बार्सिलोना इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ (आईएसग्लोबल) के नेतृत्व में किए एक नए अध्ययन में सामने आया है कि 'पॉलीसिस्टिक इचिनोकोकोसिस' नामक एक जानलेवा बीमारी का प्रकोप स्थानीय जलवायु में आते बदलावों से प्रभावित हो रहा है। गौरतलब है कि यह बीमारी इंसानों और जानवरों दोनों के लिए गंभीर खतरा है, जो अमेजन जैसे उष्णकटिबंधीय वर्षावनों में पाए जाने वाले परजीवी के कारण होती है।
इस बारे में जर्नल द प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पनास) में प्रकाशित इस रिसर्च से पता चलता है कि जलवायु में आता बदलाव अमेजन क्षेत्र में उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों को प्रभावित कर रहा है, जिसका प्रभाव दूसरी अन्य जूनोटिक बीमारियों पर भी पड़ सकता है।
पॉलीसिस्टिक इचिनोकोकोसिस (पीई) के बारे में बता दें कि यह एक जानलेवा बीमारी है, जो आंतों में पाए जाने वाले कीड़े (इचिनोकोकस वोगेली) के कारण होती है। यह बीमारी आमतौर पर अमेजन जैसे उष्णकटिबंधीय जंगलों में पाई जाती है।
हालांकि इस बीमारी का इलाज मुमकिन है, लेकिन अगर इसे जल्द न पहचाना जाए तो इससे संक्रमित होने वाले करीब-करीब हर तीसरे मरीज की मौत हो सकती है। इसके परजीवी आम तौर पर जानवरों में रहते हैं, लेकिन वो उन इंसानों में भी फैल सकते हैं जो संक्रमित जानवरों खासकर पकास के संपर्क में आते हैं। पकास एक प्रकार का बड़ा चूहा होता है, जिसका अक्सर खाने के लिए शिकार किया जाता है।
इस बारे में आईएसग्लोबल और अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता जेवियर रोडो ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी दी है कि, "पॉलीसिस्टिक इचिनोकोकोसिस इस बात का अच्छा उदाहरण है कि जंगली जानवरों को खाने और उसके संपर्क में आने से कैसे जानवरों से इंसानों में बीमारियां फैल सकती हैं।"
उनके मुताबिक जैसे-जैसे दुनिया बढ़ते तापमान के चलते गर्म हो रही है, यह समझना और अधिक महत्वपूर्ण होता जा रहा है कि जलवायु में आता बदलाव इन बीमारियों की उपस्थिति और प्रसार को कैसे प्रभावित करता है।
कैसे इसके प्रसार को बढ़ा रहा है जलवायु में आता बदलाव
अपने इस अध्ययन में जेवियर रोडो और अन्य शोधकर्ताओं ने आंकड़ों के दो विशेष डेटासेट एकत्र किए हैं। इनमें पहले डेटासेट में इंसानों और जानवरों में पाए जाने वाले पॉलीसिस्टिक इचिनोकोकोसिस की जानकारी को शामिल किया गया है। इसके करीब 400 रिकॉर्ड सामने आए हैं।
वहीं दूसरे डेटासेट में इस बात पर ध्यान केंद्रित किया गया है कि जानवरों का शिकार कैसे किया जाता है। इसमें पिछले 55 वर्षों में सात अमेजोनियन देशों और फ्रेंच गुयाना के करीब 4.4 लाख अवलोकनों को दर्ज किया गया है। इन डेटासेटों से शोधकर्ताओं को यह समझने में मदद मिली है कि यह बीमारी कहां पाई जाती है। साथ ही यह पर्यावरण, जलवायु और शिकार की आदतों जैसी चीजों से कैसे प्रभावित होती है।
इस बीमारी के प्रसार की भविष्यवाणी करने के लिए शोधकर्ताओं ने दो अलग-अलग मॉडल बनाए हैं। इनमें एक पशुओं में होने वाले संक्रमण के लिए है, जिसे सिल्वेटिक मॉडल कहा है, जबकि दूसरा इंसानों में होने वाले संक्रमण के लिए है जिसे स्पिलओवर मॉडल के रूप में जाना जाता है।
विश्लेषण से पता चला है कि स्थिर तापमान, जिसे सिल्वेटिक चक्र कहा जाता है, वो परजीवी को जानवरों के बीच फैलने में मदद करता है। वहीं अल नीनो जैसी बड़ी जलवायु घटनाएं शिकार के पैटर्न को बाधित करती हैं और मनुष्यों में परजीवियों के प्रसार को आसान बनाती हैं। इस बारे में अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता एड्रिया सैन जोस ने विज्ञप्ति में लिखा है कि, "इससे मतलब कि वैश्विक स्तर पर बढ़ते तापमान के कारण क्षेत्रीय जलवायु में आता बदलाव अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्यों में इस बीमारी के प्रकोप को बढ़ा सकता है।"
इसका यह भी मतलब है कि भूमि उपयोग कैसे किया जाता है और जलवायु कैसे बदल रही है, उसका विवरण उन स्थानों के बारे में चेतावनी देने में मदद कर सकता है जहां यह बीमारी एक समस्या बन सकती है।
शोधकर्ताओं को भरोसा है कि इस रिसर्च में जो निष्कर्ष सामने आए हैं वो जानवरों से इंसानों में फैलने वाली अन्य जूनोटिक बीमारियों को समझने में भी मददगार हो सकते हैं। शोधकर्ताओं ने जूनोटिक बीमारियों के प्रकोप की शुरूआत और प्रसार में जलवायु की भूमिका को समझने के लिए व्यापक डेटाबेस के महत्व पर भी प्रकाश डाला है।