साल 2100 तक जलमग्न हो जाएंगे 90 प्रतिशत से अधिक नमक के दलदल: अध्ययन

जैसे-जैसे समुद्र का स्तर बढ़ता रहेगा कम नमक वाली दलदली प्रजातियां पूरी तरह से अधिक नमकीन दलदली प्रजातियों को बदल देंगी तथा हमेशा के लिए पानी में डूब जाएंगी
फोटो साभार : विकिमीडिया कॉमन्स, क्रिस गन्स
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दुनिया भर में नमक के दलदल उतने ही सुंदर हैं जितने कि वे महत्वपूर्ण हैं। ये खूबसूरत, नीची झीलें पृथ्वी पर सबसे जैविक रूप से उत्पादक पारिस्थितिक तंत्रों में से एक हैं। वे नाइट्रोजन चक्र में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं, कार्बन सिंक के रूप में कार्य करते हैं, तूफानी लहरों से तटों की रक्षा करते हैं और कई मछलियों, शेलफिश और तटीय पक्षियों के लिए महत्वपूर्ण आवास प्रदान करते हैं।

चिंता की बात यह है कि मरीन बायोलॉजिकल लेबोरेटरी (एमबीएल) के नए शोध में कहा गया है कि सदी के अंत तक दुनिया के 90 प्रतिशत से अधिक नमक के दलदलों के पानी में डूबने के आसार हैं।

1971 से, एमबीएल इकोसिस्टम सेंटर के वैज्ञानिकों ने इस दलदल के प्रायोगिक भूखंडों में वनस्पति का मानचत्रिण किया, ताकि यह पता लगाया जा सके कि पर्यावरण में नाइट्रोजन बढ़ने से दलदली घास की प्रजातियों पर असर पड़ेगा या नहीं। लंबी अवधि के अध्ययन के चलते वे पारिस्थितिक तंत्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का पता लगाने में भी सफल रहे, विशेषकर समुद्र के स्तर में वृद्धि होने से पड़ने वाले प्रभाव भी इसमें शामिल हैं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि बढ़ी हुई नाइट्रोजन वनस्पति के बढ़ते स्तर और दलदली सतह के बढ़ते हिस्से के पक्ष में है, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे दलदल में नाइट्रोजन की कितनी भी मात्रा का उपयोग करते हैं, ये पारिस्थितिक तंत्र वैश्विक समुद्र स्तर में वृद्धि होने से अपने आपको बचाने में सक्षम नहीं होंगे।

प्रमुख अध्ययनकर्ता और एमबीएल वैज्ञानिक इवान वेलिएला कहती हैं, सदी के अंत तक ग्रेट सिप्पेविसेट मार्श जैसी जगहें उथली हो जाएंगी। यहां तक कि समुद्र स्तर के अनुमानों के तहत दुनिया के 90 फीसदी से अधिक नमक के दलदल पानी में डूब जाएंगे और गायब हो जाएंगे।

दलदल पारिस्थितिकी तंत्र में इंजीनियर की तरह काम करते हैं

नमक के दलदल धीरे-धीरे ढलने वाले पारिस्थितिक तंत्र हैं, अलग-अलग प्रजातियां अधिक ऊंचाई बनाम समुद्र के करीब कम ऊंचाई में बढ़ती हैं और नाइट्रोजन की आपूर्ति में बदलाव के लिए अलग-अलग प्रतिक्रियाएं करती हैं। जब बदलाव धीरे-धीरे होता है, तो यहां उगने वाली घास अपनी पसंदीदा ऊंचाई तक पहुंच सकती है।

नमक के कम दलदल में, कॉर्डग्रास का बहुत अधिक विकास होता है, क्योंकि यहां नाइट्रोजन की आपूर्ति में वृद्धि होती है। नमक की अधिक दलदली प्रजातियों में, प्रायोगिक भूखंडों में दलदली घास -स्पार्टिना पैटेंस की प्रचुरता के स्तर में कमी पाई गई है।

सॉल्टग्रास नाइट्रोजन की आपूर्ति के साथ बढ़ती है और शोधकर्ताओं ने इसे पारिस्थितिकी तंत्र के इंजीनियर का नाम दिया है। इन क्षेत्रों में समुद्र के बढ़ते जल स्तर के कारण पानी में डूबने से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए नमक में उगने वाली घास द्वारा छोड़े गए बायोमास की एक साथ वृद्धि हुई है।

एमबीएल रिसर्च साइंटिस्ट जेवियर लॉरेट कहते हैं, कुछ दशकों के बाद साल्टग्रास गायब हो गई, लेकिन इसने एक विरासत छोड़ दी।

 भले ही वातारवण में कितनी ही नाइट्रोजन क्यों बढ़ गई हो, शोध से पता चला है कि वर्तमान और भविष्य में समुद्र के स्तर में वृद्धि होने का अनुमान लगाया गया है, कम नमक वाली दलदली प्रजातियां पूरी तरह से अधिक नमकीन दलदली प्रजातियों को बदल देंगी। जैसे-जैसे समुद्र का स्तर बढ़ता रहेगा, ये प्रजातियां  भी पानी में डूब जाएंगी।

वालिएला ने कहा, यदि समुद्र का स्तर हमारे अनुमान के अनुसार बढ़ता रहता है, तो कम दलदली पौधों के लिए और अधिक जगह नहीं बचेगी। उनके पास नमक के दलदल से निकल कर भूमि की ओर पलायन करने का एकमात्र विकल्प होगा।

बढ़ता तटीय दबाव

दुनिया भर में नमक के दलदलों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है जिसे तटीय दबाव कहते हैं, जहां समुद्र का स्तर एक दिशा से बढ़ता है और मानव विकास दूसरी दिशा से धकेलता है। एक समुद्र की दीवार जो एक घर को बाढ़ से बचा सकती है, दलदल के प्रवास को स्वाभाविक रूप से ऊंचे जमीन वाले इलाकों में जाने से रोकेगी।

लोरेट कहते हैं, समुद्र के स्तर में हो रही वृद्धि, जिसका हम सामना कर रहे हैं, पौधों के लिए एकमात्र समाधान नए इलाकों में बसना होगा। लेकिन वह प्रवासन कुछ जगहों पर असंभव हो सकता है।

समुद्र स्तर में वृद्धि नमक के दलदल के लिए सबसे बड़ा खतरा है। हमें वास्तव में यह पता लगाने की आवश्यकता है कि इन पारिस्थितिक तंत्रों का क्या होने वाला है और नुकसान को कैसे रोका जाए या उनके अनुकूल होने का प्रयास किया जाए, ताकि नमक का दलदल बना रहे। प्रकृति के साथ-साथ मनुष्यों के लिए भी ये महत्वपूर्ण हैं। यह अध्ययन साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

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