जलवायु परिवर्तन पर आयोजित शिखर सम्मेलन (कॉप 25) में 9 दिसंबर को भारत ने संकेत दिए हैं कि उसकी तत्काल उत्सर्जन में कटौती करने की कोई योजना नहीं है। केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि देश पूरी तरह से पेरिस समझौते के कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करना चाहता है। जब उनसे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने सम्बन्धी अधिक महत्वाकांक्षी योजना के बारे में पूछा गया तो उन्होंने "नए मुद्दों में उलझने" से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि "पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल किये बिना, नए लक्ष्यों और नई महत्वाकांक्षा के बारे में बात करना बेकार है।" साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि दुनिया का दूसरा सबसे बड़ी आबादी वाला देश अपने उत्सर्जन सम्बन्धी लक्ष्यों को ग्लोबल स्टॉक टेक (जीएसटी), 2023 में फिर से संशोधित कर सकता है। जिसका अर्थ यह हुआ कि आने वाले वक्त में भारत का उत्सर्जन वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित स्तर से कहीं अधिक होगा और जलवायु परिवर्तन के पड़ रहे उच्च तीव्रता वाले नकारात्मक प्रभाव इसी तरह से जारी रहेंगे। चीन और दक्षिण अफ्रीका के वार्ताकारों पहले ही संवाददाता को बता चुके हैं कि उनके देशों की भी उत्सर्जन में कटौती करने और इसके लक्ष्य को तुरंत बढ़ाने की कोई मंशा नहीं है। विशेषज्ञ ने बताया कि हालांकि यूरोपियन यूनियन अधिक महत्वाकांक्षी लक्ष्यों की मांग करके सबको आश्चर्यचकित कर सकता है|
कॉप-25 से पहले और उसके दौरान प्रकाशित कई वैज्ञानिक रिपोर्टों में कहा गया है कि यदि देश अपने पेरिस समझौते के लक्ष्यों को नहीं बढ़ाते हैं, तो इस सदी के अंत तक दुनिया में हो रही तापमान की वृद्धि को 3 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने में सफलता नहीं मिलेगी। जावड़ेकर ने विकसित देशों से क्योटो प्रोटोकॉल के तहत अपनी प्रतिबद्धताओं पर चलने की बात कही है। और दो-तीन साल तक इसके समर्थन और विस्तार करने के लिए तैयार रहने का आग्रह किया है। और यदि ऐसा हो जाता है, तो पेरिस समझौते और क्योटो प्रोटोकॉल और उसके विस्तार के एक साथ चलने की संभावना बढ़ सकती है। उन्होंने विकसित देशों के क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे संशोधन के अनुसार चलने की आवश्यकता पर जोर दिया है। हालांकि अब तक इस समझौते की आधिकारिक पुष्टि नहीं की गई है, क्योंकि अभी तक पर्याप्त संख्या में विकसित देशों ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। इसलिए यह कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है और हस्ताक्षरकर्ताओं के लिए यह जरूरी नहीं है कि उन्होंने वर्षों पहले जो वादा किया था, वो उसे लागू भी करें।
अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग सकते विकसित देश: जावड़ेकर
जावड़ेकर ने विकसित देशों को उनके ऐतिहासिक उत्सर्जन और कटौती सम्बन्धी प्रतिबद्धताओं के बारे में याद दिलाया है। साथ ही यह भी कहा है कि भारत अपने एजेंडा से नहीं मुकरने वाला, हालांकि इसका निर्धारित अवधि के खत्म होने में अब केवल एक वर्ष बाकी है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि "हम इसे भूलने नहीं देंगे। विकसित देशों द्वारा की गयी प्रतिबद्धता उसके ऐतिहासिक उत्सर्जन पर आधारित है, और वो अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते । सभी को क्योटो प्रोटोकॉल की जिम्मेदारी लेनी ही चाहिए ।"
गौरतलब है कि पेरिस समझौते से पहले क्योटो प्रोटोकॉल, जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए दुनिया का एकमात्र कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौता था। जिसे विकसित देशों द्वारा 1997 में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने और ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के लिए अपनाया गया था। जिसे 2005 में लागू किया गया था । 2012 में इसके पहले सेट के समाप्त होने के बाद, दोहा जलवायु सम्मेलन में 2013 से 2020 के बीच उत्सर्जन को रोकने के लिए दूसरे सेट पर सहमति हुई थी। जिसमें कई देशों, विशेष रूप से यूरोप द्वारा उत्सर्जन में कटौती करने का वादा किया गया था। लेकिन इसपर हस्ताक्षर न होने के कारण यह ठन्डे बस्ते में चला गया। जिसके चलते कई सौ करोड़ एमिशन ट्रेडिंग सर्टिफिकेट का व्यापर नहीं हो पाया। जावड़ेकर ने यह भी याद दिलाया कि भारत पेरिस समझौते को लागू करने वाले शीर्ष पांच देशों में शामिल था। देश न केवल सही ट्रैक पर है बल्कि वो 2005 की तुलना में 2030 तक अपने उत्सर्जन में 30 से 35 फीसदी की कमी के लक्ष्य को निश्चित रूप से हासिल कर लेगा। इसके साथ ही उन्होंने देश में सौर ऊर्जा के क्षेत्र में हो रही प्रगति पर भी प्रकाश डाला है।