हवा में जहर की फिक्र किसे?

उत्तर भारत खासकर दिल्ली और उसके आसपास प्रदूषण का स्तर बेहद खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। पीएम 2.5 का स्तर आपातकालीन श्रेणी में है। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत बुरा है।
सोरित / सीएसई
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दिल्ली में वायु प्रदूषण किस हद तक गंभीर हो चुका है, इसकी बानगी गोवा जैसी जगह के लिए आसमान छूती हवाई टिकट के दाम के रूप में देखी जा सकती है। ये ऊंचे दाम दिल्ली से पिंड छुड़ाने के लिए है। इसके बाद पता चलता है कि वायु प्रदूषण के कारण अमेरिका के युनाइटेड एयरलाइंस ने दिल्ली की उड़ानें रोक दी हैं। इससे पहले वो दिल्ली आने वाले यात्रियों को मास्क वितरित कर रही थी। ये सब तब हो रहा है जब अमेरिका अपने पेट्रोलियम उद्योग का जहरीला कचरा वैश्विक बाजार में खपाने में व्यस्त है और भारत में हम उसे खरीद रहे हैं। यह शर्मनाक है।

यह तथ्य है कि उत्तर भारत खासकर दिल्ली और उसके आसपास प्रदूषण का स्तर बेहद खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। पीएम 2.5 का स्तर आपातकालीन श्रेणी में है। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत बुरा है। इसके कई कारण हैं। विषम चक्रवाती परिस्थितियों के कारण कुवैत, सउदी अरब, ईराक से हवा बहकर आती है। इसके साथ ही पाकिस्तान, पंजाब और हरियाणा में पराली में आग लगाने के बाद उसके अवशेष हवा में आ जाते हैं। पूर्व से आने वाली नम हवाओं से इनका टकराव दिल्ली में हो जाता है।

जमीन पर स्थिति स्थिर थी। इसलिए हमारे ऊपर प्रदूषण का बादल मंडराने लगा। हमें घुटन होने लगी। हवा चलेगी और संकट खत्म हो जाएगा। समस्या यह है कि उत्सर्जन के कारणों को कम करने के लिए हमने कुछ नहीं किया है।

प्रदूषण का स्तर बढ़ने के बावजूद मीडिया में राजनीतिक नौटंकी चालू रही। मुझे नहीं पता कि अभी दिल्ली में क्या बुरा है। जहरीली हवा जो हमें मार रही है या हर बार स्मॉग पर होने वाला राजनीतिक ड्रामा जो इसी में उलझा रहता है किसे दोष दिया जाए और शीघ्र समाधान के लिए कौन सी लुभावनी घोषणा की जाए। लगभग यह हर बार देखा गया है कि सभी बढ़ते प्रदूषण के प्रकरण से मुहब्बत करते हैं।

समस्या यह है कि हम समाधान नहीं चाहते। इससे किसी के हितों को नुकसान पहुंचेगा। हम चाहते हैं कि बिना कुछ करे समस्या अपने आप खत्म हो जाए। हम जानते हैं कि वायु प्रदूषण की क्या वजहें हैं। वाहन, उद्योगों में पेट कोक का इस्तेमाल, फर्नेस तेल और कोयला, कूड़े को जलाना, सड़कों की धूल, निर्माण गतिविधियां और वे किसान जो सीमित विकल्पों के कारण फसलों के अवशेष जलाते हैं। इस नाट्यशाला में हम भूल जाते हैं कि हर समाधान का सुझाव मौजूद है।

वाहनों के ईंधन और तकनीक में सुधार के लिए बीएस 6 है। इसके मानक उत्सर्जन कम करेंगे। वाहन निर्माता वर्षों तक मानते रहे कि 2020 से पहले यह तकनीक मुमकिन नहीं है। सरकार ने उनका पक्ष लिया और पहले 2028 और फिर 2025 को बदलाव का वक्त तय किया। इस साल अप्रैल में वाहनों को जब बीएस 4 मानकों पर स्थानांतरित करना था तब भी ऐसी ही रस्साकसी देखी गई। ये घर के ड्रॉइंग रूम में होने वाली बहसें नहीं हैं। कंपनियों ने अधिक प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों का स्टॉक जमा कर लिया था और इन्हें खपाने के लिए वे और वक्त की मांग कर रही थीं। उनकी दलील है कि नए वाहन समस्या नहीं है। “हम समस्या का केवल एक प्रतिशत हिस्सा हैं।”

अब यह दुनियाभर में माना जा रहा है कि डीजल एक विशेष समस्या है। इससे चलने वाले वाहन पेट्रोल से ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं और इसका उत्सर्जन कैंसरकारी है। इसलिए डीजल के भरोसे रहना चिंताजनक है। लेकिन लॉबी बेहद शक्तिशाली है। कंपनियां डीजल और पेट्रोल के अंतर को भुनाकर लाभ कमाती हैं। उपभोक्ता के तौर पर हम बड़ी एसयूवी को पसंद करते हैं जो सस्ते ईंधन पर चलती है। हम सब अपराध में भागीदार हैं। इस पर विचार करने पर उत्तर मिलता है, “हम समस्या का केवल एक प्रतिशत हैं।”

समस्या यह है कि वाहनों को स्वच्छ रखने के लिए आप जो कुछ कर सकते हैं, अगर उसमें कल की चिंता नहीं करेंगे तो समाधान नहीं निकल पाएगा। ऐसी स्थिति में दो नीतियां रहेंगी। पहली, सार्वजनिक परिवहन और दूसरी वाहन चलाने की लागत अधिक करने के लिए कर और पार्किंग के दाम बढ़ाने पर केंद्रित होगी। यह बात पहले मुर्गी आई या अंडा जैसी पुरानी कहावत की तरह होगी। एक पर कार्रवाई का मतलब है किसी पर कार्रवाई न करना। लोगों में गुस्सा तो है लेकिन जवाबदेही किसी की नहीं है।

यहां ऐसे बिजली संयंत्र हैं जो कोयले से चलते हैं और ऐसा तंत्र भी है जो पुराने संयंत्रों से सस्ती बिजली उत्पन्न कर सकता है। लेकिन अगर बदलाव की मांग करो तो आपसे कहा जाएगा कि दूर रहें। देश के आर्थिक विकास के लिए यह जरूरी है। अगर व्यक्तिगत तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे जेनरेटर को प्रतिबंधित करने की मांग करो तो आपसे कहा जाएगा कि अकेले हम ही क्यों, “हम तो केवल एक प्रतिशत हैं।”

आप कहेंगे कि दुनिया के सबसे गंदे ईंधन पेट कोक का आयात रुकना चाहिए। दलील देंगे कि चीन और अमेरिका जैसे देशों ने इसका इस्तेमाल प्रतिबंधित कर दिया है और इसे हमारे यहां खपा रहे हैं। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय इसका यह कहकर विरोध करेगा कि यह तो “केवल एक प्रतिशत है।” वह यह नहीं बताएगा कि इसे लागू करने के लिए उसका तंत्र कितना कमजोर है।

जिस एक मुद्दे पर सब सहमत होंगे, वह है कि पंजाब और हरियाणा के किसानों को जिम्मेदार ठहराया जाए। हमारे मुख्यमंत्री भी कहते हैं वे जिम्मेदार हैं और अपने समकक्षों से राजनीतिक भिड़ंत करने लगते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि किसान पराली न जलाएं, इस समस्या से निपटने के लिए विकल्प मौजूद हैं।

रणनीति यह है कि अगर किसी पर चिल्लाने या पत्थर चलाने से बचा जा सकता है तो कुछ क्यों किया जाए। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम मानते हैं कि प्रदूषण से जंग टीवी पर बहसों से जीती जा सकती है। हवा में घुले जहर को नजरअंदाज करने वाले सभी इस स्थिति के दोषी हैं।

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