जलवायु परिवर्तन को पैर पसारने में सबसे ज्यादा मदद विकसित देशों ने की है। इसके बावजूद यह देश अपने द्वारा पैदा की गई समस्या का बोझ विकासशील देशों पर डाल रहे हैं; फोटो: आईस्टॉक
जलवायु परिवर्तन को पैर पसारने में सबसे ज्यादा मदद विकसित देशों ने की है। इसके बावजूद यह देश अपने द्वारा पैदा की गई समस्या का बोझ विकासशील देशों पर डाल रहे हैं; फोटो: आईस्टॉक

विकासशील देशों पर उत्सर्जन कम करने का असंगत बोझ डाल रहा है कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म: सीएसई

जलवायु जोखिम से जूझ रही दुनिया में वैश्विक व्यापारिक नियमों में बदलाव की आवश्यकता है, लेकिन यह बदलाव जलवायु न्याय की कीमत पर नहीं होने चाहिए
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नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा आयोजित एक वेबिनार में विशेषज्ञों ने कहा है कि यूरोपियन यूनियन का कार्बन सीमा समायोजन तंत्र यानी कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) जैसी नीतियां भारी उद्योगों को कार्बन मुक्त करने का बोझ असंगत रूप से ग्लोबल साउथ पर डाल रही हैं। यह बोझ उनके विकास की राह में बाधा डाल रहा है।

यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि आखिर यह कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) क्या है? बता दें कि यूरोपियन यूनियन ने साल 2022 में सीबीएएम की घोषणा की थी। इसके तहत लोहा, इस्पात, सीमेंट, एल्यूमीनियम, उर्वरक, बिजली और हाइड्रोजन जैसे आयातित सामान पर उत्सर्जन के आधार पर कर लगाने की सिफारिश की गई थी।

यह कर इन वस्तुओं के उत्पादन के दौरान होने वाले ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के आधार पर लगाया जाएगा। इसका सीधा असर उन देशों को होगा जो यूरोप में इन वस्तुओं का निर्यात कर रहे हैं।

गौरतलब है कि इस वेबिनार में सीएसई ने एक नई रिपोर्ट भी जारी की है। इस रिपोर्ट में सीबीएएम तंत्र के प्रभावों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। रिपोर्ट के मुताबिक यूरोपियन यूनियन का यह नया कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म वैश्विक व्यापार और जलवायु नीतियों में किया एक नया प्रयोग है।

उत्सर्जन के आधार पर लोहा, स्टील, सीमेंट, एल्युमीनियम और उर्वरक जैसे यूरोप में किए जाने वाले आयातों पर कर लगाता है। रिपोर्ट के अनुसार हालांकि यूरोपीय यूनियन का उद्देश्य इसकी मदद से कड़े उत्सर्जन नियमों का पालन करने वाली अपनी कंपनियों के लिए प्रतिस्पर्धा का समान अवसर पैदा करना है, लेकिन इसकी निष्पक्षता और व्यापक प्रभावों को लेकर वैश्विक जगत गंभीर रूप से चिंतित है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि सीबीएएम से विकासशील देशों को कहीं ज्यादा नुकसान हो सकता है। देखा जाए तो कई देश अभी भी अपने विकास के शुरूआती चरणों में हैं। ऐसे में आशंका है कि इस कर की वजह से उनके लिए अपने प्रमुख उद्योगों को विकसित करना कठिन हो जाएगा, जो उनके आर्थिक विकास और वैश्विक बाजार तक उनकी पहुंच में बाधा उत्पन्न कर सकता है।

विकासशील देशों के विकास की राह में रोड़ा है यह कर

इस तंत्र ने जहां उत्सर्जन कम करने का बोझ विकासशील देशों पर डाल दिया है, भले ही जलवायु परिवर्तन को पैर पसारने में सबसे ज्यादा मदद विकसित देशों ने की है। इसके बावजूद यह देश असंगत रूप से अपने द्वारा पैदा की हुई समस्या का बोझ विकासशील देशों पर डाल रहे हैं।

इन विकसित देशों की जिम्मेवारी थी वो जलवायु न्याय को ध्यान में रखते हुए विकासशील देशों को भी आगे बढ़ने का मौका दें, लेकिन उत्सर्जन कम करने में विकसित देश जिस तरह विकासशील देशों की मदद करने में विफल रहे हैं, इस तंत्र में उनकी पिछली विफलताओं को भी अनदेखा कर दिया गया है।

नतीजतन, 2023 में कॉप 28 के दौरान विकासशील देशों ने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की कि कैसे सीबीएएम जैसे व्यापारिक नियम उनकी अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

वेबिनार का उद्घाटन करते हुए, सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा कि, व्यापार और जलवायु आंतरिक रूप से जुड़े हुए हैं, और जलवायु जोखिम से जूझ रही दुनिया में वैश्विक व्यापारिक नियमों में आमूलचूल बदलाव की आवश्यकता है, लेकिन यह बदलाव जलवायु न्याय की कीमत पर नहीं होना चाहिए।"

उनके मुताबिक सीबीएएम जैसे उपाय एकतरफा हैं। यह बोझ विकासशील देशों पर शिफ्ट कर रहे हैं, भले ही अब तक विकसित देशों ने अपने उत्सर्जन को पर्याप्त रूप से कम नहीं किया है। यह विकसित देश अभी भी कार्बन स्पेस पर कब्जा जमाए हुए हैं। यह विशेष रूप से चिंताजनक है क्योंकि इस तरह के उपाय दक्षिण में देशों की अर्थव्यवस्थाओं को और ज्यादा नुकसान पहुंचा सकते हैं, जिससे उनकी उत्सर्जन कम करने की क्षमता सीमित हो सकती है।

देखा जाए तो सीबीएएम का उद्देश्य यूरोपीय यूनियन की कंपनियों को उन प्रतिस्पर्धियों से बचाना है, जहां कार्बन मूल्य तय नहीं किया गया है, इससे उनके उत्पाद सस्ते हो जाते हैं। हालांकि यूरोपियन यूनियन का मानना है कि यह कर उसके व्यापारिक साझेदारों को अपने निर्माण उद्योगों को कार्बन मुक्त करने के लिए प्रोत्साहित करेगा। 

सीएसई रिपोर्ट पेश करते हुए अवंतिका गोस्वामी ने कहा, "विकसित देश अपने आर्थिक विकास के लिए ऐतिहासिक रूप से जीवाश्म ईंधन पर निर्भर रहे हैं। हालांकि आज, उनके पास अपने घरेलू उत्सर्जन को काफी हद तक कम करने की क्षमता मौजूद है और साथ ही उनके पास वो तकनीकी मौजूद हैं जिनकी मदद से वो अपने निर्माण सम्बन्धी उत्सर्जन को कम कर सकते हैं।

इसके बावजूद, वे उत्सर्जन जारी रखे हुए हैं। उन्होंने बहुत ज्यादा उत्सर्जन करने वाले उत्पादन को विकासशील देशों में स्थानांतरित कर दिया है। वहीं दूसरी ओर इस बीच, विकासशील देशों को सीबीएएम जैसे कर लगाकर अनुचित रूप से दंडित किया जा रहा है, जो उनकी वर्तमान वास्तविकता को आकार देने वाली ऐतिहासिक चुनौतियों पर विचार नहीं करता है।"

गोस्वामी ने आगे बताया कि, "सीबीएएम इस तथ्य को भी नजरअंदाज करता है कि समृद्ध देशों ने पर्यावरण अनुकूल तकनीकों को विकासशील देशों के लिए सुलभ बनाने के अपने वादों को पूरा नहीं किया है। इसके बावजूद विकासशील देशों से अपेक्षा की जाती है कि वे सीबीएएम से बचने के लिए अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए स्वयं भुगतान करें।

यह तब है जब पेरिस समझौता विकसित देशों से उनके जलवायु प्रयासों में विकासशील देशों का वित्तीय और तकनीकी रूप से समर्थन करने का आह्वान करता है। इस तरह सीबीएएम पेरिस समझौते और यूएनएफसीसीसी में निहित 'सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों (सीबीडीआर)' के सिद्धांत का भी उल्लंघन करता है।"

भारत के लिए क्या हैं सीबीएएम के मायने?

इस बारे में यूएनसीटीएडी से जुड़ी क्लाउडिया कॉन्ट्रेरास का कहना है कि, "सीबीएएम जैसी नीतियों को पेरिस समझौते के अनुरूप होना चाहिए और इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या अन्य देश इसकी आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता रखते हैं। कुछ देशों के लिए, व्यापार उनके राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है, और ये नीतियां उत्सर्जन कम करने के उनके संसाधनों को सीमित कर सकती हैं। ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि ऐसे उपायों को लागू करने वाले देश प्रभावित देशों का समर्थन करें।"

एएफपीएच के फतेन अग्गद के मुताबिक, "निष्कर्षों से पता चला है कि इन नीतियों के कारण अफ्रीका को हर साल 2,500 करोड़ डॉलर का नुकसान हो सकता है। इसे परिप्रेक्ष्य में देखें तो पूरे महाद्वीप को जलवायु वित्त के रूप में सालाना करीब 3,000 करोड़ डॉलर मिलते हैं, जो जलवायु चुनौतियों का प्रभावी ढंग से समाधान करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

इसका मतलब है कि अफ्रीका बिना किसी मुआवजे के 2,500 करोड़ डॉलर खो रहा है। इसके अलावा, यूरोपियन यूनियन द्वारा उत्सर्जन कम करने का बोझ अफ्रीका पर डालना अन्यायपूर्ण लगता है, जिसका वैश्विक उत्सर्जन में हिस्सेदारी चार फीसदी से भी कम है। उनके मुताबिक सीबीएएम आवश्यक वित्तीय या तकनीकी सहायता प्रदान किए बिना उत्सर्जन कम करने का बोझ अन्य देशों पर डालने का प्रयास है।

भारत के लिए, सीबीएएम द्वारा कवर किए गए सामान 2022-23 में यूरोपियन यूनियन को उसके कुल निर्यात का करीब 10 फीसदी हिस्सा थे। त्रिशंत देव बताते हैं कि, "अनुमान है कि प्रति टन कार्बन डाइऑक्साइड के हिसाब से यह कर 100 यूरो (या 106 अमेरिकी डॉलर) की दर से, भारत द्वारा किए गए निर्यात के मूल्य में सालाना औसतन 25 फीसदी का कर जोड़ेगा। यह एक ऐसी लागत है जिसे भारत को वहन नहीं करना चाहिए।"

गोस्वामी बताती हैं कि सीबीएएम इस दशक में शुरू किए गए उन कई नीतिगत औजारों में से एक है, जिसका उद्देश्य जलवायु की रक्षा करना है, लेकिन इसके साथ व्यापार संरक्षणवाद और आर्थिक राष्ट्रवाद के संकेत भी साफ तौर पर दिखते हैं। इनमें से कई नीतियों का नेतृत्व विकसित देशों द्वारा किया जाता है जो उद्योग खोने और कार्बन रिसाव के बारे में चिंतित हैं क्योंकि उनके जलवायु नियम कुछ विकासशील देशों की तुलना में सख्त हैं।“

देव कहते हैं, "सीबीएएम जैसी नीतियों के प्रभावों को सीमित किया जाना चाहिए ताकि ग्लोबल साउथ में होते विकास की दिशा में बाधा न आए।" उनके मुताबिक विकसित देशों से पर्याप्त वित्तीय और तकनीकी सहायता के साथ कम कार्बन और जलवायु लचीले रास्तों का अनुसरण करके ऐसा किया जा सकता है।

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