हम सभी अपने जीवन में एक नई जलवायु का अनुभव कर रहे हैं। हमारे ग्रह में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां लाखों वर्षों तक कुछ नहीं बदलता, जैसे कि ध्रुवीय क्षेत्र, अंटार्कटिका और आर्कटिक। लेकिन अब ये क्षेत्र एक मापक यंत्र की तरह काम कर रहे हैं, जो ये बताते हैं कि इंसानों की वजह से हो रहे जलवायु परिवर्तन का कितना नुकसान हो रहा है।
यदि इन ध्रुवीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन का असर दिखने लगता है तो यह धरती के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। दोनों ध्रुवीय क्षेत्रों पर गहरी नजर रखी जा रही है, ताकि जलवायु परिवर्तन का असर मापा जा सके।
इंसानों द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैस के के कारण हो रही ग्लोबल वार्मिंग का असर पहले ही आकर्टिक में दिखने लगा था, लेकिन हाल के वर्षों में यहां की जलवायु में तेजी से परिवर्तन देखने को मिला है।
मानव सभ्यता में वर्तमान पीढ़ी पहली बार धरती के इस बर्फ से ढके से हिस्से में बदलाव देख रही है। पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि हम आर्कटिक की नई जलवायु के गवाह बनने वाले हैं। इस सदी के अंत तक साल के दस महीने तक आर्कटिक में बर्फ बिलकुल भी नहीं दिखाई देगी।
“नई” जलवायु से आशय है, बर्फ से ढके ध्रुव में गर्मी व बारिश होना और बर्फ का कम होना, जो इसकी जलवायु में प्रमुख भूमिका निभाती है।
दरअसल, उत्तरी ध्रुव क्षेत्र नए “आर्कटिक जलवायु”के दौर में प्रवेश कर चुका है।
नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च (एनसीएआर) की वैज्ञानिक लॉरा लैन्ड्रम कहती हैं, "आर्कटिक पूरी तरह से अलग जलवायु में प्रवेश कर रहा है।" एनसीएआर के साथी वैज्ञानिक मारिका एम. हॉलैंड के साथ लैन्ड्रम ने आर्कटिक में नई जलवायु की शुरुआत की पुष्टि की।
इनकी एक नई स्टडी (एक्स्ट्रीम्स बिकम रूटीन इन एन इमर्जिंग न्यू आकर्टिक) में कहा गया है कि साल-दर–साल आकर्टिक गर्म होता जा रहा है और अब यह नए आर्कटिक में बदल रहा है।
उनके अध्ययन में आर्कटिक क्षेत्र में तेजी से बदलाव पाए गए हैं। इसका अर्थ है कि सर्दियां में तापमान अधिक दर्ज किया जा रहा है, बर्फ कम बन रही है और यह सब अब नई सामान्य स्थिति सी बनती जा रही है।
लैंड्रूम कहती हैं कि बदलाव की दर उल्लेखनीय है। इससे पहले कभी इतनी तेजी से बदलाव नहीं देखा गया। ऐसे में, यदि पिछले मौसम का आकलन करके अगले सालों का अनुमान लगाना हो तो वह भी संभव सा नहीं लगता।
लैंड्रम और होलेंड कई दशकों के आंकड़ों को खंगाल चुके हैं और विशेष कंप्यूटरों का इस्तेमाल किया, जिससे वे पुराने आर्कटिक की जलवायु चारदीवारी को बना पाए। इससे ये वैज्ञानिक पुराने आर्कटिक में आए बदलाव और उसके लिए मानव निर्मित ग्लोबल वार्मिंग के बारे में पता लगा पाए।
उन्होंने पाया कि आर्कटिक में बर्फ तेजी से पिघल रही है। दूसरा, सामान्य सर्दियों में भी इतनी बर्फ नहीं जम रही थी, जितनी कि बीसवीं सदी के मध्य में गर्मी के महीनों में जम जाया करती थी।
इसका मतलब है कि आर्कटिक के मौसमों के चरित्र में बदलाव आ रहा है। अध्ययन में पाया गया कि 21वीं सदी के मध्य तक सर्दियों में हवा का तापमान इस स्तर तक बढ़ जाएगा, जो यह बताएगा कि आर्कटिक नई जलवायु में प्रवेश कर चुका है। इसके बाद यहां बारिश बढ़ जाएगी, जिसमें बर्फ की मात्रा नहीं होगी, बल्कि सादा पानी गिरेगा।
अध्ययन में कहा गया है कि इस सदी के अंत के बाद साल के तीन से दस महीने ऐसे बीतेंगे, जब आर्कटिक में बिलकुल भी बर्फ नहीं होगी। सदी के मध्य में बारिश के दिनों में भी 20 से 60 दिन की वृद्धि हो सकती है, जो सदी का अंत आते बढ़ कर 60 से 90 दिन हो जाएंगे।
लैंड्रम कहती हैं कि आर्कटिक में अब समुद्री बर्फ, तापमान आदि चरम पर देखा जाएगा, इसलिए हमें अब आर्कटिक की जलवायु की परिभाषा बदल देनी चाहिए।