचाई गई गर्मी नुकसान, हानि और स्वास्थ्य प्रभावों को कम करेगी, खासकर सबसे गरीब और कमजोर समुदायों के लिए। इससे कार्बन-डाइऑक्साइड हटाने की महंगी और जोखिमभरी तकनीकों पर निर्भरता भी कम होगी।

यूएनईपी जोर देता है कि जी 20 की कार्रवाई निर्णायक होगी क्योंकि यह अफ्रीकी संघ को छोड़कर वैश्विक उत्सर्जन के 77 फीसदी के लिए जिम्मेदार है। हालांकि, सात जी20 सदस्यों ने नए एनडीसी जमा किए हैं और वह समूह समग्र रूप से अपने 2030 लक्ष्यों से बहुत दूर है। फिर भी दुनिया पवन और सौर ऊर्जा जैसी नवीकरणीय तकनीकों की गिरती लागतों के कारण तकनीकी रूप से तेजी से प्रगति कर सकती है।

उत्सर्जन अंतर को बंद करने के लिए यूएनईपी सरकारों से नीति, शासन, संस्थागत और तकनीकी बाधाओं को दूर करने, विकासशील देशों को वित्तीय और तकनीकी सहायता में भारी वृद्धि प्रदान करने और जलवायु वित्त को खोलने के लिए अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचे को दोबारा डिजाइन करने का आग्रह करता है।

रिपोर्ट निष्कर्ष निकालती है कि अपने सबसे महत्वाकांक्षी परिदृश्य में भी, जिसमें सशर्त एनडीसी और सभी घोषित नेट-जीरो प्रतिज्ञाएं शामिल हों तब भी दुनिया इस सदी में लगभग 1.9 डिग्री सेल्सियस तक गर्म होगी और इसे नीचे रखने की संभावना केवल 66 फीसदी होगी।

वित्त का भारी अंतर

स्पष्ट है कि अनुकूलन अपरिहार्य है, लेकिन कॉप 30 से पहले यूएनईपी द्वारा जारी “एडॉप्टेशन गैप रिपोर्ट 2025” कोई खास आशा नहीं देती। इस रिपोर्ट का लांच 28 अक्टूबर को उत्तरी अटलांटिक में भूमि पर पहुंचने वाले सबसे शक्तिशाली तूफानों में से एक और जमैका को प्रभावित करने वाला सबसे विनाशकारी तूफान हरिकेन मेलिसा की तबाही के साथ हुआ। “रनिंग ऑफ इंपटी” नाम से प्रकाशित यह रिपोर्ट जमैका जैसे देशों के लिए बहुत कम राहत प्रदान करती है, जो तीव्र होती चरम वर्षा, उष्णकटिबंधीय चक्रवातों, फ्लैश बाढ़, भूस्खलन और हीटवेव सहित तेज-गति जलवायु प्रभावों के प्रति बेहद संवेदनशील हैं।

रिपोर्ट चेतावनी देती है कि विकासशील देशों को तेजी से हो रहे बदलावों, जैसे कि चरम वर्षा, चक्रवात, बाढ़, हीटवेव के अनुकूल होने के लिए 2035 तक हर साल 310-365 बिलियन डॉलर की आवश्यकता होगी। उन्हें धीमी-गति के खतरों यानी लंबा सूखा, समुद्र-स्तर में वृद्धि और हिमनदों व बर्फिले चादरों के पिघलने से भी निपटना होगा। लेकिन 2023 में अंतरराष्ट्रीय सार्वजनिक अनुकूलन वित्त घटकर 26 बिलियन डॉलर रह गया। 2022 के 28 बिलियन डॉलर से कम। इससे 284-339 बिलियन डॉलर का अनुकूलन वित्त अंतर रह गया है।

अब विकासशील देशों को वर्तमान प्रवाह से 12 से 14 गुना अधिक वित्त की आवश्यकता है। पहले के अनुमान 2030 तक 194 से 366 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष की आवश्यकता बताते थे। यूएन महासचिव एंतोनियो गुटेरेस कहते हैं, “अनुकूलन कोई लागत नहीं बल्कि यह जीवनरेखा है। अनुकूलन अंतर को पाटना ही जीवन की रक्षा, जलवायु न्याय और एक सुरक्षित, टिकाऊ दुनिया बनाने का तरीका है।”

यदि मौजूदा रुझान जारी रहे तो 2025 तक अनुकूलन वित्त को 2019 के स्तर से दोगुना करने का ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट का लक्ष्य पूरा नहीं होगा। बाकू में हुए कॉप 29 में तय नया सामूहिक परिमाणित जलवायु वित्त लक्ष्य कहता है कि विकसित देशों को 2035 तक हर साल 300 बिलियन डॉलर देना चाहिए, फिर भी यह अनुकूलन अंतर को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा।

एंडरसन कहती हैं, “हमें अनुकूलन वित्त में वैश्विक उछाल की आवश्यकता है, खासतौर से सार्वजनिक और निजी दोनों से क्योंकि यदि हम अब निवेश नहीं करेंगे तो भविष्य में लागतें बहुत अधिक होंगी।”

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