गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा किए अध्ययन से पता चला है कि पिछले चार दशकों के दौरान उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में होने वाली बारिश में उल्लेखनीय कमी आई है।
इसी तरह 1981 से 2020 के बीच इस क्षेत्र में धूप के घंटे और वाष्पीकरण में भी गिरावट दर्ज की गई है। वहीं दूसरी तरफ वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में तापमान के पैटर्न में भी उल्लेखनीय बदलाव दर्ज किए हैं, जो क्षेत्र में फसलों की पैदावार को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है।
रिसर्च में यह भी सामने आया है कि जहां इस क्षेत्र के न्यूनतम तापमान में वृद्धि हुई है, वहीं अधिकतम तापमान अपेक्षाकृत स्थिर बना हुआ है। गौरतलब है कि इन चार दशकों में जहां अधिकतम तापमान में 0.016 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। वहीं न्यूनतम तापमान में होने वाली वृद्धि 0.702 डिग्री सेल्सियस दर्ज की गई है।
इन चार दशकों के दौरान अधिकतम और न्यूनतम तापमान में वार्षिक तौर पर आने वाले बदलाव को देखें तो जहां अधिकतम तापमान में 0.0004 डिग्री सेल्सियस प्रति वर्ष की दर से वृद्धि हो रही है वहीं न्यूनतम तापमान के मामले में वृद्धि की यह दर 0.0180 डिग्री सेल्सियस/ वर्ष दर्ज की गई है। देखा जाए तो इससे उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में अधिकतम और न्यूनतम तापमान के बीच का जो अंतर है, वो घट रहा है।
आशंका है कि तापमान के पैटर्न में जिस तरह बदलाव आ रहा है उसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक इससे फसलों की प्रकाश संश्लेषक की दर को नुकसान होगा। आशंका है कि तापमान में इस बदलाव से फसलें बहुत जल्द पक सकती हैं, जिसके कारण पैदावार में गिरावट आ सकती है।
इसमें कोई शक नहीं कि जलवायु में आते बदलावों से कृषि उत्पादन पर असर पड़ा है। इन बदलावों ने न केवल सामाजिक-आर्थिक विकास बल्कि साथ ही समुदायों के कामकाज के तौर-तरीकों को भी प्रभावित किया है। ऐसे में यह समझना बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि जलवायु में आता बदलाव किसानों को कैसे प्रभावित कर रहा है।
किसानों को बदलते मौसम के लिए रहना होगा तैयार
गौरतलब है कि सूखा, लू, भारी बारिश जैसी मौसमी घटनाएं बाढ़, बीमारियों और कीटों के हमलों को बढ़ा रही हैं, जो फसलों की पैदावार और गुणवत्ता को प्रभावित कर सकता है। इस अध्ययन का उद्देश्य बुआई के समय में बदलाव और चरम मौसम को सह सकने वाली फसलों का चयन करके तापमान और बारिश के पैटर्न के आधार पर कृषि के बेहतर तौर-तरीकों का उपयोग करना है, ताकि किसान अच्छी पैदावार हासिल कर सकें।
ऐसे में जलवायु से जुड़े कारकों जैसे तापमान, बारिश धूप, हवा, वाष्पीकरण और नमी का अध्ययन महत्वपूर्ण हो जाता है। इनमें आते बदलावों की बेहतर समझ कृषि को जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए तैयार करने में मददगार साबित हो सकती है।
इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक पिछले चार दशकों के दौरान उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में होने वाली बारिश में 58.621 मिलीमीटर की कमी आई है। वहीं धूप के समय में भी 1.673 घंटों की गिरावट आई है, जबकि वाष्पीकरण में भी 1.1 मिलीमीटर की कमी दर्ज की गई है।
वहीं 1981 से 2020 के बीच बारिश में आती सालाना गिरावट की बात करें तो यह दर 1.461 मिलीमीटर प्रतिवर्ष दर्ज की गई है। इसी तरह धूप में भी हर साल 0.042 घंटे की दर से गिरावट आ रही है। वहीं वाष्पीकरण के मामले में गिरावट की यह दर 0.028 मिलीमीटर प्रतिवर्ष दर्ज की गई है।
बता दें कि यह अध्ययन उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में 1981 से 2020 के बीच पिछले 40 वर्षों के जलवायु से जुड़े आंकड़ों के विश्लेषण पर आधारित है। इस अध्ययन के नतीजे भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के जर्नल मौसम में प्रकाशित हुए हैं।
ऐसा क्यों हो रहा है, इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए वैज्ञानिक लिखते हैं कि बारिश में आती गिरावट के लिए इस क्षेत्र में बढ़ती आबादी, तेजी से होता शहरीकरण और ग्लोबल वार्मिंग जैसे कारण जिम्मेवार हैं। वहीं क्षेत्र में बढ़ता प्रदूषण भी जलवायु से जुड़े इन कारकों को प्रभावित कर रहा है। इस प्रदूषण और धूल के कणों के साथ ही बादल वाले दिनों की संख्या में वृद्धि जैसे कारक धूप में कमी की वजह बन रहे हैं।
बढ़ता प्रदूषण और धूल के कण जहां सूर्य से आने वाले विकिरण को अवशोषित कर लेते हैं। ऐसे में धूप में कमी और प्रदूषण से वाष्पीकरण कम हो रहा है। देखा जाए तो धूप के समय और वाष्पीकरण में आती यह कमी संघनन प्रक्रिया को प्रभावित करती है, जिससे क्षेत्र में होने वाली बारिश पर भी असर पड़ता है।
क्लाईमेट ट्रेंड्स की एक ताजा रिपोर्ट में सामने आया है कि पिछले दो वर्ष से भारत में सर्दियां अपेक्षाकृत गर्म हो रही हैं। इस वर्ष भी बारिश और बर्फ सर्दियों की शुरुआत से ही कम हुई है। हालांकि फरवरी में थोड़ी बारिश-बर्फबारी जरूर हुई है, लेकिन लगता नहीं की वो भी सर्दी में बारिश की कमी को पूरा करने के लिए काफी है।
वैज्ञानिकों की मानें तो मौसम का यह बदलता रुख मुख्य रूप से जलवायु में आते बदलावों का ही नतीजा है। देखा जाए तो इस वैश्विक आपदा का सबसे ज्यादा असर हिमालय के क्षेत्रों पर ही पड़ेगा।
आंकड़ों की मानें तो 1901 के बाद से फरवरी 2024 में दूसरा सबसे न्यूनतम तापमान दर्ज किया गया, जबकि मौसम विभाग द्वारा आंकड़े दर्ज करना शुरू करने के बाद से अब तक इस बार जनवरी में चौथा सबसे न्यूनतम तापमान दर्ज किया गया। यह रुझान अलग-अलग घटनाएं नहीं हैं, बल्कि एक बड़े पैटर्न का हिस्सा हैं। ऐसे में किसानों को भी इन बदलावों के लिए तैयार रहने की जरूरत है जिनसे उत्तराखंड भी अछूता नहीं है।