हिंदू कुश हिमालय और वहां मौजूद ग्लेशियर; फोटो: आईस्टॉक 
जलवायु

तेजी से सिकुड़ रहे बर्फ के अनन्त पहाड़, 23 वर्षों में खो चुके 650,000 करोड़ टन बर्फ

संयुक्त राष्ट्र ने 2025 को "अंतर्राष्ट्रीय ग्लेशियर संरक्षण वर्ष" और 21 मार्च को पहला "विश्व ग्लेशियर दिवस" मनाने की घोषणा की है, साथ ही "द यूनाइटेड नेशंस वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट रिपोर्ट 2025: माउंटेन्स एंड ग्लेशियर्स वाटर टावर्स" नाम से रिपोर्ट जारी की है

Lalit Maurya

धरती पर जो पिछले लाखों वर्षों में नहीं हुआ वो अब बड़ी तेजी से घटित हो रहा है। यह बदलाव किसी दुःस्वप्न से कम नहीं। इन्हीं बदलावों में से एक है तेजी से पिघलते ग्लेशियर। देखा जाए तो इन पिघलने के लिए भी इंसान ही जिम्मेवार हैं, जिनकी बढ़ती महत्वाकांक्षा जलवायु में आते बदलावों की वजह बन रही है।

वैज्ञानिक शोध के मुताबिक 2000 से 2023 के बीच बर्फ के यह अनन्त पहाड़ 650,000 करोड़ टन बर्फ खो चुके हैं। यह करीब-करीब उतना ही है जितनी दुनिया की पूरी आबादी 30 वर्षों में उपयोग करती। संयुक्त राष्ट्र ने भी आज विश्व ग्लेशियर दिवस के मौके पर जारी नई रिपोर्ट “द यूनाइटेड नेशंस वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट रिपोर्ट 2025: माउंटेन्स एंड ग्लेशियर्स वाटर टावर्स” में कहा है जलवायु परिवर्तन की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।

इतना ही नहीं इंसानी गतिविधियां पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रही हैं। इसकी वजह से 200 करोड़ लोगों के जीवन को आधार प्रदान करने वाले यह जल स्रोत खतरे में पड़ गए हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि दुनिया का करीब 70 फीसदी ताजा पानी इन्हीं ग्लेशियरों और बर्फ की चादरों में समाया है। यह वजह है कि लोग अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के साथ-साथ कृषि के लिए भी इन ग्लेशियरों, बर्फ और पहाड़ों पर मौजूद जल स्रोतों पर निर्भर हैं।

तेजी से पिघलते यह ग्लेशियर जल संकट को और बढ़ा रहे हैं, क्योंकि दुनिया के कई हिस्सों में पहले ही लोग पानी की भारी किल्लत से जूझ रहे हैं। वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट रिपोर्ट में इस संकट को उजागर करते हुए लिखा है कि 25 देश जो दुनिया की एक चौथाई आबादी का घर हैं हर साल बेहद गंभीर जल संकट से जूझ रहे हैं। इसी तरह आईपीसीसी के मुताबिक दुनिया के करीब 400 करोड़ लोग साल के कम से कम कुछ समय के लिए पानी की भारी किल्लत का सामना करने को मजबूर होते हैं।

जल संकट से जूझती दुनिया

रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि दुनिया की 27 फीसदी आबादी यानी 220 करोड़ लोगों के पास पीने का साफ-सुरक्षित पानी उपलब्ध नहीं है। इनमें से ज्यादातर यानी पांच में से हर चार लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे हैं। इसके बावजूद करीब 58 फीसदी देश पानी का समझदारी से उपयोग न करके उसे बर्बाद कर रहे हैं।

यह ग्लेशियर हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण हैं इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र ने 2025 को ग्लेशियरों के संरक्षण के लिए समर्पित अंतराष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है।

दुनिया में जिस तरह से जीवाश्म ईंधन का उपयोग हो रहा है, उससे हमारा ग्रह बड़ी तेजी से गर्म हो रहा है। इसका सीधा असर ग्लेशियरों पर भी पड़ रहा है, जो पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा तेजी से बर्फ खो रहे हैं। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने भी अपनी नई रिपोर्ट स्टेट ऑफ द ग्लोबल क्लाइमेट 2024 में पुष्टि की है कि पिछले तीन वर्षों में ग्लेशियरों में जमा बर्फ को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। इससे कई समस्याएं पैदा हो गई हैं।

उदाहरण के लिए पिघलते ग्लेशियरों की वजह से ग्लेशियल झीलों में एकाएक बेहद ज्यादा पानी आ जाता है, जो इसके किनारों को तोड़ भीषण बाद की वजह बन सकता है। गौरतलब है कि 2013 में केदारनाथ में ऐसी ही एक त्रासदी आई थी। उत्तराखंड में आई इस त्रासदी ने हजारों जिंदगियों को निगल लिया था।

हिमालय क्षेत्र ग्लेशियर से जुड़ी आपदाओं के मामले में दुनिया के सबसे ज्यादा संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है। आंकड़ों पर नजर डालें तो दुनिया में करीब 1.5 करोड़ लोगों पर ग्लेशियल झीलों के फटने से आने वाली बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है। इनमें से 30 लाख से ज्यादा लोग अकेले भारत में रह रहे हैं। यह भी आशंका है कि जिस तरह वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है, उसके चलते एशिया के उंचें पहाड़ों पर सदी के अंत तक ग्लेशियल झीलों के फटने से आने वाली बाढ़ का जोखिम तीन गुणा हो सकता है।

इस जोखिम का ऐसा ही एक अन्य उदाहरण पेरू के किसान और पर्वतारोही गाइड सॉल लुसियानो लिउया के मामले में मिलता है जो जर्मनी की दिग्गज ऊर्जा कंपनी आरडब्ल्यूई से कानूनी जंग लड़ रहे हैं।

इतना ही नहीं ग्लेशियरों के पिघलने से हिमपात, हिमस्खलन और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं। 2022 में ऐसी ही एक घटना में इटली के मार्मोलाडा में ग्लेशियर ढहने से 11 लोगों की दुखद मौत हो गई थी। इसी तरह ऑस्ट्रिया सहित यूरोपीय आल्प्स में भी चट्टानों के गिरने की घटनाएं बढ़ रही हैं।

2000 से 2023 के बीच देखें तो पिघलते ग्लेशियरों ने समुद्र के जलस्तर को 18 मिलीमीटर तक बढ़ा दिया है। भले ही आपको देखने में यह आंकड़ा बड़ा न लगे, लेकिन जल स्तर में हर मिलीमीटर की वृद्धि के साथ सालाना 300,000 से ज्यादा लोगों पर बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है।

रिपोर्ट के मुताबिक पिघलते ग्लेशियर एल्बेडो प्रभाव को कम करके जलवायु परिवर्तन को और बदतर बना रहे हैं। गौरतलब है कि बर्फ सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करती है, जिससे ग्रह ठंडा रहता है। लेकिन जब ग्लेशियर पिघलते हैं, तो काली चट्टानें और मिट्टी गर्मी को अवशोषित करने लगती हैं। इससे ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि होती है।

वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट रिपोर्ट 2025 में ग्लेशियरों के पिघलने से मीठे पानी पर पड़ने वाले जोखिम को भी उजागर किया गया है।

पहाड़ी क्षेत्रों की बात करें तो यह धरती के करीब 24 फीसदी (अंटार्कटिका को छोड़कर) हिस्से पर मौजूद हैं। मतलब कि यह करीब 3.3 करोड़ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं। यह दुनिया के करीब 110 करोड़ लोगों का घर हैं। ऐसे में इन पिघलते ग्लेशियरों का सीधा असर इन लोगों के जीवन पर पड़ेगा।

बर्फबारी की जगह बारिश, बदल रहा है पहाड़ों पर जीवन

पहाड़ों से आता यह पानी किसानों के लिए भी बेहद मायने रखता है। रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है उन खेतों का करीब दो-तिहाई हिस्सा पहाड़ों से आते पानी पर निर्भर है। समय के साथ निचले क्षेत्रों में भी पहाड़ों से आते पानी की निर्भरता बढ़ रही है। 1960 के दशक में जहां 60 करोड़ लोग इसपर निर्भर थे। वहीं यह आंकड़ा बढ़कर 200 करोड़ पर पहुंच गया है। यह स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि पहाड़ी स्रोतों से आ रहे पानी पर लोगों की निर्भरता बढ़ रही है।

रिपोर्ट में इस बात को भी उजागर किया गया है कि पर्वतीय क्षेत्रों में अब बर्फबारी की जगह बारिश ले रही है। नतीजन पहाड़ों पर जमा बर्फ तेजी से सिकुड़ रही है। इतना ही नहीं बढ़ते तापमान की वजह से वहां जमा बर्फ समय से पहले ही पिघल रही है।

रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि यह ग्लेशियर 20वीं सदी से पिघल रहे हैं और हाल के दशकों में इनके पिघलने की रफ्तार काफी बढ़ गई है। दुनिया के ज्यादातर पर्वतीय ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं और मौजूदा जलवायु के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं। ऐसे में भले ही ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम हो जाए, लेकिन वे आने वाले समय में भी सिकुड़ते रहेंगे।

रिपोर्ट में यह भी चेताया गया है कि अगर बढ़ता तापमान 1.5 से 4 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है तो सदी के अंत तक यह ग्लेशियर अपनी 41 फीसदी तक बर्फ खो देंगें। वहीं कई ग्लेशियर धरती से पूरी तरह से गायब हो जाएंगे। देखा जाए तो इसकी शुरूआत पहले ही हो चुकी है।

न्यूजीलैंड में तो ग्लेशियर अपनी करीब एक तिहाई बर्फ पहले ही खो चुके हैं। यह भी अनुमान है कि माउंट केन्या और रवेंजोरी पहाड़ों पर मौजूद ग्लेशियर 2030 से पहले और माउंट किलिमंजारो पर 2040 तक गायब हो जाएंगे।

कनाडा के बांफ नेशनल पार्क में स्थित पेटो ग्लेशियर पिछले 50 वर्षों में करीब 70 फीसदी सिकुड़ चुका है। हाल ही में वर्ल्ड ग्लेशियर मॉनिटरिंग सर्विस द्वारा जारी आंकड़ों से पता चला है कि पिछले कुछ वर्षों में इस ग्लेशियर में बर्फ जमने की गति, पिघलने की रफ्तार से काफी कम है। हिमालय में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला है।

हिमालय क्षेत्र में भी तेजी से पिघल रहे हैं ग्लेशियर

हिमालय के तिब्बती पठार और आस-पास की पर्वत श्रृंखलाएं 50 लाख वर्ग किलोमीटर में फैली हैं। इनमें 100,000 वर्ग किलोमीटर में ग्लेशियर हैं। यही वजह है कि इस क्षेत्र को धरती का "तीसरा ध्रुव" या "एशिया का वाटर टॉवर" भी कहा जाता है। अंटार्कटिका और आर्कटिक के बाहर कहीं सबसे ज्यादा बर्फ है तो वो यहीं है।

जर्नल साइंटिफिक रिपोर्टस में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक हिमालय के ग्लेशियर पहले के मुकाबले 10 गुणा ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं। इसके चलते भारत सहित एशिया के कई देशों में जल संकट और गहरा सकता है।

अनुमान है कि जिस तेजी से यह ग्लेशियर पिघल रहे हैं उसके चलते गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी के लिए संकट पैदा हो सकता है। इसके कारण इन नदियों पर निर्भर करोड़ों लोगों की समस्याएं पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा बढ़ जाएंगी। अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर में छपे एक शोध से पता चला है कि दुनिया भर के ग्लेशियरों में जमा बर्फ पहले के मुकाबले 30 फीसदी ज्यादा तेजी से पिघल रही है। हिमालय के ग्लेशियर भी इनसे अलग नहीं है।

इसी तरह राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, श्रीनगर के शोधकर्ताओं ने पीर पंजाल रेंज में 122 ग्लेशियरों की पहचान की है जिनके आकार में 1980 के बाद से उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है। गौरतलब है कि यह ग्लेशियर क्षेत्र जो 1980 में करीब 25.7 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला था, वो 2020 में घटकर महज 15.9 वर्ग किलोमीटर रह गया है।

इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) ने अपनी रिपोर्ट "वाटर, आइस, सोसाइटी एंड इकोसिस्टम्स इन हिंदू कुश हिमालय" में खुलासा किया है कि वैश्विक स्तर पर जिस तरह से तापमान में वृद्धि हो रही है यदि ऐसा ही चलता रहा तो सदी के अंत तक हिंदू कुश हिमालय पर मौजूद ग्लेशियर अपनी 80 फीसदी बर्फ को खो देंगें। इसके भारत सहित दक्षिण एशिया के कई देशों पर जानलेवा प्रभाव पड़ेंगें।

इन ग्लेशियरों को हो रहे नुकसान की दर जो 2000 से 2009 के बीच 0.17 मीटर प्रति वर्ष से बढ़कर 2010 से 2019 के बीच 0.28 मीटर प्रति वर्ष पर पहुंच गई है। मतलब की पिछले दशक की तुलना में 2010 से 2019 के बीच हिंदू कुश हिमालय के ग्लेशियरों में मौजूद बर्फ 65 फीसदी ज्यादा तेजी से पिघल रही है।

ऐसे में न केवल प्रकृति, पारिस्थितिकी तंत्र, बल्कि अर्थव्यवस्था और लोगों की रोजमर्रा की जरूरतों के लिए भी इन ग्लेशियरों को बचाए रखना महत्वपूर्ण है।