बंजर होता भारत -9: पहाड़ी राज्य भी मरुस्थलीकरण से नहीं हैं अछूते

भारत के पहाड़ी राज्यों को भी मरुस्थलीकरण ने अपनी जद में ले लिया है। हिमाचल प्रदेश और नागालैंड में हालात की पड़ताल करती डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट
मरुस्थलीकरण ने हिमाचल प्रदेश को भी अपनी जद में ले लिया है। फोटो: मिथुन
मरुस्थलीकरण ने हिमाचल प्रदेश को भी अपनी जद में ले लिया है। फोटो: मिथुन
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हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के चांगो गांव की 45 वर्षीय किसान संतोषी नेगी एक ऐसी समस्या से जूझ रही हैं जिसके बारे में वह कुछ साल पहले तक कुछ नहीं जानती थीं। “क्या यहां लाल मकड़ी के घुन के लिए कोई कीटनाशक मिलता है? यह सवाल वह गांव में हाल ही में स्थापित बागवानी कार्यालय में काम कर रहे एक अधिकारी से पूछती हैं। जवाब न में सुनकर वह 40 किमी दूर पूह में स्थित ब्लॉक मुख्यालय जाती हैं। नेगी अपने 0.5 हेक्टेयर सेब के बाग को बचाने के लिए क्लोरपाइरीफोस की खोज में हैं, जो एक ऑर्गनोफॉस्फेट कीटनाशक है और कई देशों में प्रतिबंधित है। वह कहती हैं कि, “कीट से लगभग 40 पेड़ संक्रमित हो गए हैं।” आगे जोड़ते हुए वह बताती हैं कि हाल के छह से सात वर्षों में कीटों द्वारा हुए नुकसान में काफी बढ़ोतरी हुई है। आमतौर पर घुन मिट्टी में रहते हैं और जड़ों पर हमला करते हैं। इसके बाद जल्द ही पौधा खराब होने लगता है। पिछले एक दशक में कीटनाशकों और उर्वरकों पर उसका निवेश4,000 से बढ़कर 25,000 रुपए प्रति वर्ष हो गया है।

पूह में रहने वाले 62 वर्षीय किसान देविंदर सिंह लोक्टस इस विकट समस्या की वजह बताते हैं, “सेब के पेड़ों की जड़ों को स्वस्थ रखने के लिए मिट्टी में अच्छी नमी की आवश्यकता होती है। लेकिन हाल के वर्षों में कम बर्फबारी के कारण इसमें भी कमी आई है। यहां तक कि पर्माफ्रॉस्ट, जो साल-दर-साल मिट्टी में नमी बनाए रखती थी, अब वह भी घट रही है।” उनके बाग में सेब के पेड़ स्टेम बोरर, वूली एफिड्स और रेड स्पाइडर माइट्स जैसे तमाम कीटों के शिकार हैं।

कीटनाशकों का बढ़ता उपयोग पहाड़ के पारिस्थितिकी तंत्र को बिगाड़ रहा है। इसकी वजह से लेडीबर्ड बीटल और ग्रीन लेसविंग बग की जान भी जा रही है, जो कीटों के प्राकृतिक शिकारी हैं। अधिकांश किसानों को इसके बारे में जानकारी नहीं दी जाती है और न ही उन्हें रोका जाता है। किसानों को यह तथ्य भी नहीं बताया जाता कि उनके जिले में भूमि का तेजी से निम्नीकरण हो रहा है। जिले का 72 प्रतिशत से अधिक हिस्सा मरुस्थलीकरण और निम्नीकरण के दौर से गुजर रहा है। नंगे ऊंचे पहाड़, जो कभी बर्फ से ढके रहते थे, अब हरे-भरे दिखते हैं और सेब के बागों व मटर के खेतों से सजे हुए हैं। जुनिपर पेड़, देवदार, जंगली खुबानी और रोबिनिया स्यूडोसेकिया जैसे स्वदेशी पेड़ अब बमुश्किल ही कहीं दिखाई पड़ते हैं।

स्थानीय निवासियों का कहना है कि हाल के वर्षों में बढ़ते तापमान के साथ, अब ऊपरी किन्नौर भी सेब के लिए उपयुक्त हो गया है। लेकिन, बढ़ते तापमान के साथ इस क्षेत्र में एक और जलवायु परिवर्तन देखा गया है। हिमपात में खतरनाक तरीके से कमी दर्ज की गई है। इसका असर मिट्टी की नमी पर पड़ा है। दूसरी ओर, बारिश की तीव्रता बढ़ गई है, जिससे मिट्टी का क्षरण बढ़ रहा है। पूह ग्राम पंचायत के उप ग्राम प्रधान सुशील शहाना कहती हैं, “सेब के पेड़ों को पानी की ज्यादा जरूरत होती है, इसलिए पिछले एक दशक में ऊपरी किन्नौर में जल आपूर्ति की मांग भी बढ़ी है।”

इस साल मई में पानी की किल्लत इतनी बढ़ गई कि लोगों ने अपने बागों के लिए दूर-दराज के झरनों से पानी लाने के लिए ट्रकों को लगा दिया। पंचायत सदस्यों ने 45 लाख रुपए की लागत वाली की एक परियोजना के लिए पहल की, ताकि जनरेटर और पाइप का इस्तेमाल करके सतलुज नदी से पानी लाया जा सके। लेकिन, भारी मात्रा में सिल्ट जमा हो जाने के कारण यह योजना असफल रही। शहाना बताती हैं, “19 वीं सदी के अंत में, पानी की किल्लत की वजह से हमारे पूर्वजों को ऋषिडोगरा गांव छोड़का पूह में बसना पड़ा था। अगर हालात ऐसे ही बने रहे, तो हमें भी पलायन करने को मजबूर होना पड़ सकता है।”

नागालैंड

मॉनसूनी जलवायु व उच्च आर्द्रता स्तर के लिए जाने जाने वाले नागालैंड को वनों की कटाई और बढ़ती आबादी के कारण भूमि निम्नीकरण का सामना करना पड़ रहा है। इस क्षेत्र में भूमि निम्नीकरण की कोई आशंका नहीं थी। लेकिन, निम्नीकरण एटलस के अनुसार यह राज्य उन 5 राज्यों में से एक है, जहां भूमि निम्नीकरण की दर भयावह हो चुकी है। कोहिमा के 62.43 प्रतिशत क्षेत्र पर निम्नीकरण का खतरा मंडरा रहा है। अधिकारी इसके लिए तुरंत झूम खेती को जिम्मेदार ठहराते दिखाई देते हैं, जिसमें लोग खेती की जमीन तैयार करने के लिए पेड़ काट कर जला देते हैं।

नागालैंड जीआईएस और रिमोट सेंसिंग केंद्र के डिप्टी प्रोजेक्ट डायरेक्टर, मेरिंनवापांग कहते हैं कि सैटेलाइट तस्वीरों के माध्यम से साफ पता चलता है कि महज 10 वर्षों में पूर्वी कोहिमा ने जंगल का एक बड़ा हिस्सा झूम कृषि की वजह से खो दिया। भूमि संसाधन विभाग के अपर निदेशक टी रेनबेन लोथा के अनुसार, इस राज्य में झूम कृषि के लिए हर साल लगभग 20,000 हेक्टेयर जंगल काट दिया जाता है। नागालैंड के मृदा और जल संरक्षण विभाग की 2017-18 की वार्षिक रिपोर्ट भी कहती है कि पहाड़ी क्षेत्रों में झूम कृषि के व्यापक अभ्यास से औसतन प्रति हेक्टेयर 30.62 टन भूमि क्षेत्र का नुकसान होता है। यह रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि झूम कृषि भूक्षरण के रूप में मुख्य कृषिभूमि और वनों को भी बर्बाद करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार, पूरे राज्य में 61  प्रतिशत परिवार लगभग 10 लाख हेक्टेयर जमीन के साथ स्थानांतरण कृषि पद्धति से जुड़े हुए हैं। यह राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 5.65 प्रतिशत हिस्से के लिए भूक्षरण के खतरे को बढ़ा देता है।

कोहिमा के केजोका गांव में रहने वाले 36 वर्षीय किसान विमेचो मेक्रो कहते हैं, “मैं स्थानांतरण कृषि के अलावा किसी और तरीके से आजीविका कमाना नहीं जानता।” पिछले साल दिसंबर में वह जंगल के एक नए भाग में स्थानांतरित हो गए थे और इसके लगभग 0.8 हेक्टेयर हिस्से को खाली कर दिया था। उन्होंने लकड़ी बाजार में बेची और झाड़-झंखाड़ में आग लगा दी। कुछ हफ्तों बाद, उस भाग पर मक्का, ककड़ी, और फलियां बोईं और एक बढ़िया फसल उपजाई। वह आगे कहते हैं कि आमतौर पर तीन से चार फसल ऋतु के बाद उपज कम हो जाती है। इसके बाद वह दूसरे जंगल चले जाएंगे। उन्होंने बताया कि जंगल काटकर और जला कर की जाने वाली यह कृषि उनके समुदाय की पारंपरिक कृषि पद्धति है।

लोथा कहते हैं कि भूमि उपयोग के बदलते तरीकों, जनसंख्या के दबाव और अनिश्चित जलवायु की वजह से कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन आए हैं। 10 साल पहले एक झूम चक्र को पूरा होने में 15  से 20 साल लगते थे। अबकिसान केवल 5 से 6 वर्षों में जंगल के उसी भाग पर वापस चले जाते हैं, जबकि भूमि के लिए अपनी उर्वरता वापस हासिल करने के लिए इतना समय पर्याप्त नहीं है। इसके अलावा, तेजी से लुप्त हो रहे वानस्पतिक आवरण की वजह से भी इस राज्य में भूक्षरण तीव्र गति से हो रहा है।

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