जलवायु संकट: दुनिया भर में बदलती जलवायु का शिकार हैं शरणार्थियों की बस्तियां, दोहरी मार का कर रही हैं सामना

गरीबी, संघर्ष और जलवायु परिवर्तन के चलते दरबदर की ठोकर खाने को मजबूर यह शरणार्थी, मौसम से जुड़ी चरम आपदाओं के चलते दोहरी मार झेलने को मजबूर हैं
बांग्लादेश के कुटुपालोंग शरणार्थी शिविर में रह रही एक रोहिंग्या शरणार्थी; फोटो: आईस्टॉक
बांग्लादेश के कुटुपालोंग शरणार्थी शिविर में रह रही एक रोहिंग्या शरणार्थी; फोटो: आईस्टॉक
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शरणार्थी, जो जलवायु परिवर्तन, गरीबी या संघर्ष के कारण पहले ही दरबदर की ठोकर खाने को मजबूर हैं। वो लोग जो पहले ही अपने आशियानों को छोड़ शरणार्थी शिविरों या बस्तियों में रहने को विवश हैं लेकिन वहां भी चरम मौसमी घटनाएं उनका पीछा नहीं छोड़ रही।

रिसर्च से पता चला है कि यह शरणार्थी बस्तियां अक्सर ऐसे देशों और क्षेत्रों में हैं जो पहले ही जलवायु में आते बदलावों के लिए संवेदनशील हैं। आमतौर पर यह बस्तियां और शिविर ऐसे क्षेत्रों में होती हैं जहां जलवायु से जुड़ी आपदाओं जैसे भारी बारिश, सूखा, भीषण गर्मी, लू का खतरा सबसे ज्यादा होता है।

यदि संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) द्वारा जारी आंकड़ों को देखें तो 2022 के मध्य तक करीब 10.3 करोड़ लोगों को अपने घरों को छोड़ विस्थापित होना पड़ा था। वहीं 2021 के अंत तक यह आंकड़ा नौ करोड़ था। देखा जाए तो विस्थापन की पीड़ा सहने वाले ज्यादातर लोग तेजी से शहरों की ओर रूख कर रहे हैं। वहीं बहुत से अभी भी साधनों के आभाव में लम्बे समय से अनौपचारिक झुग्गी बस्तियों या शरणार्थी शिविरों में शरण लेने को मजबूर हैं।

हालांकि यहां पर भी उनकी दिक्कते कम होने का नाम नहीं ले रही। इस बारे में यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए अध्ययन से पता चला है कि यह शिविर और बस्तियां अक्सर देश के अलग-थलग क्षेत्रों में स्थित होती हैं जहां जमीनी स्थिति और जलवायु की दशाएं पहले ही कठोर होती हैं।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने दुनिया की 20 सबसे बड़ी शरणार्थी बस्तियों और उनके आसपास की स्थितियों का विश्लेषण किया है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल द प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पनास) में प्रकाशित हुए हैं।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने शरणार्थी बस्तियों में धीमी और तेजी से शुरू होने वाली चरम मौसमी घटनाओं और उनसे जुड़े जोखिमों की जांच की है। नतीजे दर्शाते हैं कि यह शरणार्थी मौसम की चरम परिस्थितियों जैसे बारिश की कमी, बढ़ते तापमान और बांग्लादेश जैसे क्षेत्रों में भारी बारिश का शिकार हैं।

दोहरी मार झेल रहे यह शरणार्थी

एक तरफ तो यह लोग पहले ही हाशिए पर जीवन जीने को मजबूर हैं ऊपर से यह मौसमी घटनाएं उनका इम्तिहान ले रही हैं। इनसे निपटने की सीमित क्षमताओं के चलते न केवल यह लोग बल्कि जिन लोगों ने उनको शरण दी हैं उनके लिए भी यह आपदाएं समस्याओं को बढ़ा रहीं हैं।

रिसर्च में यह भी सामने आया है कि इन शरणार्थी ने देश के जिस हिस्से में शरण ली है। वहां मौसम की स्थिति देश के औसत की तुलना में कहीं ज्यादा खराब होती है। इसे कहीं न कहीं सामाजिक और राजनैतिक बहिष्कार से भी जोड़कर देखा जा सकता है, जिसका यह आबादी पहले से ही सामना कर रही है।

उदाहरण के लिए केन्या और इथियोपिया में शरणार्थी बस्तियों को देखें तो वो शुष्क रेगिस्तानी या उष्णकटिबंधीय सवाना जलवायु क्षेत्रों में स्थित हैं। इन शिविरों में औसत तापमान देश के राष्ट्रीय औसत से केन्या में 7.65  डिग्री सेल्सियस और इथियोपिया में 8.75 डिग्री सेल्सियस अधिक है। इनमें से अधिकांश शरणार्थी बस्तियां जो भीषण तापमान की जद में हैं। वे साथ ही औसत से कम बारिश का अनुभव कर रही हैं।

वहीं दूसरी ओर, जॉर्डन और पाकिस्तान जैसे देशों में शरणार्थियों को बेहद कम तापमान और कठोर सर्दियों का सामना करना पड़ता है। पाकिस्तान में अध्ययन की गई शरणार्थी बस्तियां पहाड़ी क्षेत्रों में थी, जहां गर्मी और सर्दी दोनों में चरम तापमान होता है।

वहीं पाकिस्तान के बलूचिस्तान में, इन बस्तियों के स्थानों में पूरे देश की तुलना में औसत से तापमान 4.12 डिग्री सेल्सियस कम रहता है। इसी तरह उत्तरी जॉर्डन में मौजूद शरणार्थी शिविर जो सीरिया की सीमा के करीब है वहां गर्मियां गर्म और शुष्क रहती है, जबकि कुछ क्षेत्र कठोर सर्दियों की स्थिति वाले ठंडे शुष्क मैदानी क्षेत्र में है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक जहां लू, बाढ़ और शीत लहर जैसी आपदाएं इन लोगों को प्रभावित कर रही हैं वहीं जो निष्कर्ष सामने आए हैं वो धीमी गति से आने वाली आपदाओं जैसे बढ़ता तापमान, बारिश के पैटर्न में आता बदलाव जैसी घटनाओं के मामलों में विशेष रूप से उल्लेखनीय थे।

यह घटनाएं इन लोगों के स्वास्थ्य के साथ-साथ जीविका को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर रही हैं। ऊपर से कमजोर बुनियादी ढांचा, रोजगार के सीमित अवसर, रहने की व्यवस्था, मानवीय सहायता का आभाव जैसी चीजें उनके लिए स्थिति को बद से बदतर बना रहा है। नतीजन यह लोग इन जलवायु से जुड़ी आपदों के सामने बेबस पड़ जाते हैं।

यदि बांग्लादेश में कॉक्स बाजार को देखें जहां करीब 10 लाख रोहिंग्या शरणार्थी रहते हैं। वहां समय के साथ उनकी बस्तियों बढ़ रहीं हैं और अब यह दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे घनी आबादी वाली शरणार्थी बस्तियों में से एक है।

यह क्षेत्र उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु क्षेत्र में है, जहां भारी बारिश का होना आम है। ऐसे में पर्याप्त जल प्रबंधन के बिना, बारिश और उसके कारण आने वाली बाढ़ इन शरणार्थियों के लिए जोखिम पैदा कर सकती है। इतना ही नहीं बारिश के चलते इन बस्तियों में जमा पानी वहां रहने वाली शरणर्थियों के स्वास्थ्य को खतरे में डाल सकता है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक विश्लेषण की गई सभी 20 बस्तियां नियमित रूप से लू और शीत लहर का सामना करने को मजबूर थी। विशेष रूप से केन्या (काकुमा), दक्षिण सूडान (जामजंग) और बांग्लादेश (कॉक्स बाजार) में स्थिति कहीं ज्यादा खराब है। जहां हर 15 दिन में भीषण तापमान अनुभव किया गया था।

वहीं समय के साथ स्थिति और खराब होती जा रही है। यदि केन्या, इथियोपिया, बांग्लादेश, रवांडा, सूडान, दक्षिण सूडान और युगांडा में उन क्षेत्रों को देखें जहां शरणार्थी बस्तियां हैं तो वहां 1981 से 2009 के बीच बढ़ते तापमान की स्थिति और खराब हुई है। इसी तरह पाकिस्तान, जॉर्डन में भीषण सर्दियों की अवधि थोड़ी बढ़ गई है। ऐसे पर में पर्याप्त आश्रय के आभाव में भीषण गर्मी और सर्दी दोनों ही इन लोगों के स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर सकती है।

हाल में जारी रिपोर्ट से पता चला है कि 2021 में बांग्लादेश के कॉक्स बाजार में आई बाढ़ में छह शरणार्थियों की मौत हो गई थी। वहीं 2021 के अंत में दक्षिण सूडान में अलगना शरणार्थी शिविर बाढ़ से नष्ट हो गया था, इसकी वजह से 35,000 शरणार्थी विस्थापित हो गए थे।

संसाधनों के आभाव में शरणार्थियों और मेजबानों के बीच बढ़ रही है तकरार

रिसर्च के मुताबिक शरणार्थियों की मेजबानी करने वाले यह देश भी जलवायु में आते बदलावों के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील देशों में से हैं। वहीं इनकी आय भी ज्यादा नहीं है।

हाल ही में जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी द्वारा जारी छठी आंकलन रिपोर्ट में भी इस बात पर प्रकाश डाला गया है जिन क्षेत्रों में मानव विकास धीमा है वो क्षेत्र अन्य बातों के साथ जलवायु में आते बदलावों के प्रति भी अत्यंत संवेदनशील हैं। रिपोर्ट में पूर्वी अफ्रीका और दक्षिण एशिया का जिक्र किया है जो जलवायु में आते बदलावों के मामले में हॉटस्पॉट हैं। साथ ही सबसे बड़ी शरणार्थी बस्तियों का ठिकाना भी हैं।

रिसर्च के मुताबिक ज्यादातर शरणार्थी कमजोर देशों में शरण लेते हैं जहां उनके मेजबानों की स्थिति पहले ही कोई खास अच्छी नहीं थी ऊपर से क्षेत्र में संसाधनों पर बढ़ता दबाव उनके लिए भी दिक्कतें बढ़ा सकता है। नतीजन संसाधनों की कमी होने पर इन शरणार्थियों और मेजबान समुदायों के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण हो सकते हैं।

उदाहरण के लिए केन्या के काकुमा शरणार्थी शिविर में किए शोध से पता चला है कि कैसे पानी, जमीन और आर्थिक अवसरों की कमी ने इन दोनों के बीच के रिश्तों को प्रभावित किया है।

इसमें कोई शक नहीं की जलवायु में आते बदलावों के चलते मौसम से चरम घटनाओं की संख्या और तीव्रता में वृद्धि हो रही है। नतीजन लोगों के विस्थापित होने का खतरा भी बढ़ रहा है। ऐसे में सरकारों और अंतराष्ट्रीय संगठनों को ऐसी शरणार्थी शिविरों के लिए स्थानों का चयन करते समय पर्यावरण से जुड़े इन जोखिमों का भी ध्यान रखना चाहिए।

साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु अनुकूलन और सतत विकास से जुड़ी नीतियों में भी विस्थापित आबादी के साथ-साथ उनकी मेजबानी करने वाले समुदायों की सुरक्षा और समर्थन का ध्यान रखा जाना चाहिए।

शोधकर्ताओं के अनुसार ऐसी नीतियों के बिना हाशिए पर रह रही सबसे कमजोर आबादी पर पड़ते जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सीमित करना कठिन हो जाएगा। इसी तरह स्थाई रोजगार बहुत अहम है। इसपर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। 

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