बंद करें यह सालाना तमाशा
योगेन्द्र आनंद / सीएसई

बंद करें यह सालाना तमाशा

हर साल की तरह इस साल भी यूएन कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज यानी कॉप एक रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं रहा
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हर साल सरकारी राजनयिकों, सिविल सोसाइटी और शिक्षाविदों की भीड़ जलवायु परिवर्तन पर चर्चा के लिए उमड़ते हैं। इस साल यूएन कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप-30) अमेजन वर्षावन के किनारे बसे ब्राजील के शहर बेलेम में संपन्न हुआ। वहीं, दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में हवा जहरीली हो चुकी है और नागरिकों को सांस लेना भी दूभर हो रहा है।

हर बार की तरह इस साल भी जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरें निराशाजनक हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट कहती है कि वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में लगातार वृद्धि हो रही है। हमारी दुनिया 2030 के दशक की शुरुआत तक 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की सीमा को पार करने की राह पर है।

यह बेहद बुरी खबर है क्योंकि केवल 1.2 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि के बावजूद दुनिया के लगभग हर हिस्से में विनाशकारी चरम घटनाएं घट रही हैं। लेकिन यह खबर अब इतनी पूर्वानुमानित हो गई है कि हम इसे मुश्किल से ही सुन पाते हैं। यही वह समय है जब हम अपने दैनिक जीवन में जलवायु के प्रभावों को सचमुच देख सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र की बैठक धीरे-धीरे एक “कार्यक्रम” बनकर रह गई है। यह अब सरकारों को जवाबदेह ठहराने का मंच नहीं है।

फिर जैसे-जैसे उत्तर भारत में तापमान गिरता है वैसे-वैसे हवाओं की रफ्तार धीमी पड़ जाती हैं और ठंडी हवा जमीन के पास जमा हो जाती है। प्रदूषण हमारी आंखों में चुभता है और उन्हें जलाता है। हमारे फेफड़ों की हालत भी बुरी है। कुछ महीनों तक मीडिया प्रदूषण को निरंतर सबसे महत्वपूर्ण समाचार बनाए रहेगा, राजनेता एक-दूसरे पर दोषारोपण करते रहेंगे और लोग घृणापूर्वक यह तमाशा देखते हैं। साल के बाकी हिस्से में कोई कार्रवाई न होने के कारण प्रदूषण का स्तर साल दर साल बढ़ता ही जाता है।

इस साल दिल्ली सरकार ने भगवान बनने का फैसला किया और बादलों में बीज बोने और बारिश कराने के लिए आसमान में विमान भेजे। इस वैज्ञानिक उपलब्धि ने मीडिया को मंत्रमुग्ध कर दिया। यह प्रयोग बुरी तरह विफल रहा, लेकिन सरकार ने दिखा दिया कि उसे इस समस्या की “परवाह” है।

यह तब हुआ जब यह सब जानते हैं कि हवा में नमी केवल प्रदूषकों को एक जगह एकत्रित करके समस्या को और बदतर बनाती है। हवा को साफ करने का काम भारी बारिश और तेज हवाएं करती हैं। हमें प्रतिष्ठित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर के विद्वान वैज्ञानिकों से पूछना चाहिए कि उन्होंने इस महंगे तमाशे की सिफारिश क्यों की।

हालांकि, मेरी असली चिंता यह है कि वार्षिक जलवायु शिखर सम्मेलन और हमारा अपना वार्षिक प्रदूषण सर्कस, दोनों ही पूरी तरह से अपर्याप्त और गैर-गंभीर कार्रवाई दिखाने के बहाने बन गए हैं।

कॉप को एक ऐसे मंच के रूप में परिककल्पित किया गया था, जहां यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज के विभिन्न पक्ष कार्यान्वयन की प्रगति का जायजा लेंगे और अगले कदमों पर बातचीत करेंगे।

जलवायु समझौता अपनी प्रकृति मात्र से विवादास्पद और लोगों को बांटने वाला है। यह दुनिया को दो हिस्सों में बांट देता है। वे देश जिन्होंने वायुमंडल में ग्रीनहाउस (हरितगृह )गैसों के उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान दिया है और इसलिए उत्सर्जन कम करने के लिए सबसे पहले आगे आने की जिम्मेदारी उनकी है और दूसरे वे देश जिन्हें अभी भी विकास के लिए समय और छूट चाहिए और इसलिए उन्हें उत्सर्जन करना होगा।

इस विभाजन को देखते हुए 1992 में ही इस बात पर सहमति बन गई थी कि उत्सर्जन शमन लक्ष्य ऐतिहासिक उत्सर्जन को प्रतिबिंबित करेंगे और वित्त एवं तकनीक प्रदान की जाएगी ताकि “विकासशील” दुनिया अलग तरह से विकसित हो सके। इस तरह यह दुनिया कार्बनीकरण से पहले ही कार्बन-मुक्त हो जाएगी।

लेकिन उसके बाद के 35 वर्षों में कॉप 30 तक, दुनिया इन मुद्दों पर टालमटोल करती रही है। इससे भी बुरी बात यह है कि 2015 के पेरिस समझौते ने समता के सिद्धांत को ध्वस्त कर दिया।

अब हर देश पर (हालांकि कुछ भिन्नताओं के साथ) अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) लक्ष्य निर्धारित करने की जिम्मेदारी है। इसने नियम-आधारित वैश्विक व्यवस्था नष्ट हो गई है। 1992 में “गैर-प्रदूषक” सूची में शामिल कई देश अब बिलकुल बदल गए हैं।

इस बात को ध्यान में रखते हुए समझौते में संशोधन किया जाना चाहिए था। इसके लिए एक सर्वमान्य सूत्र की आवश्यकता थी (अतीत और वर्तमान उत्सर्जन पर आधारित एक सूचकांक) जिससे देश की स्थिति बदल सके।

इसके बजाय, अब जब ग्लोबल साउथ (वैश्विक पश्चिम) के देश (जिन्हें विकास की आवश्यकता है और जिन्होंने वायुमंडल में उत्सर्जन में बहुत कम योगदान दिया है) अगर वे वित्त या तकनीकी हस्तांतरण की मांग करते हैं, तो इसे अनैतिक माना जाता है।

उनकी जायज मांग को वैसे ही खारिज कर दिया जाता है, जैसे माता-पिता किसी चिड़चिड़े बच्चे द्वारा नया खिलौना या टॉफी मांगने पर उसे नजरअंदाज कर देते हैं। यह एक जुआ बनकर रह गया है। हर सम्मेलन में एक नई योजना पर चर्चा होती है, हानि और क्षति कोष (कॉप 27 में), जलवायु वित्त पर नया सामूहिक परिमाणित लक्ष्य या एनसीक्यूजी (कॉप 29 में), या अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य (कॉप 30 के एजेंडे में)। हर बार नए तंत्र और नए धन की मांग होती है।

लेकिन यह मोटे तौर पर प्रतीकात्मक होता है, जैसे क्लाउड-सीडिंग का नाटक। जलवायु वित्त के नाम पर जो थोड़ा-बहुत मिलता है, वह ऋण या इक्विटी है और इससे कर्ज का बोझ बढ़ता है। इस साल सबसे कमजोर देश अंतरराष्ट्रीय सहायता से मिलने वाली राशि से अधिक ब्याज चुकाने को मजबूर होंगे।

जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों और विकास के लिए धन की कमी के कारण उनकी हालत और भी बदतर होगी। जलवायु कार्रवाई की तो बात ही छोड़ दीजिए। ये सालाना तमाशा बंद होना चाहिए।

दिल्ली में इसका मतलब होगा प्रदूषण कम करने के लिए साल भर लगातार कार्रवाई (योजना तो है, लेकिन लागू नहीं होती)। जलवायु नीति में इसका मतलब है बेकार आयोजनों में कटौती और यह स्वीकार करना कि जनता का शोर सरकारों की निष्क्रियता को छुपाने का काम करता है। मुख्य ध्यान कार्यान्वयन पर और कार्रवाई पर होना चाहिए। हम इस समस्या से बातें बनाकर बच नहीं सकते।

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