उत्तराखंड: भीषण गर्मी से तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर, अलकनंदा का जलस्तर बढ़ा

बारिश न होने और भीषण गर्मी के कारण उत्तराखंड में जंगल जल रहे हैं, जिनकी वजह से ब्लैक कार्बन ग्लेशियरों तक पहुंच रहा है
 बद्रीनाथ धाम के नीचे से बह रही अलकनंदा का जलस्तर समय पूर्व बढ़ गया है। फोटो: राजेश डोबरियाल
बद्रीनाथ धाम के नीचे से बह रही अलकनंदा का जलस्तर समय पूर्व बढ़ गया है। फोटो: राजेश डोबरियाल
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उत्तराखंड में इस साल गर्मी रिकॉर्ड तोड़ने के करीब है। बुधवार, 29 मई, को देहरादून में पारा 43 डिग्री तक पहुंच गया, जो बीते दस साल में मई के सबसे गर्म दिन से सिर्फ़़ 0.1 डिग्री कम था। हालात यह हैं कि ग्लेशियर गलने की गति बढ़ने से अलकनंदा नदी में पानी इतना बढ़ गया कि रिवर फ़्रंट के काम रोकने पड़े।

वहीं, बारिश के अभाव में राज्य के जंगलों का जलना जारी है और वनाग्नि से होने वाले प्रदूषण की वजह से ग्लेशियरों पर ब्लैक कार्बन जम रहा है। 

मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार देहरादून में मई माह में 8 दिन ऐसे रहे, जिनमें पारा 40 डिग्री या उससे अधिक रहा। इस तरह यह मई पिछले 10 साल की सबसे गर्म मई बन गई है, इससे पहले 2018 के मई माह में 4 दिन 40  डिग्री सेल्सियस या उससे ज्यादा गर्म रहे थे।

बता दें कि मौसम विभाग के अनुसार अगर मैदानी इलाक में पारा 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने और इसके सामान्य से 4.5 डिग्री अधिक होने पर हीट वेव या लू वाला दिन माना जाता है। अगर यह अंतर 6.5 डिग्री से ज्यादा हो जाए तो उसे लू का गंभीर प्रकोप या सिविअर हीट वेव कहा जाता है।

पहाड़ों में यह हद 30 डिग्री सेल्सियस और तटीय क्षेत्रों में 37 डिग्री सेल्सियस की होती है।

मौसम विभाग के देहरादून केंद्र के निदेशक विक्रम सिंह कहते हैं कि भले ही गर्मी का रिकॉर्ड न टूटा हो, लेकिन गर्मी लगातार बनी हुई है, क्योंकि पारा उतर ही नहीं रहा। आमतौर पर मई में बारिश हो जाती थी और फिर चढ़ने से पहले पारा कुछ लुढ़क जाता था, लेकिन इस बार पूरा अप्रैल और मई महीने में बारिश न होने की वजह से इतने ज्यादा दिन गर्म रहे हैं

गर्मी और वनाग्नि का रिश्ता

मौसम विभाग ने 30 मई को तापमान को लेकर पूर्वानुमान जारी किया. इसमें कहा गया है कि उत्तराखंड में कई जगहों पर तापमान सामान्य से 5 से 7 डिग्री अधिक रहा है। गढ़वाल-कुमाऊं दोनों जगह कई जगह हीट वेव दर्ज हुई है और गढ़वाल में तो सिविअर हीट वेव भी दर्ज की गई है।

कहा गया है कि 31 को भी की जगह हीट वेव दर्ज और सिविअर हीट वेव का सामना करना पड़ेगा। इसके अलावा मैदानी क्षेत्रों में रातें भी गर्म और बहुत गर्म (वॉर्म एंड सिविअर वॉर्म) होंगी। 

इसमें चेतावनी दी गई है कि अधिकतम तापमान और हीट वेव चलने की वजह से अगले 24 घंटे में टिहरी, पौड़ी, देहरादून और नैनीताल जिलों में कई जगह पर जंगलों में आग के लगने और उसके भड़कने की आशंका है। हीट वेव से वनस्पतियों और फसलों पर भी असर पड़ने की आशंका जताई गई है। 

क्या वनाग्नि की वजह से भी गर्मी ज्यादा होती है? जवाब में विक्रम सिंह कहते हैं कि हीट वेव की वजह से जंगलों में आग भड़कती है, यह तो तय है, लेकिन वनाग्नि की वजह से हीट वेव पैदा होने का कोई सबूत नहीं है। हालांकि जिस क्षेत्र में जंगल में आग लगेगी, वह स्वाभाविक रूप से गर्म होगा और अंततः इससे होने वाला प्रदूषण जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा ही देगा लेकिन वनाग्नि और हीट वेव का सीधा रिश्ता अभी तक साबित नहीं हुआ है।

जंगलों की आग और ग्लेशियरों का पिघलना

ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से अलकनंदा नदी का स्तर समय से पहले ही बढ़ गया है और इसकी वजह से बदरीनाथ में चल रहा रिवर फ्रंट का काम रोकना पड़ा है।

चमोली के अतिरिक्त जिला सूचना अधिकारी रविंद्र नेगी ने बताया कि दस दिन पहले से अलकनंदा नदी का जलस्तर एक फुट तक बढ़ा हुआ है और इसकी वजह रिवर फ्रंट का काम प्रभावित हुआ है। इससे बदरीनाथ धाम में यात्रा पर कोई असर नहीं पड़ा है। हालांकि उन्होंने माना कि इस बार अलकनंदा का जलस्तर समय से पहले ही बढ़ गया है।

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी में ग्लेशियरोलॉजी विभाग के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर मनीष मेहता कहते हैं कि मई के अंत और जून की शुरुआत में ग्लेशियर पिघलते ही हैं। इस बार की तरह अगर बर्फबारी देर से (मार्च-अप्रैल) में होती है तो ग्लेशियर तेजी से पिघलते हैं, क्योंकि उन पर पड़ी बर्फ (स्नो) ठीक से जम नहीं पाई होती (आइस नहीं बनी होती)। दिसंबर-जनवरी में पड़ी बर्फ धीरे-धीरे पिघलती है।

वनाग्नि के ग्लेशियरों के गलने पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में डॉक्टर मेहता कहते हैं कि जंगलों के जलने से कितना प्रदूषण होता है और कितना ब्लैक कार्बन ग्लेशियर्स पर जम रहा है इसे लेकर अभी कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि यह सही है कि ब्लैक कार्बन की वजह से बर्फ जल्दी पिघल जाती है और उससे ग्लेशियर का कवर हट जाता है।

इसका असर यह होता है कि अगर ग्लेशियर का पिघलना आमतौर पर मई-जून में शुरू होता है तो वह इस ब्लैक कार्बन की वजह से जल्दी शुरू हो जाता है। हालांकि अभी इसका डाटा उपलब्ध नहीं है कि इससे कितना फर्क पड़ता है।

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