खास पड़ताल: विस्थापन के लिए युद्ध से बड़ा कारण बना जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन से होने वाली आपदाओं ने दुनियाभर में एक बड़ी आबादी के सामने अभूतपूर्व पलायन अथवा विस्थापन का संकट खड़ा कर दिया है
खास पड़ताल: विस्थापन के लिए युद्ध से बड़ा कारण बना जलवायु परिवर्तन
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2020 में कोविड-19 महामारी ने मनुष्यों को कुछ ऐसा करने पर मजबूर किया जो सैकड़ों वर्षों में कभी अनुभव नहीं किया गया। उन्होंने आवागमन बंद कर दिया। करीब 100 देशों ने शटडाउन और लॉकडाउन का सहारा लिया। इससे दुनिया की आधी से अधिक आबादी की गतिशीलता को प्रतिबंधित कर दिया गया। यह अभूतपूर्व था क्योंकि गतिशीलता मौलिक गतिविधि रही है जो दुनिया और उसकी अर्थव्यवस्था को संचालित करती है। उम्मीद की जा रही थी कि इस अभूतपूर्व स्थिति ने पलायन और आव्रजन को भी रोक दिया होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संक्रमण के डर से शुरू हुए प्रतिबंधों के बीच ऐसी अन्य घटनाएं भी हुईं जिन्होंने लोगों को पलायन पर मजबूर किया। यहां तक कि उन्हें विस्थापित भी कर दिया।

हर दूसरे साल संयुक्त राष्ट्र के इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन (आईओएम) द्वारा प्रकाशित वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट 2022 में कहा गया है, “आपदाओं, संघर्षों और हिंसा के कारण आंतरिक विस्थापन में तब नाटकीय वृद्धि हुई है, जब वैश्विक गतिशीलता में कोविड-19 के कारण ठहराव था। 2020 में आपदाओं, संघर्षों और हिंसा के कारण विस्थापित लोगों की संख्या 2019 में 31.5 मिलियन से बढ़कर 40.5 मिलियन हो गई। आईओएम के निदेशक जनरल एंटोनियो विटोरिनो ने इस स्थिति पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसे “मानव इतिहास में पहले नहीं देखा गया विरोधाभास” बताया। विटोरिनो ने कहा, “जहां अरबों लोगों को कोविड-19 ने प्रभावी ढंग से जमीन पर थामे रखा, वहीं दसियों मिलियन लोग अपने ही देशों के भीतर विस्थापित हो गए हैं।” यह विरोधाभास इस उभरते हुए तथ्य को और प्रबल करता है कि आपदाएं आंतरिक विस्थापन की प्रमुख वजह बनकर उभर रही हैं। हाल के वर्षों में आपदाएं विस्थापन के ऐतिहासिक कारणों अर्थात संघर्ष और हिंसा से अधिक लोगों को विस्थापित कर रही हैं। यह विस्थापन मुख्यत: जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहा है जिसके परिणामस्वरूप लगातार मौसम से संबंधित आपदाएं आती हैं। इन आपदाओं से विस्थापित होने वाले लोगों को लोकप्रिय भाषा में “जलवायु शरणार्थी” कहा जाता है।

जिनेवा स्थित एक गैर-सरकारी संगठन इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर (आईडीएमसी) ने 2018 में आपदाओं से विस्थापित लोगों के आंकड़ों का संकलन शुरू किया था। ऐसे लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है। उस साल के अंत तक आपदाओं से विस्थापित लोगों का आंकड़ा 1.6 मिलियन था (देखें, विस्थापन की टीस,)। ये लोग उस समय अपने घर से दूर शिविरों में रह रहे थे। वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट 2020 ने प्रवासन में प्राकृतिक आपदाओं की भूमिका स्थापित की थी। रिपोर्ट में कहा गया था, “संघर्ष और हिंसा से नए विस्थापित लोगों की तुलना में किसी भी वर्ष में आपदाओं से अधिक लोग विस्थापित होते हैं और अधिक देश आपदा विस्थापन से प्रभावित हो रहे हैं।” रिपोर्ट का ताजा संस्करण इस स्थिति को पुन: दोहराता है। वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट 2022 के अनुसार, “2020 में 145 देशों और क्षेत्रों में आपदाओं से 30.7 मिलियन नए विस्थान हुए हैं।” इसके अलावा आपदाओं, संघर्षों और हिंसा के कारण कुल आंतरिक विस्थापन 2019 की तुलना में बढ़ा है। रिपोर्ट में आईडीएमसी के आंकड़ों का हवाला दिया गया है। नए विस्थापन के नवीनतम आंकड़े में उन लोगों को शामिल किया गया है जो अचानक शुरू होने वाली आपदाओं के कारण और संबंधित देश के भीतर विस्थापित हुए हैं। आईडीएमसी के मुताबिक, धीरे-धीरे होने वाली आपदाओं और अंतरदेशीय विस्थापन के आंकड़े इसमें शामिल नहीं है, इसलिए आंकड़े अभी पूर्ण नहीं हैं।



दरअसल, ज्यादातर नए विस्थापन जलवायु से जुड़ी घटनाओं के कारण होते हैं। 2020 में तूफानों ने 14.6 मिलियन और बाढ़ ने 14.1 मिलियन लोगों को विस्थापित किया। अत्यधिक तापमान ने करीब 46 हजार और सूखे ने 32 हजार लोगों का विस्थापन किया। आईओएम की रिपोर्ट में कहा गया है, “2008-2020 की अवधि में बाढ़ के कारण 2.4 मिलियन से अधिक और चरम तापमान के चलते 1.1 मिलियन नए लोगों का विस्थापन हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, “किसी भी वर्ष में संघर्ष और हिंसा से नए विस्थापितों की तुलना में आपदाओं से अधिक लोग विस्थापित हो रहे हैं।”

नए आंतरिक विस्थापन का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2020 में हुए कुल विस्थापन में 76 प्रतिशत योगदान आपदाओं का रहा। करीब 42 देशों ने संघर्षों और हिंसा के कारण नए विस्थापन की सूचना दी, जबकि 144 देशों ने आपदाओं के कारण विस्थापन की सूचना दी। दिसंबर 2019 में प्रकाशित वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट में पाया गया, “2018 में 148 देशों में कुल 28 मिलियन आंतरिक विस्थापन हुआ। इनमें से 61 प्रतिशत विस्थापन आपदाओं के कारण था।” वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट 2022 के अनुसार, फिलीपींस ने 2020 में सबसे अधिक लगभग 5.1 मिलियन नए लोगों का विस्थापन देखा। एशिया ने प्राकृतिक आपदाओं के कारण सबसे अधिक विस्थापन की सूचना दी। चीन ने 2020 के अंत तक 5 मिलियन नए आपदा विस्थापन की सूचना दी। भारत में यह आंकड़ा 4 मिलियन के आसपास था।

मान्यता में देरी

जलवायु परिवर्तन से संबंधित आपदाओं के कारण प्रवासन या विस्थापन को तेजी से राजनीतिक स्वीकार्यता प्राप्त हो रही है। इस दिशा में हो रहे अनुसंधान भी इनके बीच सीधा संबंध स्थापित करते हैं। फरवरी 2021 में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने शरणार्थियों को फिर से बसाने के लिए “रिबिल्डिंग एंड एनहेंसिंग प्रोग्राम टु रिसेटल रिफ्यूजी एंड प्लानिंग फॉर द इम्पैक्ट ऑफ द क्लाइमेज चेंज ऑन माइग्रेशन” नामक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए। इस आदेश में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को निर्देश दिया गया है कि जलवायु परिवर्तन और पलायन पर इसके प्रभाव पर रिपोर्ट तैयार करें। इससे पहले शरणार्थियों पर संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त ने कहा था कि 2008 से 2016 के बीच अचानक आने वाली आपदाओं के फलस्वरूप हर साल औसतन 21.5 मिलियन लोग विस्थापित हो रहे हैं। साथ ही इसके धीमे प्रभाव के कारण और हजारों लोग इसके शिकार हैं। विश्व बैंक ने सितंबर 2021 में जारी नवीनतम ग्राउंडवेल रिपोर्ट में कहा था कि जलवायु परिवर्तन दुनियाभर के छह क्षेत्रों में करीब 216 मिलियन लोगों को 2050 तक अपने ही देशों में बेघर कर सकता है।

आंतरिक विस्थापन के हॉटस्पॉट 2030 से पहले उभरकर सामने आ सकते हैं और 2050 तक यह विस्थापन बेहद तीव्र हो जाएगा। रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन को लोगों की आजीविका के नुकसान के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। 2050 तक उप-सहारा अफ्रीका 86 मिलियन आंतरिक जलवायु प्रवासियों को देख सकता है। इसी तरह पूर्वी एशिया और प्रशांत 49 मिलियन, दक्षिण एशिया 40 मिलियन, उत्तरी अफ्रीका 19 मिलियन, लैटिन अमेरिका 17 मिलियन और पूर्वी यूरोप व मध्य एशिया 5 मिलियन जलवायु प्रवासियों से जूझेगा।

विश्व बैंक में सतत विकास के उपाध्यक्ष योर्गेन वाइजेले ने विश्व बैंक की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए बयान दिया “ग्राउंडवेल रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन के गंभीर मानवीय क्षति का रिमांइडर है, खासकर गरीबों की क्षति का जिनका जलवायु परिवर्तन में बेहद कम योगदान है। यह देशों को ऐसे उपाय करने का सुझाव देता है जिससे वे इस विभीषिका के प्रभाव को कम कर सकें।” रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक उत्सर्जन को कम करके और हरित, समावेशी व पर्यावरण हितैषी विकास की मदद से तत्काल और ठोस कार्रवाई के जरिए जलवायु प्रवास 80 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।

जलवायु परिवर्तन के दौर में जल संकट

दिल्ली के श्रम बाजारों में बढ़ती भीड़ आसपास के राज्यों, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के मौसम की स्थिति का पैमाना है। दिल्ली के बाजारों में अनौपचारिक कामगारों की संख्या में वृद्धि भविष्य के सूखे का एक निश्चित संकेत है। इस इस बात का भी संकेत है कि मौसम की परिस्थितियां किस प्रकार कृषि से संबंधित उनकी जीविका को प्रभावित कर पलायन को तीव्र कर रही हैं।

पानी की कमी दिल्ली जैसे शहरों में लोगों के पलायन का प्रमुख कारण है। श्रम बाजारों और पलायन के लिए बदनाम राज्यों के रेलवे स्टेशनों पर नजर रखकर हम आसानी से जीविका पर छाए संकट को देख और महसूस कर सकते हैं। हताशा में हो रहे इस पलायन की जड़ में हमेशा ही पानी का संकट रहा है।

इस तरह के पलायन को देखकर पुराने घटनाक्रम जेहन में उभरने लगते हैं। करीब 4 लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका में पड़े सूखे ने हमारे पूर्वजों को जल समृद्ध स्थानों में पलायन के लिए बाध्य कर दिया था। कहा जाता है कि तभी से मनुष्य पानी के पीछे भाग रहा है। आवास और भोजन से अधिक पानी के लिए पलायन हुआ है। ओडिशा से दूरस्थ केरल में पलायन की प्रमुख वजह भी पानी था। इस पानी के संकट ने जीवनयापन को विभिन्न तरीकों से प्रभावित किया था। पारंपरिक जल संचयन प्रणालियों का पतन कृषि विफलताओं का कारण बना, जिसके परिणामस्वरूप बुंदेलखंड क्षेत्र से पलायन हुआ।



अगर हम इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि प्राचीन काल में बस्तियों उन्हीं स्थानों पर बसाई गईं जहां पानी उपलब्ध था। लोग जल की उपलब्धता और बेहतर आजीविका के लिए भी अपना पैतृक आवास छोड़ रहे हैं। प्राचीन काल में कृषि और शिकार आजीविका के प्रमुख साधन थे। समय के साथ हमने आजीविका के कई साधन बढ़ा लिए हैं। अब सवाल उठता है कि क्या दुनिया पानी की कमी के कारण एक और परिवर्तनकारी पलायन का गवाह बनेगी? गंभीर जल संकट का प्रमाण हम सबके समक्ष है। जलवायु परिवर्तन से यह संकट और बढ़ गया है। विभिन्न अनुमानों से पता चलता है कि धरती के 66 प्रतिशत भूमि क्षेत्रों में पानी की कमी हो रही है। भीषण सूखे का सामना कर रही जनसंख्या 21वीं सदी के अंत तक दोगुनी हो सकती है।

हाल ही में विश्व बैंक की रिपोर्ट “वेब एंड फ्लो: वाटर, माइग्रेशन एंड डेवलपमेंट” 64 देशों से एकत्रित आंतरिक पलायन के आंकड़ों का विश्लेषण करती है। ये आंकड़े 1960 से 2015 के दौरान 189 जनगणनाओं से लिए गए हैं। रिपोर्ट में दलील दी गई है कि समकालीन दुनिया में आंतरिक पलायन की प्रमुख वजह पानी की कमी रही है। किसी बस्ती के लिए पूंजी मानी जाने वाली और सामाजिक विकास के लिए जरूरी विरासत में मिली जल संरचनाओं में कोई बदलाव नहीं हुआ है, जबकि हाल में मानव जनित परिवर्तनों के कारण हम पानी के प्रति और संवेदनशील हुए हैं, 50 लाख साल पहले से भी अधिक।

आंकड़ों के इस व्यापक विश्लेषण से यह स्थापित होता है कि कम वर्षा के कारण 1970 और 2000 के बीच पलायन में 10-11 प्रतिशत वृद्धि हुई है। रिपोर्ट के अनुसार, “हैरानी की बात है कि बारिश अथवा बाढ़ (वेट शॉक) के मुकाबले सूखे (ड्राई शॉक) के कारण पलायन पर 5 गुणा असर पड़ता है। बार-बार सूखे के झटकों के कारण स्थानीय लोग खुद को अनुकूलित नहीं कर पाते।” पानी की कमी से उठने वाली पलायन की लहर विकासशील और गरीब देशों में अधिक प्रबल रही है।

पलायन के विभिन्न कारण हैं, जैसे बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश, उच्च शिक्षा की चाह, संघर्ष और भीषण आपदाएं। बहुत से देशों में सूखा या पानी की कमी से होने वाले पलायन को शिक्षा के लिए होने वाले पलायन के बाद रखा गया है। जलवायु परिवर्तन ने इस संकट को और बढ़ा दिया है। पिछले तीन दशकों में दुनिया की औसतन 25 फीसदी आबादी को हर साल असामान्य बारिश का सामना करना पड़ा।

इस तरह के झटकों का लोगों पर बड़ा आर्थिक प्रभाव पड़ता है जिससे हताशा भरा पलायन तेज होता है। जलवायु परिवर्तन को देखते हुए अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले समय में सूखा बढ़ेगा जिससे पलायन और तेजी से बढ़ सकता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट में पाया गया है कि किसी क्षेत्र में सबसे गरीब, कम बारिश का दंश झेलने को अभिशप्त होंगे। 80 प्रतिशत निर्धनतम आबादी पर्याप्त पानी नहीं होने के बावजूद पलायन नहीं कर पाएगी क्योंकि आर्थिक तंगी आड़े आएगी। अगर हम जलवायु परिवर्तन से संबंधित आपदाओं और समग्र विकास पर उनके असर को बारीकी से देखें तो आसानी से हताशा भरे पलायन की चक्र समझ सकते हैं।

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की रिपोर्ट “स्टेट ऑफ क्लाइमेट इन एशिया 2020” के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से शुरू हुई चरम मौसम की घटनाओं की लागत एशिया, विशेष रूप से भारत, चीन और जापान में सालाना अरबों डॉलर है, जो सतत विकास के लिए खतरा है। रिपोर्ट के मुताबिक, ऊष्णकटिबंधीय चक्रवात, बाढ़ और सूखे जैसी घटनाओं से इन तीनों देशों में हर साल औसतन 408 बिलियन डॉलर का नुकसान पहुंचता है। चीन को 238 बिलियन डॉलर, भारत को 87 बिलियन डॉलर और जापान को 83 बिलियन डॉलर का सालाना नुकसान झेलना पड़ता है। इस रिपोर्ट के लेखकों ने एशिया में जलवायु से संबंधित खतरों से कुल औसत वार्षिक आर्थिक नुकसान की गणना की है। उन्होंने एशिया पैसेफिक डिजास्टर रिजीलिएंस नेटवर्क द्वारा उपलब्ध कराए गए ताजा अनुमानों के आधार पर यह गणना की और पाया कि जलवायु से संबंधित खतरों के कारण एशिया में सबसे अधिक औसत वार्षिक आर्थिक नुकसान सूखे से हो रहा है। 2020 में सूखे की वजह से भारत और चीन में औसत आर्थिक नुकसान 82 प्रतिशत हुआ। एशिया में बाढ़ और तूफानों ने लगभग 50 मिलियन लोगों को प्रभावित किया और 5,000 इंसानी मौतों का कारण बना। एशिया में बाढ़ और तूफान के कारण भारत को 26.3 बिलियन डॉलर का सर्वाधिक आर्थिक नुकसान हुआ। नुकसान के मामले में दूसरे स्थान पर चीन है जिसे 23.1 बिलियन डॉलर का नुकसान पहुंचा। भारत के लिए इस नुकसान का मतलब देश के सकल घरेलू उत्पाद का 0.8 प्रतिशत नुकसान है और यह इस क्षेत्र में सबसे अधिक था। रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन और बांग्लादेश के साथ भारत ने 2020 में विश्व स्तर पर दर्ज आपदा से संबंधित विस्थापन को सबसे अधिक रिकॉर्ड किया।

वैश्विक तापमान के कारण बढ़ती गर्मी और आर्द्रता ने दुनियाभर में काम के घंटों में बड़ा नुकसान होने के संकेत दिए हैं। अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में हुए एक नए अध्ययन के मुताबिक, भारत सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में से एक है। जलवायु परिवर्तन के कारण गर्मी और आर्द्रता के स्तर में वृद्धि के फलस्वरूप बाहरी श्रम को ठंडे स्थानों में ले जाने के विकल्प नाटकीय रूप से सिकुड़ जाएंगे, जिससे दुनियाभर में श्रम का नुकसान होगा। नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित इस अध्ययन में अनुमान हैं कि अगर तापमान मौजूदा स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो इस खोई हुई उत्पादकता से जुड़ा आर्थिक नुकसान सालाना 1.6 ट्रिलियन डॉलर (1.6 लाख करोड़ रुपए) हो सकता है। अगर ऐसा होता है तो दिन के सबसे ठंडे हिस्से में श्रम का नुकसान मौजूदा समय के सबसे गर्म हिस्से के नुकसान से अधिक होगा। अध्ययन में कहा गया है कि गर्मी से श्रम हानि क्षेत्रवार अलग-अलग है। दक्षिण पश्चिम एशिया, दक्षिण एशिया और अफ्रीका के कई देश 12 घंटे प्रति व्यक्ति कार्यदिवस की हानि पहले ही अनुभव कर चुके हैं।

दक्षिण एशियाई देशों में भारत पर गर्मी का सबसे बुरा प्रभाव पड़ा है। यह सालाना 101 बिलियन घंटों से अधिक नुकसान है। अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि भारत, चीन, पाकिस्तान और इंडोनेशिया, जहां जनसंख्या का बड़ा हिस्सा बाहर काम करता है, वहां अधिकतम नुकसान होगा। लेकिन 14 कम आबादी वाले देश अधिक प्रति व्यक्ति नुकसान उठा सकते हैं। इन देशों में बांग्लादेश, थाईलैंड, गाम्बिया, सेनेगल, कंबोडिया, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कतर, ब्रुनेई दारुस्सलाम, घाना, टोगो, बेनिन, श्रीलंका और नौरू शामिल हैं। अध्ययन में चेताया गया है कि कई स्थानों पर गर्मियों की दोपहर में कृषि और निर्माण कार्य लगभग असंभव हो जाएगा।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार, वैश्विक तापमान के परिणामस्वरूप गर्मी में वृद्धि से 2030 तक 80 मिलियन पूर्णकालिक नौकरियों के बराबर उत्पादकता का नुकसान होगा। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मौजूदा समय की तुलना में 1 डिग्री सेल्सियस, 2 डिग्री सेल्सियस, 3 डिग्री सेल्सियस और 4 डिग्री सेल्सियस की वैश्विक तापमान वृद्धि से दुनियाभर में श्रम हानि का अनुमान लगाया है। वैज्ञानिकों ने मौसम विज्ञान के आंकड़ों, तापमान और आर्द्रता के जलवायु मॉडलों का उपयोग करके बढ़े हुए तापमान की स्थिति में भविष्य के तापमान, आर्द्रता और श्रम हानि का अनुमान लगाया है।

यह वैश्विक स्तर पर पहला अध्ययन है जो बताता है कि जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए दिन के ठंडे हिस्सों में भारी काम को स्थानांतरित करना कितना प्रभावी है। अध्ययन में कहा गया है कि दुनिया की 30 प्रतिशत श्रम हानि भारी कार्यदिवस को ठंडे स्थानों में स्थानांतरिक करके रोकी जा सकती है। इस अध्ययन का नेतृत्व करने वाले ड्यूक के निकोलस स्कूल ऑफ एनवायरमेंट में जलवायु शोधकर्ता ल्यूक पार्संस कहते हैं, “हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि अगर हम गर्मी को वर्तमान स्तर से एक डिग्री के भीतर सीमित करते हैं तो हम अब भी सुबह के समय भारी श्रम को स्थानांतरित करके उत्पादकता के नुकसान से बच सकते हैं। लेकिन अगर गर्मी एक डिग्री सेल्सियस से अधिक रहती है तो यह बहुत मुश्किल होगा। अधिक तापमान बढ़ने पर यह काम बेहद मुश्किल होता जाएगा।”

डब्ल्यूएमओ के अनुसार, “कोविड-19 ने एशिया और प्रशांत क्षेत्र में सतत विकास के 2030 एजेंडा की प्रगति को प्रभावित किया है। इसमें जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभावों से निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई के 13 लक्ष्य शामिल हैं।” इसमें कहा गया है कि एशिया पांच उप क्षेत्रों- पूर्व और उत्तर पूर्वी एशिया, उत्तर और मध्य एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया, दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम एशिया में अपने सतत विकास लक्ष्य 13 (क्लाइमेट एक्शन) से पीछे हट गया है।



जलवायु का दुष्चक्र

जलवायु परिवर्तन से प्रेरित चरम मौसम की घटनाओं ने महिलाओं, बच्चों और अल्पसंख्यकों को गुलामी और मानव तस्करी के खतरे में भी डाल दिया है। नवंबर 2021 में जारी एक हालिया रिपोर्ट में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरमेंट एंड डेवलपमेंट (आईआईईडी) और एंटी स्लेवरी इंटरनेशनल ने चेताया था कि ऐसी घटनाएं अन्य देशों के साथ भारत में बढ़ रही हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि कर्ज, बंधुआ मजदूरी, जल्दी या जबरन शादी और मानव तस्करी सहित आधुनिक गुलामी जलवायु के झटके और जलवायु से संबंधित जबरन विस्थापन और पलायन के साथ तीव्र हो रही है। रिपोर्ट में सुंदरवन का उदाहरण दिया गया है। यह डेल्टा क्षेत्र अचानक आने वाली आपदाओं और पारिस्थितिकी के धीमे क्षरण से निर्जन बन रहा है। समुद्र का स्तर बढ़ने, अनियमित वर्षा, चक्रवातों में वृद्धि, तेज लहरों और बाढ़ के चलते सुंदरवन में लाखों लोग साल के अधिकांश दिन काम नहीं कर पाते।

2009 में चक्रवात आइला ने जीवन और आजीविका को व्यापक क्षति पहुंचाई । 2020 में चक्रवात अंफन के दौरान 400 किलोमीटर तटबंध में दरार आ गई और समुद्री जल बाढ़ प्रवण क्षेत्र (फ्लडप्लेन) में प्रवेश कर गया। इसके चलते व्यापक विस्थापन हुआ और 20 लाख से अधिक लोगों की आजीविका नष्ट हो गई। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस तरह की घटनाओं ने स्थानीय लोगों को तस्करों के लिए संवेदनशील बना दिया और उन्हें जबरन मजदूरी में धकेल दिया। सुंदरवन में भयंकर चक्रवात और बाढ़ ने कृषि भूमि को भी कम कर दिया है, जो डेल्टा में आजीविका का एक प्रमुख स्रोत है। सीमावर्ती देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंध के बावजूद क्षेत्र में सक्रिय तस्करों ने रोजगार खोजने के लिए भारत की सीमा पार करने को बेताब विधवाओं और पुरुषों को निशाना बनाया। इन महिलाओं की मानव तस्करी कर उन्हें अक्सर वेश्यावृत्ति या कठिन मजदूरी के लिए मजबूर किया जाता है। सीमा क्षेत्र में महिलाओं से गैर कानूनी रूप से चलाई जा रही फैक्टरियों (स्वेटशॉप) में भी काम कराया जाता है।

स्थानीय व ग्रामीण से शहरी इलाकों में पलायन करने वाले अक्सर साधनविहीन होने हैं। काम के कौशल और सामाजिक नेटवर्क के अभाव में ये लोग आमतौर पर ढाका या कोलकाता में मानव तस्करों या एजेंटों के चंगुल में फंस जाते हैं। 2004 में इंडोनेशिया में आई सुनामी के बाद भी मानव तस्करी में वृद्धि हुई थी। घाना में अकरा से एक मामले का हवाला देते हुए आईआईईडी की रिपोर्ट में कहा गया है कि सूखे के बाद उत्तरी घाना में युवा पुरुषों और महिलाओं को प्रमुख शहरों में स्थानांतरित करने के लिए मजबूर किया गया। यहां महिलाएं कुली के रूप में काम करती थीं और उनके देह व्यापार, यौन शोषण और कर्ज के जाल में फंसने का खतरा बना रहता है। रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन ने बच्चों को भी अधिक असुरक्षित बना दिया है। यह रिपोर्ट संसाधनों की कमी, वैकल्पिक आजीविका, सुरक्षा और नुकसान के साथ ऋण और शोषण के बीच घनिष्ठ संबंध स्थापित करती है।

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