जलवायु परिवर्तन: समझौतों की राह में रोड़े

कार्बन उत्सर्जन का मुद्दा सामूहिक है और साथ मिलकर ही कम किया जा सकता है। इसे जबरदस्ती लागू नहीं किया जा सकता
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साठ के दशक में पश्चिमी देशों में आर्थिक प्रगति के प्रवाह के इतर पर्यावरण के प्रति एक समझ विकसित हुई कि कही हमारी अंधाधुंध आर्थिक प्रगति का प्रारूप हमें प्रकृति के विरोध में तो नहीं ला खड़ा करेगा? इस संवेदनशीलता के तात्कालिक कारण थे- बड़े पैमाने पर संसाधनों का दोहन, प्रदूषण और जलवायु में आए शुरुआती बदलाव।

1962 में राचेल कार्सल की किताब ‘साइलेंट स्प्रिंग’ ने पर्यावरण में फैलते जहर पर सबका ध्यान खीचा तो वहीं ‘क्लब ऑफ रोम’ नामक संस्था ने ‘द लिमिट टू ग्रोथ’ के माध्यम से आर्थिक विकास और संसाधनों के असीमित दोहन के आपसी खींचतान पर विमर्श छेड़ा। जब बात समझ में आने लगी कि आर्थिक विकास असीमित नहीं हो सकता, कहीं न कहीं हमें रुकना होगा, तभी एक नया विमर्श आया। ‘कुजनेत्स कर्व’ को आधार बनाकर कहा गया कि आर्थिक विकास के शुरुआती दौर में पर्यावरण का क्षय तो तय है परन्तु एक खास विकासक्रम के बाद पर्यावरण का संतुलन भी सुनिश्चित है। हालांकि एक संवेदनशील तबका ऐसा जरूर रहा जो असीमित औद्योगिक विस्तार को सबसे बड़ा खतरा मानता रहा।

खैर, 1970 आते-आते कम से कम विकसित देशों तक आर्थिक विकास के साथ-साथ प्रदूषण, प्रकृति क्षय और जलवायु परिवर्तन विमर्श के मुद्दे बन चुके थे। इसी क्रम में 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वाधान में आयोजित मानव पर्यावरण सम्मेलन (स्टॉकहोम कॉन्फ्रेंस) ने आने वाले समय के पर्यावरणीय मुद्दों को वैश्विक पटल पर लाने का काम किया। प्रकृति के तमाम सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक पहलू खंगाले गए। कुल 26 मुद्दों पर सहमति बनी। माना गया कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है। एक पेच उसी समय परिदृश्य में आया जो आज भी जस का तस बना हुआ है और वह है विकसित, विकासशील और आर्थिक रूप से पिछड़े देशों की अलग-अलग जरूरतें। साथ ही साथ विकसित देशों द्वारा अतीत में किए गए संसाधनों का दोहन और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन (हिस्टोरिकल एमिशन)।

स्टॉकहोम कॉन्फ्रेंस के बाद अगले चार दशकों में इस बहस में काफी प्रगति हुई है, कई आमूलचूल कदम उठाए गए। एक समझ बनी कि पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे वैश्विक हैं और इसकी जिम्मेदारी सामूहिक है और प्रयास हर देश के स्तर पर होगा। कई मुद्दों पर इसी सोच के कारण आशातीत सफलता भी मिली, जैसे ओजोन लेयर के क्षय को लेकर। हालिया रिपोर्ट के अनुसार, स्ट्रेटोस्फियर के ओजोन लेयर में वृद्धि पाई गई है, पर जलवायु परिवर्तन को लेकर आज भी अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। अनेक अंतराष्ट्रीय समझौतों से होते हुए 2015 में हुए पेरिस समझौते तक शुरुआती दौर का पेंच आज भी फसा हुआ है, जबकि जलवायु में परिवर्तन भयावह रूप लेता जा रहा है। कुछ महत्वपूर्ण बाते हैं जिन्हें अनदेखा करके हम जलवायु परिवर्तन की इस मुहिम को आगे नहीं ले जा सकते, मसलन-

  • मानव अपने स्वभाव से ही समस्या को पहली बार अनेदखा करता है, फिर उसका कारण खुद में न खोजकर कहीं और तलाशता है। स्टॉकहोम कॉन्फ्रेंस के समय ही जलवायु परिवर्तन के अस्तित्व को स्वीकार लिया गया था पर इस परिवर्तन को मानव जनित स्वीकार करने में अगले चार दशक लग गए। तब तक समस्या और विकराल हो गई। 2014 में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) की पांचवी असेसमेंट रिपोर्ट में पहली बार स्वीकार किया गया कि जलवायु परिवर्तन मानव जनित है और औद्योगिक क्रांति के बाद से इसमें गति आई है। इन चार दशकों में आर्थिक विकास के मौजूदा प्रारूप में संसाधनों का दोहन अपने चरम तक पहुंच चुका है और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी। अगर समय रहते चेत लिया जाता तो आज शायद पेरिस समझौते 2015 में तापमान वृद्धि नियंत्रण का लक्ष्य दो डिग्री सेल्सियस से काफी कम होता। पिछले तीन चार दशकों में पश्चिमी देशों द्वारा नियंत्रित आर्थिक विकास के मॉडल ने मध्य वर्ग का एक विशाल जनसमूह पैदा कर दिया है, जो मूल रूप से बाजार नियंत्रित संसाधनों के असीमित दोहन पर आधारित उपभोक्ता वर्ग है। मौजूदा दौर में इस वर्ग का विस्तार हो रहा है जो जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के तमाम राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय प्रयासों पर भारी पड़ रहा है। तभी तो सारे लक्ष्य पीछे छूटते जा रहे हैं। हालांकि सतत विकास की अवधारणा ने मौजूदा विकास के प्रारूप के इतर मार्ग दिखाया है जो सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स में परिलक्षित है। मौजूदा दौर में बाजार के द्वारा ही कार्बन उत्सर्जन कम करने पर जोर है। हालांकि हाल में संपन्न कॉप-24 की बैठक में इसका कोई खाका पेश नहीं किया जा सका।
  • विकसित, विकासशील और पिछड़े देशों की मौजूदा खींचतान काफी हद तक विकासशील और पिछड़े देशों के लिए जायज भी है, जो मौजूदा पेरिस समझौते सहित तमाम अन्य समझौते की राह में रोड़ा है। अस्सी के दशक के बाद वैश्विक आर्थिक विकास के परिदृश्य में आमूलचूल परिवर्तन हुआ। इसको आधार बनाकर विकासशील देशों में बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, ग्रीनहाउस गैसों का असीमित उत्सर्जन किया। यह एमिशन विकसित देशों के ‘लक्सरी एमिशन’ से अलग आधारभूत व्यवस्था जुटाने के लिए था। विकसित देशों का एक खास तबका ‘लक्सरी एमिशन’ और ‘एसेंशियल एमिशन’ को नकारता रहा है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बुश जूनियर ने ज्यादा एमिशन के बचाव में तर्क दिया कि भारतीय बहुत ज्यादा खाते हैं। उनका इशारा भारतीयों द्वारा चावल की अत्यधिक खपत के लिए था। दरअसल, धान की खेती के दौरान मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है जो एक ग्रीन हाउस गैस है। दुर्भाग्य से हाल तक के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसी मानसिकता के लोगों का कब्जा रहा है। हाल के कुछ वर्षों में विकासशील और पिछड़े देशों की आपसी लामबंदी जैसे ब्रिक्स आदि ने एसेंशियल एमिशन को पुरजोर तरीके से शामिल किया है और पेरिस समझौते के साथ सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स में ये परिलक्षित भी होता है। अब भी खींचतान जारी है क्योंकि अमेरिका जैसे देशों का आर्थिक समूहों में दबदबा जारी है।
  • विकसित और पिछड़े देशों में आर्थिक संसाधनों की उपलब्धता जलवायु परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण पेच है जिसे पहली बार तात्कालिक भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्टॉकहोम कॉन्फ्रेंस में जोर शोर से उठाया था। इस मुद्दे पर काफी हद तक एक व्यवस्था विकसित हुई है जिसमें विकसित देशों को कैप एंड ट्रेड के माध्यम से जोड़ा गया। कार्बन ट्रेड का पिछला स्वरूप रिओ अर्थ समिट के बाद प्रारूप में आया। यह पिछड़े और विकासशील देशों में आर्थिक संसाधन का एक और जरिया बना। साथ से दोनों ट्रेडिंग पार्टनर में कार्बन उत्सर्जन को कम करने की एक होड़ पैदा हुई। सीमित आर्थिक साधन के कारण आधुनिक तकनीक को अपनाने में दिक्कतें आईं जो पिछड़े विकासशील देशों में कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी का एक बड़ा कारण रहा। कार्बन ट्रेडिंग विकसित देशों से उच्च तकनीक के विनिमय का भी जरिया बना, जिससे कार्बन उत्सर्जन को कम करने में मदद मिली। मौजूदा पेरिस समझौता आर्थिक संसाधनों की उपलब्धता को सुनिश्चित करता प्रतीत होता है। हालांकि अभी उसका विस्तृत प्रारूप आना बाकी है। मतलब साफ है कि पिछड़े और विकासशील देशों को आर्थिक संसाधनों के एक सतत जरिया की आवश्यकता है जिसे ग्रीन फाइनेंस कहा जा सकता है। कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी के रूप में इसे कई देशो में विकसित किया गया है। भारत में कानून बनाकर सभी लक्षित कॉर्पोरेट के लिए सीएसआर रिपोर्टिंग को जरूरी बनाया गया है, जिसका इस्तेमाल पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़े कई प्रोजेक्ट्स में किया गया। ऐसे में जरूरत है कि पेरिस समझौते के लक्ष्य को हासिल करने के लिए आर्थिक संसाधनों की ग्लोबल और आंतरिक स्तर पर उपलब्धता सुनिश्चित की जाए।

जलवायु परिवर्तन का मुद्दा बहस के रूप में वैश्विक बन चुका है। यह समझौते के स्तर तक सफल रहा है, पर लागू करने के समय असफल हो जाता है और उसका एक बड़ा कारण है देशों का स्वायत होना। अंतराष्ट्रीय कानूनों/समझौतों को एक सीमा तक ही लागू किया जा सकता है। पेरिस समझौते की शुरुआती सफलता के बाद संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का एकतरफा पेरिस समझौते से हट जाना एक बड़ी विफलता के रूप में सामने आया। हालांकि पहले भी ऐसे कई मौके आए जब जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर कई देश किसी सहमति बनने से पहले बाहर हो चुके है।

कार्बन उत्सर्जन का मुद्दा सामूहिक है और इसे एकसाथ मिलकर ही कम किया जा सकता है, पर इसे जबरदस्ती भी लागू नहीं किया जा सकता। हालांकि पेरिस समझौते के बाद विकासशील देशों की गोलबंदी अमेरिका को अलग थलग करने का एक प्रयास हो सकता है ताकि उसे फिर से पेरिस समझौते के लिए राजी किया जा सके, पर यह पेच इतनी आसानी से खुलने वाला नहीं है। वैश्विक स्तर के आर्थिक समूहों में जब तक विकासशील देश मजबूत नहीं होते तब तक ऐसे खतरों से इनकार नहीं किया जा सकता, जो सबसे कमजोर कड़ी है। सबको साथ लिए बिना ये लड़ाई नामुमकिन है।

पेरिस समझौता दुनिया का पहला व्यापक जलवायु समझौता है। अमेरिका के इससे हटने के बाद भी लगभग सभी देशों ने अपने स्तर पर तैयारी जारी रखी, जिसे हाल ही में पोलैंड में हुए कोप-24 के मीटिंग में देखा जा सकता है। इसमें अमेरिका सहित 200 देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। 2020 से लागू होने जा रहे पेरिस समझौते का मुख्य लक्ष्य वैश्विक औसत तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना है।

कोप-20 में कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य निर्धारण और उसकी आवश्यक रिपोर्टिंग के सामूहिक सहमति तक पहुंच जाना एक शुरुआती सफलता मानी जा सकती है। जलवायु परिवर्तन की लड़ाई के कई पक्ष और कई तर्क हैं। देशों के कई स्तर के समूह हैं पर लक्ष्य एक है और उसका निस्तारण सामूहिक है जिसे व्यक्तिगत प्रयास से ही हासिल करना है। यह भी अकाट्य सत्य है कि बीतते समय के साथ यह लड़ाई कठिन होती जा रही है। अब एक ही रास्ता है कि मुख्य पेच सुलझाए जाएं। 

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