इसमें कोई शक नहीं की बढ़ते तापमान के साथ लू का कहर भी बढ़ता ही जा रहा है, जो आज करीब-करीब पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले चुका है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा दक्षिणी गोलार्ध के कमजोर देशों को उठाना पड़ रहा है। हालांकि देखा जाए तो यह देश बढ़ती गर्मी और लू के कहर की मूल जड़ यानी बढ़ते उत्सर्जन के बहुत छोटे से हिस्से के लिए जिम्मेवार हैं।
इस बारे में डार्टमाउथ यूनिवर्सिटी द्वारा किए नए अध्ययन से पता चला है कि 1990 के बाद से लू की वजह से इंसानी स्वास्थ्य, उत्पादकता और कृषि आदि क्षेत्रों पर पड़ते प्रभाव के चलते करीब 1,324 लाख करोड़ रुपए (यानी 16 लाख करोड़ डॉलर) का नुकसान हो चुका है। इतना ही नहीं इसका सबसे ज्यादा बोझ पहले से ही कमजोर अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहा है।
जर्नल साइंस एडवांसेज में प्रकशित इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके अनुसार लू के चलते होने वाला आर्थिक नुकसान अब दूर भविष्य की समस्या नहीं है इसका असर पहले ही दिखने लगा है। अनुमान है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को 1992 से 2013 के बीच 5 से 29.3 ट्रिलियन डॉलर के बीच नुकसान हुआ था।
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जहां बढ़ती गर्मी और लू के चलते दुनिया की सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं को हर वर्ष प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद का औसतन 1.5 फीसदी नुकसान उठाना पड़ रहा है। वहीं दुनिया के सबसे कमजोर देशों को होने वाला यह नुकसान प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद का 6.7 फीसदी है।
भारत, चीन को उठाना पड़ेगा भारी नुकसान
इस बारे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता प्रोफेसर जस्टिन मैनकिन का कहना है कि वैश्विक स्तर पर सबसे कम आय वाले देश गर्मी की इन बढ़ती घटनाओं से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। इतना ही नहीं जैसे-जैसे जलवायु में आते बदलावों के चलते गर्मी का प्रकोप बढ़गा इसका खामियाजा इन देशों को कहीं ज्यादा उठाना पड़ेगा।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि एक निश्चित बिंदु तक यूरोप और उत्तरी अमेरिका के समृद्ध क्षेत्र, जो दुनिया के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक भी हैं, उनको सैद्धांतिक रूप से गर्म दिनों की वजह से आर्थिक रूप से फायदा हो सकता है। वहीं इसके विपरीत भारत और चीन जैसे अन्य प्रमुख उत्सर्जक देशों में बढ़ते तापमान और लू के चलते कहीं ज्यादा तेजी से नुकसान होगा।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा जारी आंकड़ों की मानें तो वैश्विक स्तर पर गर्मी के बढ़ते तनाव के कारण जहां 1995 में 28,000 करोड़ डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ था। उसके बारे में आशंका है कि वो 2030 में बढ़कर 2,40,000 करोड़ डॉलर पर पहुंच जाएगा।
देखा जाए तो बढ़ती गर्मी दुनिया की करीब एक चौथाई और शहरों की 46 फीसदी आबादी को प्रभावित कर रही है। 2016 में 170 करोड़ लोगों को कई दिनों तक भीषण गर्मी का सामना करना पड़ा था, जोकि शहरी आबादी का 46 फीसदी और कुल आबादी का करीब 23 फीसदी हिस्सा है।
गौरतलब है कि लू को लेकर यूनिसेफ द्वारा जारी एक नई रिपोर्ट “द कोल्डेस्ट ईयर ऑफ द रेस्ट ऑफ देयर लिव्स” के हवाले से पता चला है कि धरती पर हर चार में से एक बच्चा पहले ही लू की चपेट में हैं, जबकि 2050 तक हर बच्चा किसी न किसी रूप में लू की चपेट में होगा।
पिछले 50 वर्षों में लू के चलते देश में जा चुकी हैं 17 हजार से ज्यादा जानें
यदि भारत से जुड़े आंकड़ों को देखें तो जर्नल वेदर एंड क्लाइमेट एक्सट्रीम्स में प्रकाशित एक रिसर्च से पता चला है कि 1970 से 2019 के बीच पिछले 50 वर्षों में देश में लू की करीब 706 घटनाएं दर्ज की गई हैं, जिनमें 17,362 लोगों की जान गई है। इतना ही नहीं इस दौरान देश में चरम मौसमी घटनाओं के कारण हुई कुल मौतों में से 12 फीसदी के लिए लू ही जिम्मेवार थी। वहीं पता चला है कि पिछले 50 वर्षों में लू के चलते मृत्युदर में 62.2 फीसदी की वृद्धि हुई है।
गौरतलब है कि वर्ष 2015 में ही भारत में लू की वजह से 2,500 से ज्यादा लोगों की जान गई थी। यदि सिर्फ वर्ष 2022 से जुड़े आंकड़ों को देखें तो इस साल में अप्रैल से जून के बीच लू के चलते 79 लोगों ने अपनी जान गंवाई है और 3,400 से ज्यादा लोग इसकी चपेट में आए थे।
देखा जाए तो बढ़ते तापमान के साथ यह समस्या कहीं ज्यादा विकराल रूप लेती जा रही है। इस बारे में जर्नल जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में लू पर छपे एक शोध में सामने आया है कि तापमान में हर 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ लोगों के लू की चपेट में आने का जोखिम करीब तीन गुना बढ़ जाएगा।
वहीं भारत को लेकर जो जानकारी सामने आई है उनके अनुसार तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ ही भारत में लू का कहर आम हो जाएगा। साथ ही तापमान में हर 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से लोगों के इसकी चपेट में आने का जोखिम भी 2.7 गुणा बढ़ जाएगा।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा किए एक शोध से पता चला है कि पिछले 50 वर्षों में देश का उत्तर-पश्चिम, मध्य और दक्षिण-मध्य क्षेत्र लू के नए हॉटस्पॉट में बदल चुका है। जहां रहने वाली एक बड़ी आबादी पर स्वास्थ्य संकट मंडरा रहा है। इतना ही नहीं इसकी वजह से स्वास्थ्य कृषि, अर्थव्यवस्था और बुनियादी ढांचे पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। हाल ही में द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ जर्नल में प्रकाशित एक अन्य शोध से पता चला है कि भारत में भीषण गर्मी के कारण हर साल औसतन 83,700 लोगों की जान जाती है।
देखा जाए तो दुनिया के साधन-सम्पन्न देश आने वाले वर्षों में इस बढ़ते तापमान का सामना करने के लिए तैयार हैं, लेकिन क्या कमजोर देश भी इससे निपटने के तैयार हैं और यदि नहीं तो उनका भविष्य क्या होगा यह अपने आप में बड़ा सवाल है, जिसके जवाब खोजे जाने अभी बाकी हैं।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि 06 नवंबर से मिस्र में जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मलेन कॉप-27 का आगाज हो रहा है। ऐसे में सब की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि बढ़ते तापमान और बदलती जलवायु से बचने के लिए उसमें क्या कदम उठाए जाने पर सहमति बनती है, क्योंकि यदि ऐसा ही चलता रहा तो बढ़ते तापमान के चलते आने वाले समय में दुनिया के कई हिस्से इंसानों और जीवों के रहने लायक नहीं रह जाएंगें।
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