संयुक्त राष्ट्र ने अपनी नई रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र जलवायु से जुड़ी चरम मौसमी घटनाओं का सामना करने के लिए तैयार नहीं है। इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक आयोग (यूएन ईएससीएपी) द्वारा जारी नई रिपोर्ट "रेस टू नेट जीरो: एक्सेलेरेटिंग क्लाइमेट एक्शन इन एशिया एंड द पैसिफिक" के मुताबिक इस क्षेत्र में देशों के जलवायु अनुकूलन और शमन के प्रयासों का समर्थन करने के लिए बड़ी मात्रा में वित्तीय साधनों और कार्रवाई की आवश्यकता है। हालांकि रिपोर्ट के मुताबिक इसके लिए जरूरी आंकड़ों का आभाव है।
रिपोर्ट के मुताबिक यह क्षेत्र पहले ही जलवायु में आते बदलावों की भारी कीमत चुका रहा है। अनुमान है कि इस क्षेत्र में प्राकृतिक और जैविक खतरों के चलते हर साल 63.8 लाख करोड़ रुपए (78,000 करोड़ डॉलर) का नुकसान हो रहा है। इसके बारे में आशंका है कि वो बढ़कर 114.53 लाख करोड़ रुपए (140,000 करोड़ डॉलर) पर पहुंच जाएगा।
देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन से जुड़ा यह मुद्दा सिर्फ आर्थिक ही नहीं है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में यह आपदाएं हर साल लाखों लोगों का जीवन उजाड़ रही हैं। यदि 2021 से जुड़े आंकड़ों को देखें तो केवल उसी वर्ष में 100 से भी ज्यादा आपदाएं आई थी जिनमें बाढ़, लू, सूखा, चक्रवात, शामिल थी।
इन आपदाओं में 4,000 से ज्यादा लोगों की जान गई, जबकि 4.83 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे। इतना ही नहीं इन आपदाओं में करीब 2.91 लाख करोड़ रुपए (3,560 करोड़ डॉलर) का आर्थिक नुकसान भी हुआ था। मौसम इन चरम घटनाओं में सबसे ज्यादा नुकसान बाढ़ से हुआ था, जिसमें भारत में आई भीषण बाढ़ भी शामिल थी। जिसने कृषि और इंफ्रास्ट्रक्चर को करीब 25,361 करोड़ रूपए (310 करोड़ डॉलर) का नुकसान पहुंचाया था।
इसी तरह पाकिस्तान में आई बाढ़ से जीडीपी को 2.2 फीसदी का नुकसान उठाना पड़ा था। वहीं इस बाढ़ में 3.3 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे। वहीं विस्थापितों का आंकड़ा 80 लाख पर पहुंच गया था। इस बाढ़ ने करीब 90 लाख पाकिस्तानियों को गरीबी के भंवर जाल में धकेल दिया था।
देखा जाए तो पिछले दो दशकों में इन आपदाओं से होने वाले नुकसान में भारी वृद्धि हुई है। यदि आंकड़ों की मानें तो पिछले दो दशकों के औसत की तुलना में 2021 में सूखे से होने वाली नुकसान में 63 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई, जबकि इसी तरह बाढ़ से होने वाले नुकसान में भी 23 फीसदी वृद्धि और भूस्खलन से होने वाले नुकसान में 147 फीसदी की वृद्धि हुई है।
यदि जीडीपी के लिहाज से देखें तो इन आपदाओं का सबसे ज्यादा खामियाजा प्रशांत में मौजूद छोटे द्वीपीय विकासशील देशों को भुगतना पड़ेगा जो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। आशंका है कि यह देश सबसे ज्यादा प्रभावित होंगें। अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के सबसे खराब परिदृश्य में चीन, भारत, जापान, इंडोनेशिया, कोरिया और रूस को सबसे ज्यादा नुकसान होने की आशंका है।
इतना ही नहीं जलवायु में आते बदलावों से मलेरिया, डेंगू, स्ट्रोक , कुपोषण आदि में भी वृद्धि हो रही है। यह समस्याएं जलवायु में आते बदलावों के साथ और बढ़ रही हैं। ऐसे में रिपोर्ट में स्वास्थ्य और आपदाओं को कम करने के लिए प्रबंधन प्रणालियों को मजबूत और एकीकृत करने की मांग की है।
वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है एशिया में तापमान
रिपोर्ट के मुताबिक देखा जाए तो पिछले छह दशकों में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में तापमान वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ा है। वहीं दुनिया में आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित दस में से छह देश इसी क्षेत्र में हैं। इन आपदाओं ने जहां खाद्य व्यवस्था पर आघात किया है। वहीं साथ ही अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान पहुंचाया है और समुदायों को कमजोर किया है।
रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु में आता बदलाव इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को तेजी से कमजोर कर रहा है। इसी तरह बढ़ता कंक्रीट का जंगल शहरों को लगातार गर्म करता जा रहा है। कई क्षेत्रों में बढ़ता तापमान बारिश के पैटर्न को भी बदल रहा है। साथ ही समुद्र का बढ़ता जलस्तर और चरम मौसमी घटनाएं खतरा पैदा कर रही हैं।
इस क्षेत्र में लू भी एक गंभीर समस्या है जिसने नीतिगत रूप से भी ध्यान आकर्षित करना शुरू कर दिया है। विडम्बना देखिए की इन आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित लोग आमतौर पर ऐसी जमीन और घरों में रहने को मजबूर हैं जो उनकी समस्याओं में और इजाफा कर रहे हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक जहां यह क्षेत्र जलवायु में आते बदलावों के सबसे बुरे परिणामों को झेल रहा है वहीं यह इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेवार भी है। आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में हो रहे आधे से अधिक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए यह क्षेत्र ही जिम्मेवार है। इतना ही नहीं जैसे इस क्षेत्र की आबादी बढ़ रही है वैसे-वैसे इस क्षेत्र की उत्सर्जन में हिस्सेदारी भी बढ़ती जा रही है। आज भी क्षेत्र के ज्यादातर देश बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं।
ऐसे में संयुक्त राष्ट्र की अवर महासचिव और ईएससीएपी की कार्यकारी सचिव आर्मिडा सालसियाह एलिसजहबाना का कहना है कि "यदि तात्कालिकता स्पष्ट है, तो संदर्भ चुनौतीपूर्ण है।" उनके अनुसार एशिया प्रशांत क्षेत्र में देशों को कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना करने और उनसे निपटने के लिए महामारी के बाद कहीं ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।
उनका कहना है कि इस क्षेत्र में सरकारें बहुत सारे मौजूदा संकटों और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बावजूद शुद्ध शून्य उत्सर्जन की दौड़ में शामिल हो रही हैं। हालांकि रिपोर्ट के मुताबिक उत्सर्जन में कटौती और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान में देशों की कार्रवाइयों का योग अभी भी पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काफी नहीं है। इस क्षेत्र में भारत और चीन बड़े पैमाने पर ऊर्जा के लिए जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं, हालांकि साथ ही वो अक्षय ऊर्जा के विकास पर भी बल दे रहे हैं।
उत्सर्जन में भारी कटौती की है जरूरत
वास्तव में देखा जाए तो 2010 की तुलना में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 16 फीसदी की वृद्धि का अनुमान है। वहीं 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करने उत्सर्जन में 45 फीसदी की कटौती करने की जरूरत है जिससे दुनिया काफी दूर है।
ऐसे में आशंका है कि निर्णायक कार्रवाई के बिना, ग्लोबल वार्मिंग इस क्षेत्र में गरीबी और असमानता को बढ़ाने में अहम योगदान देगी। इसके पूरे क्षेत्र में विनाशकारी परिणाम होंगें और प्रशांत में मौजूद छोटे विकासशील द्वीपीय देशों का देशों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
इसी के मद्देनजर ईएससीएपी ने अपनी रिपोर्ट में तीन प्रमुख क्षेत्रों पर ध्यान देने की बात कही है जिनमें ऊर्जा, साफ-सुथरी परिवहन व्यवस्था और रसद के साथ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और निवेश शामिल हैं। साथ ही इन बदलावों के लिए कैसे वित्तपोषित किया जा सकता है और सतत विकास के लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए शुद्ध-शून्य उत्सर्जन की राह में कैसे आगे बढ़ा जा सकता है।
रिपोर्ट में भारत और चीन का जिक्र करते हुए लिखा है कि यह दोनों देश इस क्षेत्र में दोपहिया और तिपहिया वाहनों के विद्युतीकरण में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं जोकि अच्छी खबर है। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार, जहां चीन के पास करीब छह लाख इलेक्ट्रिक बसें हैं, वहीं भारत, जापान और कोरिया में भी इलेक्ट्रिक बसों की बिक्री में तेजी से वृद्धि हुई है।
यदि भारत को देखें तो उसने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए 2030 तक वनावरण में वृद्धि करके ढाई से तीन गीगावाट कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को कम करने की बात कही है। इसमें 2030 तक करीब 2.6 करोड़ हेक्टेयर भूमि की बहाली का लक्ष्य शामिल है।
रिपोर्ट के मुताबिक यदि राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) को देखें तो इसके लिए इस क्षेत्र को कुल 107.25 लाख करोड़ रुपए (131,090 करोड़ डॉलर) की जरूरत है। इसमें से 75.7 लाख करोड़ रुपए (92,566 करोड़ डॉलर) जलवायु शमन के लिए और 30.7 लाख करोड़ रुपए (37,553 करोड़ डॉलर) जलवायु अनुकूलन के लिए चाहिए। इनमें से अकेले भारत को 85,08,292 करोड़ रुपए (104,000 करोड़ डॉलर) की जरूरत है। इसमें 83,400 करोड़ डॉलर जलवायु शमन जबकि 20,600 करोड़ डॉलर की आवश्यकता जलवायु अनुकूलन के लिए है।
एक डॉलर = 81.81 भारतीय रुपए