गलत दिशा में आगे बढ़ रहे हैं हम, विश्व मौसम विज्ञान संगठन की चेतावनी

जनवरी से मई 2022 के बीच वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के स्तर में 2019 की इसी अवधि की तुलना में करीब 1.2 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई
गलत दिशा में आगे बढ़ रहे हैं हम, विश्व मौसम विज्ञान संगठन की चेतावनी
Published on

क्या मानवता जलवायु परिवर्तन के मामले में गलत दिशा में आगे बढ़ रही है और क्या इसके विनाशकारी परिणाम होंगें? विश्व मौसम विज्ञान संगठन और संयुक्त राष्ट्र की अन्य एजेंसियों के सहयोग से जारी नई रिपोर्ट “यूनाइटेड इन साइंस” में स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी गई है कि इस मामले में मानवता विनाश की दिशा में आगे बढ़ रही है।

रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक स्तर पर देशों की आकांक्षाओं और वास्तविकता के बीच गहरी खाई है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कार्रवाई के आभाव में इसके विनाशकारी सामाजिक-आर्थिक प्रभाव सामने आएंगें। रिपोर्ट में जारी आंकड़ें स्पष्ट तौर पर दर्शाते हैं कि वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों का स्तर तेजी से बढ़ रहा है और वो नित नए रिकॉर्ड बना रहा है।

हालांकि वैश्विक महामारी के दौरान तालाबंदी के कारण जीवाश्म ईंधन के कारण होते उत्सर्जन में गिरावट देखी गई थी, लेकिन अब वो भी फिर से महामारी के पहले के स्तर से ऊपर पहुंच गई है। गौरतलब है कि 2020 में जीवाश्म ईंधन से होने वाले उत्सर्जन में 5.4 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी।

शुरूआती आंकड़े दर्शाते हैं कि जनवरी से मई 2022 के बीच वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के स्तर में 2019 की इसी अवधि की तुलना में करीब 1.2 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। इसके लिए अमेरिका, भारत और अन्य यूरोपीय देश जिम्मेवार हैं। इसी का नतीजा है कि मई 2022 में, मौना लोआ वैधशाला में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 420.99 पीपीएम पर पहुंच गया था जो 2021 में 419.13 पीपीएम दर्ज किया गया था। 

यही स्थिति बढ़ते तापमान की भी है जो हर नए दिन नई बुलंदियों पर पहुंच रही है। यदि बढ़ते तापमान की बात करें तो रिपोर्ट के अनुसार पिछले सात साल मानव इतिहास के अब तक के सबसे गर्म साल साबित हुए हैं। आंकड़ों के अनुसार 1850 से 1900 की तुलना में 2018 से 2022 के बीच वैश्विक औसत तापमान में 1.17 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गई है। वहीं इस बात की 93 फीसदी संभावना है कि अगले पांच वर्षों में से कम से कम एक साल 2016 से ज्यादा गर्म होगा, जोकि अब तक का सबसे गर्म वर्ष है।  

प्रभावी कदमों के आभाव में बद से बदतर हो रही है स्थिति 

वहीं इस बात की करीब 48 फीसदी सम्भावना है कि अगले पांच वर्षों में से किसी एक वर्ष में वार्षिक औसत तापमान, 1850 से 1900 के औसत तापमान से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक होगा। विशेषज्ञों ने आशंका जताई है कि जैसे-जैसे वैश्विक तापमान में वृद्धि होगी उसके चलते स्थिति और गंभीर होती जाएगी। तब जलवायु में आने बदलावों से बचने की सम्भावना घटती जाएगी।

देखा जाए तो पृथ्वी पर मौजूद कुल ताप का करीब 90 फीसदी महासागरों में केंद्रित है। वहीं 2018 से 2022 के बीच महासागरों में यह गर्मी अन्य किसी पांच वर्षों की तुलना में सबसे ज्यादा मापी गई है। जानकारी मिली है कि पिछले दो दशकों में न केवल धरती बल्कि महासागरों का तापमान भी तेजी से बढ़ रहा है। 

इस बारे में संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने अपने सन्देश में कहा है कि, "इस वर्ष की यूनाइटेड इन साइंस रिपोर्ट स्पष्ट तौर पर दर्शाती है कि जलवायु में आते बदलावों के प्रभाव अब नए क्षेत्रों को भी अपना निशाना बना रहे हैं।" उनका कहना है कि जीवाश्म ईंधन की हमारी इस लत को हम और बढ़ावा दे रहे हैं, जबकि इसके प्रभाव बद से बदतर होते जा रहे हैं। 

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने चिंता जताई है कि बाढ़, सूखा, लू, तूफान और जंगल में लगने वाली आग जैसी चरम मौसमी आपदाएं अब कहीं ज्यादा गंभीर रूप ले रही हैं और उनकी आवृत्ति नए रिकॉर्ड बना रही है। हाल ही में यूरोप अमेरिका में छाया लू का प्रकोप, पाकिस्तान में आई भीषण बाढ़ और चीन अफ्रीका और अमेरिका में लम्बे समय से चला आ रहा सूखा इन्ही बदलावों का नतीजा है।

इसी तरह मार्च से मई 2022 के बीच, दिल्ली ने रिकॉर्ड 49.2 डिग्री सेल्सियस तापमान दर्ज किया गया था, जिसके साथ ही इस दौरान दिल्लीवासियों ने लू की पांच लहरों का भी सामना किया। देखा जाए तो दिल्ली की आधी आबादी उन बस्तियों में रहती है जहां ऐसी और अन्य कूलिंग सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। ऐसी में इन घटनाओं के कारण लोगों के स्वास्थ्य पर काफी बुरा असर पड़ेगा, साथ ही इसके विनाशकारी सामाजिक आर्थिक प्रभाव सामने आ सकते हैं। 

उनके अनुसार इन आपदाओं के नए पैमानों के संबंध में कुछ भी स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना जरूर है कि वो इंसानों की जीवाश्म ईंधन की लत का परिणाम हैं। रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक स्तर पर अब करीब 55 फीसदी आबादी यानी 420 करोड़ लोग शहरों में रह रहे हैं। जो इंसानों द्वारा किए जा रहे कुल उत्सर्जन के 70 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेवार है। वैश्विक स्तर पर अगले 28 वर्षों में 970 से ज्यादा शहरों में रहने वाले 160 करोड़ से ज्यादा लोग, नियमित रूप से साल के तीन महीने औसतन 35 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान के बीच रहने को मजबूर होंगें। 

अनुमान है कि जिस तरह से जलवायु में बदलाव आ रहे हैं उसके चलते शहरों को उनकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। रिपोर्ट में आगाह किया है कि पहले ही अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को इन बदलावों के चलते सबसे ज्यादा पीड़ा से गुजरना होगा।

इस बारे में विश्व मौसम विज्ञान संगठन के प्रमुख पेटेरी तालास का कहना है कि जलवायु विज्ञान यह दर्शाने में सक्षम है कि मौसम की जिन चरम घटनाओं का हम सामना कर रहे हैं, वो जलवायु पर पड़ते इंसानी प्रभावों के चलते कहीं ज्यादा गंभीर रूप ले लेंगी और उनके आने की सम्भावना पहले से कहीं ज्यादा बढ़ सकती है।

उनका आगे कहना है कि हमने इस वर्ष में बार-बार इस तरह की त्रासदियों का सामना किया है। ऐसे में यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हम चेतावनी प्रणालियों को कहीं ज्यादा सशक्त करें, जिससे कमजोर तबके को भी मौजूदा व भावी जलवायु जोखिमों से बचाया जा सके।

बढ़ते तापमान को रोकने के लिए लेने होंगे कड़े फैसले

हाल ही में किए गए एक नए अध्ययन से पता चला है कि प्रकृति के सहने की क्षमता अब खत्म हो रही है। इसकी वजह से कई टिप्पिंग प्वाइंट उत्पन्न हो गए हैं। जर्नल साइंस में प्रकाशित इस रिसर्च के मुताबिक दुनिया पांच बड़ी चुनौतियों का सामना कर रही हैं, जिसमें सबसे बड़ा खतरा अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड की बर्फ का पिघलना है। देखा जाए तो यह कहीं न कहीं जलवायु में आते बदलावों का ही नतीजा है। इन टिप्पिंग प्वाइंट का जिक्र भी डब्लूएमओ ने अपनी इस नई रिपोर्ट में किया है। 

देखा जाए तो दुनिया में करीब 360 करोड़ लोग ऐसे क्षेत्रों में रह रहे हैं जो जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से अत्यंत संवेदनशील हैं। ऐसे में न केवल उत्सर्जन में कमी महत्वपूर्ण है बल्कि साथ ही लोगों को मौसम की चरम घटनाओं से बचाने के लिए जलवायु की इन घटनाओं के प्रति कहीं ज्यादा अनुकूल होने की भी जरुरत है।  

रिपोर्ट में इन चेतावनी प्रणालियों को ऐसा कारगर व व्यावहारिक उपाय बताया है जो लोगों की जिंदगियां बचा सकती हैं। इसपर किया निवेश न केवल लोगों के जीवन की रक्षा करेगा बल्कि साथ ही आर्थिक रूप से भी फायदेमंद होगा। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2030 तक उत्सर्जन में कमी लाने के लिए हमें अपनी महत्वाकांक्षाओं में सात गुना वृद्धि करनी होगी। जिससे पैरिस जलवायु समझौते के 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल किया जा सके।

रिपोर्ट के अनुसार 2030 के लिये राष्ट्रीय स्तर पर उत्सर्जन में कटौती के जो नए लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, उनमें ग्रीनहाउस गैसों में कटौती करने की दिशा में कुछ प्रगति जरूर दर्ज की गई है, लेकिन इसके बावजूद वो पैरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काफी नहीं है। देखा जाए तो वैश्विक तापमान में होती वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिये इन संकल्पों में चार गुना करनी होगी। वहीं यदि हमें 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करना है तो इसके लिए हमें अपने लक्ष्यों को सात गुना बढ़ाना होगा।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in