क्या जलवायु परिवर्तन के बढ़ते दुष्प्रभावों को सीमित कर सकती है मांस और ईंधन की राशनिंग?

भारत में 46 फीसदी लोग राशनिंग के पक्ष में थे, वहीं अमेरिका और जर्मनी में महज 29 फीसदी लोग इसके पक्ष में थे
क्या जलवायु परिवर्तन के बढ़ते दुष्प्रभावों को सीमित कर सकती है मांस और ईंधन की राशनिंग?
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क्या मांस और ईंधन जैसी चीजों की राशनिंग जलवायु परिवर्तन के बढ़ते दुष्प्रभावों को सीमित कर सकती है? यह एक ऐसा सवाल है जो बहुत से लोगों को अटपटा लग सकता है, लेकिन उप्साला और गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं का मत है कि इसकी मदद से बढ़ती खपत के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के पड़ते दुष्प्रभावों को न्यायसंगत तरीके से सीमित किया जा सकता है।

इतना ही नहीं अध्ययन से पता चला है कि करीब 40 फीसदी जनता इस तरह के राशनिंग उपायों के पक्ष में है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल ह्यूमैनिटीज एंड सोशल साइंसेज कम्युनिकेशंस में प्रकाशित हुए हैं।

इस बारे में अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता ओस्कर लिंडग्रेन ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि यह राशनिंग नाटकीय और कठोर लग सकती है, लेकिन जलवायु परिवर्तन भी एक बड़ी समस्या है। यही वजह है कि भारी संख्या में लोग इसका समर्थन कर रहे हैं।

राशनिंग के बारे में एक अच्छी बात यह है कि यदि इसे निष्पक्ष रूप से लागू किया जाए, तो यह जलवायु परिवर्तन से निपटने में मददगार हो सकती है। हालांकि यह सभी पर लागू होनी चाहिए, चाहे किसी की कितनी भी आय और पैसा क्यों न हो।" उनके मुताबिक निष्पक्ष मानी जाने वाली नीतियों को अक्सर कहीं ज्यादा समर्थन मिलता है।

वैश्विक स्तर पर देखें तो जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हमें ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जो मांस और ईंधन जैसी चीजों के बढ़ते उपयोग को प्रभावी तरीके से सीमित कर सकें। यह वो चीजें हैं जो पर्यावरण और जलवायु पर गहरा असर डालती हैं।

लेकिन साथ ही लोगों द्वारा इनका बड़े पैमाने पर उपभोग भी किया जाता है। ऐसे में अगर लोगों को लगता है कि यह नियम उचित हैं, तभी वो इसका समर्थन करने के लिए अधिक इच्छुक होंगें।

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रिसर्च के मुताबिक अब तक इस क्षेत्र में किए अधिकांश शोधों में मुख्य रूप से कार्बन कर जैसे आर्थिक साधनों पर ध्यान केंद्रित किया गया है। हालांकि इस दौरान  राशनिंग जैसे अन्य विकल्पों पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। जो इस समस्या को हल करने में काफी प्रभावी साबित हो सकते हैं।

यही वजह है कि अपने इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने भारत, ब्राजील, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका के करीब 9,000 लोगों पर एक सर्वे किया है, जिसमें उनसे ईंधन और मांस जैसे बहुत ज्यादा उत्सर्जन पैदा करने वाले पदार्थों पर उनके विचार मांगे गए। यह भी देखा गया कि लोग ईंधन और मांस जैसे उत्पादों पर कर लगाने की तुलना में इनके उपयोग को सीमित करने के बारे में क्या सोचते हैं।

भारत में 46 फीसदी लोगों ने किया राशनिंग का समर्थन

अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक लोग करों की तरह ही राशनिंग के भी पक्ष में हैं। उदाहरण के लिए, जहां 38 फीसदी लोगों ने ईंधन की राशनिंग का समर्थन किया, वहीं 39 फीसदी ने इसपर कर का भी समर्थन किया।

शोधकर्ताओं को यह जानकर हैरानी हुई कि जीवाश्म ईंधन पर राशनिंग और कर लगाने के बारे में लोगों की राय लगभग एक जैसी ही है। उनका सोचना था कि राशनिंग कम लोकप्रिय होगी क्योंकि यह सीधे तौर पर लोगों की खपत को सीमित करती है।

अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता मिकेल कार्लसन ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से जानकारी दी है कि जर्मनी में जीवाश्म ईंधन पर कर लगाने का विरोध करने वालों की संख्या जीवाश्म ईंधन की राशनिंग का पुरजोर विरोध करने वालों के अनुपात से अधिक है।

अध्ययन में यह भी सामने आया है कि राशनिंग को लेकर लोगों की राय हर देश में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए भारत और दक्षिण अफ्रीका में, अन्य देशों की तुलना में कहीं ज्यादा लोग ईंधन और उच्च उत्सर्जन करने वाले खाद्य पदार्थों की राशनिंग का समर्थन करते हैं। आंकड़ों के मुताबिक जहां भारत में 46 फीसदी लोग राशनिंग के पक्ष में थे, वहीं दक्षिण अफ्रीका में यह आंकड़ा 49 फीसदी दर्ज किया गया। वहीं अमेरिका और जर्मनी में महज 29 फीसदी लोग इसके पक्ष में थे।

इसी तरह जर्मनी और अमेरिका में बहुत से लोग मांस की राशनिंग के सख्त खिलाफ हैं। शोध के मुताबिक जो लोग जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित हैं, उनके द्वारा इसके समर्थन की संभावना भी अधिक है। इसी तरह युवा और अधिक शिक्षित लोग भी इसके प्रति अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं।

शोधकर्ताओं के मुताबिक इस बारे में और अधिक शोध की आवश्यकता है कि लोग राशनिंग के बारे में क्या सोचते हैं और इससे जुड़ी नीतियों को कैसे तैयार किया जाए। कई क्षेत्रों में पानी की राशनिंग हो रही है, और कई लोग जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों को सीमित करने के लिए इसके उपयोग में कटौती करने को भी तैयार हैं, बशर्ते सभी लोग ऐसा करने को तैयार हों।

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