एक दशक में गायब हो सकते हैं न्यूजीलैंड के कई ग्लेशियर

वैज्ञानिकों के अनुसार सर्वेक्षण शुरू होने के बाद से दक्षिणी आल्प्स में बर्फ का करीब एक तिहाई हिस्सा गायब हो चुका है
एक दशक में गायब हो सकते हैं न्यूजीलैंड के कई ग्लेशियर
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नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वॉटर एंड एटमॉस्फेरिक रिसर्च (एनआईडब्ल्यूए) के वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि जिस तरह से तापमान में वृद्धि हो रही है उसके चलते अगले एक दशक में न्यूजीलैंड के कई ग्लेशियर गायब हो सकते हैं। इतना ही नहीं वैज्ञानिकों का कहना है कि बढ़ते तापमान के चलते ग्लेशियर कहीं ज्यादा छोटे और पतले होते जा रहे हैं। 

ग्लेशियरों में आते बदलावों को समझने के लिए विक्टोरिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने 50 से भी ज्यादा दक्षिण आइलैंड के ग्लेशियरों का सर्वेक्षण किया है। इस सर्वेक्षण के लिए ग्लेशियरों की हजारों हवाई तस्वीरों की मदद ली गई है। इनमें से कुछ तस्वीरों को 3डी मॉडल के निर्माण में भी उपयोग किया गया है, जिससे बर्फ की मात्रा में आने वाले परिवर्तन किया जा सके। 

गौरतलब है कि हर साल एनआईडब्ल्यूए निगरानी कार्यक्रम न्यूजीलैंड में कई हिमनदों और हिमरेखा की ऊंचाई का मूल्यांकन करता है ताकि यह पता चल सके कि पिछली सर्दियों की कितनी बर्फ इन ग्लेशियरों में बची है। 1977 में जब से एनआईडब्ल्यूए हिमनदों की निगरानी कर रहा है तब से अब तक वैश्विक तापमान में करीब 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है जिसका असर इन ग्लेशियरों पर भी पड़ रहा है। 

देखा जाए तो ग्लेशियरों की हिमरेखा की ऊंचाई जिसे संतुलन रेखा ऊंचाई (ईएलए) भी कहा जाता है। ग्लेशियरों की स्थिति जानने में मददगार होती है। यदि ग्लेशियर का आकार घट जाता है तो इस रेखा की ऊंचाई अधिक होती है। जिसका मतलब है कि सर्दियों में गिरी बर्फ ग्लेशियर में कम रह गई है। वहीं इसके विपरीत यदि ईएलए कम होती है तो उसका मतलब है कि सर्दियों की अधिक बर्फ शेष है।   

एनआईडब्ल्यूए के एक प्रमुख वैज्ञानिक डॉ एंड्रयू लॉरे ने बताया कि हमें अंदेशा था कि गर्म मौसम के चलते ईएलए की ऊंचाई अधिक होगी और अध्ययन में भी यही सामने आया है। उनके अनुसार कुछ हिमनदों जैसे ब्रूस्टर में ईएलए 2016 के स्तर के बराबर थी, जो उन पांच वर्षों में से एक था जब यह रेखा इतनी ऊंची गई थी। इसी तरह वोल्टा ग्लेशियर की निचली परतों के दिखने का मतलब है कि वहां ज्यादा बर्फ पिघली है। 

वहीं विक्टोरिया यूनिवर्सिटी ऑफ वेलिंगटन से जुड़े डॉ लॉरेन वर्गो का कहना है कि हम जो ग्लेशियर का पीछे हटना देख रहे हैं, वह पिछले एक दशक में न्यूजीलैंड के अधिकांश ग्लेशियरों के बड़े पैमाने पर खोने के कारण है।

उनके अनुसार सर्वे से पता चला है कि अधिकांश ग्लेशियरों में स्नोलाइन कहीं ज्यादा ऊंची थी जिसका मतलब है कि उन ग्लेशियरों ने बर्फ की कहीं ज्यादा मात्रा को खो दिया है। उनके अनुसार अधिक चौंकाने वाली बात यह थी कि पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा ग्लेशियर छोटे और पतले हो गए हैं। 

इतना ही वैज्ञानिकों के अनुसार सर्वेक्षण शुरू होने के बाद से दक्षिणी आल्प्स में बर्फ का करीब एक तिहाई हिस्सा गायब हो चुका है। 

न्यूजीलैंड ही नहीं पूरी दुनिया में तेजी से पिघल रहे हैं ग्लेशियर

ऐसा नहीं है कि ग्लेशियरों के पिघलने की यह घटनाएं न्यूजीलैंड में ही घट रही है। लीड्स विश्वविद्यालय द्वारा हिमालयों के ग्लेशियर पर किए एक अध्ययन से पता चला है कि वहां ग्लेशियर पहले के मुकाबले असाधारण तौर पर 10 गुना ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं। वहीं हाल ही में जर्नल नेचर में प्रकाशित एक अन्य शोध से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर ग्लेशियर में जमा बर्फ पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा तेजी से पिघल रही है।

गौरतलब है कि जहां 2000 से 2019 के बीच दुनिया भर के ग्लेशियरों से प्रति वर्ष औसतन 26,700 करोड़ टन बर्फ पिघल रही थी, वो 2015 से 2019 के बीच रिकॉर्ड 29,800 करोड़ टन प्रतिवर्ष पर पहुंच गई थी। इसका मतलब है कि इस दौरान बर्फ के पिघलने की रफ्तार में 31.3 फीसदी की वृद्धि आई है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 1994 से 2017 के बीच ग्लेशियरों से करीब 28 लाख करोड़ टन बर्फ पिघल चुकी है| 

वैज्ञानिकों के अनुसार इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस तरह से यह ग्लेशियर पिघल रहे हैं उसके लिए जलवायु परिवर्तन ही जिम्मेवार है। यदि ऐसा चलता रहा तो अलगे एक दशक में इनमें से कई ग्लेशियर गायब हो जाएंगे।

इसका सीधा असर न केवल पर्यटन बल्कि लोगों की जीविका पर भी पड़ेगा। वहीं जिस तरह से यह पिघल रहे हैं उसके कारण साफ पानी की कमी भी पैदा हो सकती है। से में यह जरुरी है कि जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए तत्काल कदम उठाए जाने चाहिए, क्योंकि जैसे-जैसे समय बीत रहा है प्रभाव कहीं ज्यादा महंगे और बचने के उपाय मुश्किल होते जा रहे हैं।     

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