वैश्विक स्तर पर बढ़ती आबादी और आहार के पैटर्न में आते बदलावों के चलते आने वाले कुछ दशकों में इस बात की पूरी सम्भावना है कि खाद्य उत्पादों की मांग काफी बढ़ जाएगी। लेकिन दूसरी तरफ कृषि और खाद्य उत्पादन इसके साथ तालमेल नहीं रख पाएंगें। इसके लिए जलवायु में आता बदलाव कहीं घातक सिद्ध होगा।
फसल उत्पादन को लेकर इस बारे में जर्नल नेचर में छपे एक अध्ययन के हवाले से पता चला है कि जलवायु में जिस तरह बदलाव आ रहा है उसके चलते अगले 28 वर्षों में फसलों की आवृत्ति (सीएफ), उनकी कैलोरी उपज और उत्पादन में गिरावट आ जाएगी। हालांकि यह प्रभाव कहीं ज्यादा कहीं कम होगा, जबकि कुछ क्षेत्रों को तो बढ़ते तापमान से फायदा भी हो सकता है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि यहां फसल आवृत्ति (सीएफ) का अभिप्राय किसी खेत या क्षेत्र में औसतन हर साल पैदा होने वाली फसलों की संख्या से है, जबकि फसलों की कैलोरी उपज का तात्पर्य किसी खेत में उत्पादित होने वाली फसलों से प्राप्त होने वाली औसत कैलोरी से है।
जहां एक तरफ 1979 - 2018 के बीच प्राप्त आंकड़ों के आधार पर किए इस अध्ययन से पता चला है कि 2050 तक ठन्डे क्षेत्रों में फसलों की आवृत्ति में वृद्धि हो सकती है, वहीं दूसरी तरफ गर्म क्षेत्रों को बढ़ते तापमान का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। जहां क्रॉपिंग फ्रीक्वेंसी में इसके चलते गिरावट आ जाएगी। गौरतलब है कि गर्म क्षेत्रों में पहले ही फसलों का मौसम काफी लम्बा होता है। ऊपर से जलवायु में आते बदलावों का प्रभाव उनके लिए कहीं ज्यादा नुकसानदेह हो सकता है।
देखा जाए तो यह प्रभाव वैश्विक स्तर पर फसलों की आवृत्ति में गिरावट का कारण बनेंगे। अनुमान है कि इसके चलते अगले 28 वर्षों में वैश्विक स्तर पर फसलों की आवृत्ति में 4.2 फीसदी की गिरावट आ जाएगी। नतीजन न केवल क्रॉपिंग फ्रीक्वेंसी बल्कि इन बदलावों के चलते भविष्य में फसलों की कैलोरी उपज और उत्पादन में भी गिरावट आने की आशंका है।
इतना ही नहीं रिसर्च से पता चला है कि गर्म क्षेत्रों में जहां तापमान पहले ही बढ़ रहा है, वहां भविष्य में जलवायु में आते बदलावों के चलते गर्मी और सूखे का तनाव कहीं ज्यादा बढ़ जाएगा। जो फसलों की विफलता का कारण बनेगा। नतीजन विफलता के उच्च जोखिम के चलते साल में होने वाली फसलों की संख्या में गिरावट आ जाएगी।
इन प्रभावों की पुष्टि ब्राजील में मकई और सोयाबीन की फसलों के पैटर्न से समझ सकते हैं, जहां उपग्रहों से प्राप्त जानकारी से पता चला है कि इन क्षेत्रों में फसलों की आवृत्ति स्पष्ट तौर पर वैश्विक तापमान में होती वृद्धि से प्रभावित थी।
यदि भारत की बात करें तो जलवायु में आते बदलावों ने पिछले दो वर्षों में चावल और गेहूं की फसलों पर व्यापक असर डाला है। इस साल भी कई किसानों ने अपने सामान्य फसल चक्र में गड़बड़ी को देखा है। गौरतलब है कि मानसून के दौरान बारिश की विफलता के चलते वो अपनी खरीफ की फसल की समय पर बुवाई नहीं कर पाए थे। वहीं कुछ इलाकों में बारिश में काफी देरी हुई। इसके चलते किसानों ने अगली रबी की फसलों की समय पर बुवाई करने के लिए खरीफ की फसल के मौसम को पूरी तरह से टाल दिया।
शोधकर्ताओं का यह भी अनुमान है कि तापमान में प्रति एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ ठंडे क्षेत्रों में फसलों पर इसका कम असर पड़ेगा। वहीं कुछ क्षेत्रों में तो इससे फसलों की आवृत्ति को फायदा भी होगा। वहीं दूसरी तरफ गर्म और सूखे क्षेत्रों को इससे नुकसान होने की आशंका है।
शोधकर्ताओं का यह भी अनुमान है कि तापमान में प्रति एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ ठंडे क्षेत्रों में फसलों पर इसका कम असर पड़ेगा वहीं कुछ क्षेत्रों में तो इससे फसलों की आवृत्ति को फायदा भी होगा। देखा जाए तो ठन्डे क्षेत्रों में इसकी वजह से क्रॉप फ्रीक्वेंसी बढ़ जाएगी क्योंकि बढ़ते तापमान के चलते उन क्षेत्रों में पाले का प्रभाव घट जाएगा। साथ ही इसके चलते फसलों के बढ़ने की अवधि में भी कमी आएगी, मतलब फसलें जल्द तैयार हो जाएंगी।
भारत की कैलोरी उपज में भी आ सकती है तीन से 4.5 फीसदी की गिरावट
दूसरी तरफ गर्म और सूखे क्षेत्रों को इससे नुकसान होने की आशंका है। अनुमान है कि इससे रूस, कनाडा मंगोलिया जैसे देशों में फसलों की आवृति में एक से 1.5 फीसदी की वृद्धि हो सकती है।
वहीं भारत, पाकिस्तान, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिकी देशों में 1.5 से तीन फीसदी की गिरावट आ सकती है। नतीजन इन देशों में फसलों से मिलने वाली कैलोरी की उपज में भी तीन से छह फीसदी की गिरावट आ सकती है।
हालांकि शोध में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि सिंचाई गर्म और शुष्क क्षेत्रों में इन प्रभावों को सीमित कर सकती है। लेकिन 2050 जलवायु परिवर्तन के चलते उत्पादन में होते घाटे की भरपाई के लिए गर्म और शुष्क क्षेत्रों के सिंचित क्षेत्र में करीब पांच फीसदी का विस्तार करना होगा। ऐसे में वैश्विक खाद्य सुरक्षा पर इन प्रभावों को सीमित करने के लिए इन गर्म और शुष्क क्षेत्रों में पैदावार पर विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत है।