सांसों का आपातकाल: ग्रामीण भारत में वायु प्रदूषण का संकट, जीवन प्रत्याशा में गिरावट

सीएसई की नई किताब "सांसों का आपातकाल" के पहले अध्याय में ग्रामीण भारत में बढ़ते वायु प्रदूषण से खड़ी हो रही समस्याओं का विश्लेषण किया गया है
फाइल फोटो : सीएसई
फाइल फोटो : सीएसई
Published on
सारांश
  • भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में वायु प्रदूषण का स्तर शहरी क्षेत्रों के समान खतरनाक हो गया है

  • 2022 में ग्रामीण भारत में पीएम 2.5 का स्तर 46.4 माइक्रोग्राम था, जो शहरी स्तर से थोड़ा ही कम था

  • वायु प्रदूषण के कारण ग्रामीण लोगों की जीवन प्रत्याशा में अधिक गिरावट आई है

भारत के ग्रामीण इलाकों में भी वायु प्रदूषण का स्तर खतरनाक रूप से बढ़ रहा है। गैर-लाभकारी संगठन क्लाइमेट ट्रेंड्स ने आईआईटी-दिल्ली के वैज्ञानिकों द्वारा तैयार सैटेलाइट डेटा का विश्लेषण किया, जिसमें कई चौंकाने वाले तथ्यों का पता चला। इस विश्लेषण के अनुसार, साल 2022 में सबसे जहरीले वायु प्रदूषक अल्ट्राफाइन पार्टिकुलेट मैटर पीएम 2.5 का वार्षिक औसत ग्रामीण भारत में उतना ही खराब था जितना शहरी भारत में। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के एक अन्य विश्लेषण के अनुसार, वायु प्रदूषण के कारण ग्रामीण लोगों की जीवन प्रत्याशा में शहरी लोगों की तुलना में अधिक गिरावट आई है। यानी शहर के लोगों की तुलना में गांवों में रहने वालों को प्रदूषण का ज्यादा बुरा असर पड़ रहा है।

क्लाइमेट ट्रेंड्स के विश्लेषण के अनुसार, 2022 में ग्रामीण भारत में पीएम 2.5 का औसत वार्षिक स्तर 46.4 माइक्रोग्राम था, यह शहरी भारत के पीएम 2.5 स्तर 46.8 माइक्रोग्राम से थोड़ा ही कम था (राष्ट्रीय स्तर पर यह लिमिट 40 माइक्रोग्राम है।) क्लाइमेट ट्रेंड्स रिपोर्ट से पता चलता है कि 2017 से अब तक भारत के ग्रामीण और शहरी इलाकों में पीएम 2.5 का प्रदूषण स्तर लगभग बराबर ही रहा है, दोनों के आंकड़ों के बीच शायद ही कोई अंतर हो।

बोस इंस्टीट्यूट के अभिजीत चटर्जी ने 2023 में अपना शोध पत्र में प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था, “अ डीप इनसाइट इनटू स्टेट-लेवल एरोसोल पॉल्यूशन इन इंडिया: लॉन्ग-टर्म (2005-2019) कैरेक्टरिस्टिक्स, सोर्स अपॉर्शनमेंट, एंड फ्यूचर प्रोजेक्शन (2023)।” अभिजीत ने इस शोध पत्र में लिखा, “भारत के ग्रामीण इलाकों पर ध्यान दिए बिना हाल के दशक में देश में वायु प्रदूषण की समस्या हल नहीं की जा सकती।” भारत में 47 प्रतिशत आबादी वायु गुणवत्ता निगरानी नेटवर्क से बाहर रहती है और 62 प्रतिशत लोगों को स्थानीय वायु गुणवत्ता सूचकांक से जुड़े रोजाना के अलर्ट मिल ही नहीं पाते। पूरा ग्रामीण भारत वायु प्रदूषण नेटवर्क के दायरे से बाहर है। सीएसई के एक विश्लेषण से पहले पता चलता है कि वायु प्रदूषण के कारण भारत के गांवों में रहने वालों की उम्र 5 साल और 2 महीने घट गई, जबकि शहर के लोगों की जिंदगी औसतन 4 साल, 5 महीने कम हो गई। कुछ राज्यों में हालात और भी गंभीर हैं। प्रदूषण के कारण उत्तर प्रदेश के ग्रामीणों की जिंदगी के 8 से ज्यादा साल कम हो रहे हैं। वहीं, बिहार और हरियाणा में ग्रामीण लोग औसतन 7 साल से अधिक की उम्र गंवा रहे हैं।

भारत में वायु प्रदूषण की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2018 से 2021 के बीच, भारत में सबसे ज्यादा मानवजनित वायु प्रदूषण दर्ज किया गया। यहां तक कि कोविड-19 महामारी के तीन चरणों (पूर्व, दौरान और बाद) में जब भारत में लॉकडाउन लगने से आवाजाही और आर्थिक गतिविधियां बहुत कम हो गई थीं, तब भी कोई खास राहत नहीं मिली। 17 मई, 2023 को नेचर जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में इन तथ्यों का उल्लेख किया गया है। इस अध्ययन के मुताबिक, इस अवधि में भारत में वायु प्रदूषण बढ़ने के प्रमुख कारण परिवहन का विकास, औद्योगिक पावर प्लांट्स का विस्तार, हरित क्षेत्रों की कमी और अव्यवस्थित शहरीकरण था।

यह शोध बिजय हलदर, इमान अहमदियानफार, सलीम हेड्डम, जैनब हैदर मुसा और लियोनार्डो गोलिएथ ने किया। उन्होंने सेंटिनल-5पी सैटेलाइट और गूगल अर्थ इंजन (जीईई) का उपयोग करके मशीन लर्निंग आधारित देश स्तरीय सालाना वायु प्रदूषण की निगरानी की। सेंटिनल-5पी ने 2018 से 2021 तक वायुमंडल में वायु प्रदूषकों और रासायनिक स्थितियों की निगरानी की। क्लाउड कंप्यूटिंग-आधारित जीईई प्लेटफॉर्म का उपयोग वायुमंडल में वायु प्रदूषकों और रासायनिक घटकों का विश्लेषण करने के लिए किया गया। 2020 और 2021 में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) में भारी उतार-चढ़ाव देखा गया, जबकि 2018 और 2019 में पूरे साल एक्यूआई अपेक्षाकृत कम रहा। अध्ययन अवधि के दौरान दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, पुणे और चेन्नई में वायु प्रदूषण के मामले में भारी उतार-चढ़ाव दर्ज किया गया।

भारत की हवा में सिर्फ पार्टिकुलेट मैटर ही प्रदूषण नहीं फैला रहे हैं, बल्कि दूसरी वजहें भी यह खतरा बढ़ा रही हैं। सीएसई के एक अध्ययन में एक परेशान करने वाला ट्रेंड सामने आया है कि भारत के प्रमुख शहरों में ग्राउंड-लेवल ओजोन प्रदूषण बढ़ रहा है। यह गैस अदृश्य होती है और कुख्यात हो चुके पार्टिकुलेट मैटर की तुलना में सेहत के लिए ज्यादा खतरनाक होती है। खासकर सांस की बीमारियों से जूझ रहे लोगों के लिए यह स्वास्थ्य से संबंधित गंभीर परेशानियों की वजह बनती है। ग्राउंड-लेवल ओजोन किसी स्रोत से सीधे नहीं निकलती। यह तब बनती है जब वाहनों, फैक्ट्रियों, पावर प्लांट्स और अन्य दहन स्रोतों से नाइट्रोजन ऑक्साइड्स (एनओएक्स) और वोलाटाइल ऑर्गैनिक कंपाउंड्स निकलते हैं और सूरज की रोशनी में आपस में रासायनिक क्रियाएं करते हैं। वोलाटाइल ऑर्गैनिक कंपाउंड्स (वीओसी) कुछ प्राकृतिक स्रोतों, जैसे पेड़-पौधों से भी निकलते हैं। यह गैस सांस की बीमारियों जैसे अस्थमा, फेफड़ों की पुरानी बीमारियों से जूझ रहे लोग, समय से पहले जन्मे बच्चों के फेफड़े और बुजुर्ग व्यक्तियों के लिए बहुत ज्यादा खतरनाक है। यह गैस श्वास नलियों में सूजन की वजह बन सकती है, उन्हें नुकसान पहुंचा सकती है, फेफड़ों को संक्रमण के प्रति संवेदनशील बना सकती है, दमा, ब्रोंकाइटिस, एम्फायसेमा को बिगाड़ सकती है, दमा के दौरे बढ़ा सकती है, जिससे बार-बार अस्पताल में भर्ती होना पड़ सकता है।

सीएसई की रिपोर्ट, “एयर क्वालिटी ट्रैकर: एन इनविजिबल थ्रेट” में भारत के कई मेट्रो शहरों का विश्लेषण किया गया। इन शहरों में बेंगलुरु (कर्नाटक), चेन्नई (तमिलनाडु), कोलकाता (पश्चिम बंगाल), मुंबई और पुणे (महाराष्ट्र) के महानगरीय क्षेत्र शामिल हैं। इसमें दिल्ली-एनसीआर, ग्रेटर अहमदाबाद (गुजरात), ग्रेटर हैदराबाद (तेलंगाना), ग्रेटर जयपुर (राजस्थान) और ग्रेटर लखनऊ (उत्तर प्रदेश) के आंकड़ों को भी देखा गया। इन सभी क्षेत्रों में ओजोन प्रदूषण स्तर राष्ट्रीय मानक से ज्यादा पाया गया। रिपोर्ट में दिल्ली सबसे ज्यादा प्रभावित शहर पाया गया। रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि अहमदाबाद और पुणे जैसे छोटे शहरों में ओजोन प्रदूषण बहुत तेजी से बढ़ रहा है।

2024 में अप्रैल से जुलाई के बीच दिल्ली-एनसीआर में 176 दिन ग्राउंड-लेवल ओजोन प्रदूषण का अधिकतम स्तर दर्ज किया गया, जो 10 मेट्रो शहरों में सबसे ज्यादा था। सीएसई शोधकर्ताओं ने 2020 से 2024 तक के 1 अप्रैल से 18 जुलाई के बीच के डेटा को ट्रैक किया। 5 साल की अवधि का यह विश्लेषण केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के विस्तृत और रियल टाइम डेटा (औसतन 15 मिनट के ) पर आधारित है। मुंबई और पुणे दोनों शहरों में 138 दिन तक प्रदूषण स्तर बहुत ज्यादा रहा। इसके बाद जयपुर में 126 दिन और हैदराबाद में 86 दिन तक लोग प्रदूषण से बेहाल रहे। कोलकाता में 63 दिन, बेंगलुरु में 59 दिन, लखनऊ में 49 दिन और अहमदाबाद में 41 दिन प्रदूषण स्तर अधिक दर्ज हुआ। चेन्नई में सबसे कम सिर्फ 9 दिन प्रदूषण स्तर चरम पर पहुंचा। 2024 (जुलाई) में अत्यधिक प्रदूषण स्तर वाले दिनों की तुलना पिछले साल की उसी अवधि से करने पर पाया गया कि अध्ययन में शामिल 10 में से 7 मेट्रो शहरों में अत्यधिक प्रदूषण वाले दिनों में बढ़ोतरी हुई है। यह बढ़ोतरी छोटे मेट्रो शहरों में सबसे ज्यादा पाई गई। अहमदाबाद में अत्यधिक प्रदूषण वाले दिनों में 4,000 प्रतिशत की वृद्धि हुई, पुणे में 500 प्रतिशत और जयपुर में 152 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। मुंबई-एमएमआर और बेंगलुरू में क्रमशः 18 प्रतिशत और 1 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। दिल्ली-एनसीआर और लखनऊ में 5 प्रतिशत से कम बदलाव देखा गया। वहीं, कोलकाता-केएमए और चेन्नई में सीमा से अधिक प्रदूषण वाले दिनों की संख्या में कमी आई। कोलकाता में 19 प्रतिशत और चेन्नई में 40 प्रतिशत की कमी दर्ज हुई।

उम्मीदों के विपरीत, रात में भी ओजोन का स्तर बढ़ा पाया गया। मुंबई में रात के वक्त ओजोन के स्तर में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी दर्ज की गई। शोधकर्ताओं ने पाया कि अधिकतर शहरों में लोग 12 से 15 घंटे तक ओजोन के संपर्क में रहते हैं। यह अवधि गंभीर चिंता का विषय है। विडंबना यह है कि उच्चवर्गीय और हरित क्षेत्र, जहां दूसरे प्रदूषकों का स्तर कम होता है, वे ओजोन के निर्माण के लिए अधिक संवेदनशील हैं। गर्मी के मौसम में ओजोन का स्तर चरम पर रहता है, लेकिन यह समस्या कई क्षेत्रों में साल भर बनी रहती है। विशेष रूप से अधिक धूप वाले दक्षिणी शहरों में यह समस्या पूरे वर्ष देखने को मिलती है। अन्य प्रदूषकों के कम स्तर वाले उच्च-स्तरीय और हरे-भरे पड़ोस विडंबना यह है कि ओजोन के निर्माण के लिए अधिक संवेदनशील हैं। जबकि गर्मी ओजोन के लिए चरम मौसम है, यह समस्या कई क्षेत्रों में साल भर बनी रहती है, खासकर धूप वाले दक्षिणी शहरों में।

ओजोन गैस केवल मेट्रो शहरों तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि यह सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर दूसरे इलाकों तक पहुंच सकती है और प्रदूषण बढ़ा देती है। ऐसे में इसके समाधान के लिए क्षेत्रीय और स्थानीय, दोनों स्तरों पर कदम उठाने जरूरी हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, फिलहाल निगरानी की व्यवस्था अपर्याप्त है, डेटा सीमित है और रुझानों के विश्लेषण की विधियां भी प्रभावी नहीं हैं। इस वजह से बढ़ते सार्वजनिक स्वास्थ्य के खतरे को पूरी तरह से समझ पाना मुश्किल हो रहा है।

ग्राउंड-लेवल ओजोन की रासायनिक प्रक्रिया बहुत जटिल होती है। इसे ट्रैक करना और नियंत्रित करना कठिन है। इसके अत्यधिक विषैले प्रभावों के कारण भारत में ओजोन के लिए वायु गुणवत्ता मानक केवल अल्पकालिक संपर्क के आधार पर तय किए गए हैं। ये मानक एक घंटे और आठ घंटे की औसत अवधि पर आधारित हैं। इसका मूल्यांकन इस आधार पर किया जाता है कि कितने दिनों में यह मानक पार हो जाता है। शोधकर्ताओं ने इस बात पर जोर दिया है कि जोखिम कम करने के लिए समय रहते कदम उठाने बहुत जरूरी हैं।

25 अप्रैल, 2023 को जर्नल ईलाइफ में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, घर के अंदर का वायु प्रदूषण भी एक गंभीर और लगातार बनी रहने वाली समस्या है। भारत में खराब इनडोर एयर क्वालिटी 2 साल से छोटे बच्चों के मस्तिष्क विकास को प्रभावित कर सकती है। यही वह उम्र होती है, जब मस्तिष्क का विकास सबसे तेज होता है। यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया (यूईएस) के शोधकर्ताओं के इस अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि मस्तिष्क पर पड़ा यह दुष्प्रभाव बच्चे के पूरे जीवन पर गहरा प्रभाव डाल सकता है। घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह खाना पकाने में इस्तेमाल होने वाले ईंधन होते हैं। शोधकर्ताओं ने भारत के ग्रामीण इलाकों में स्थित घरों से हवा की गुणवत्ता का डेटा एकत्रित किया। इस दौरान उन्होंने पीएम 2.5 स्तर को खासतौर पर ध्यान में रखा। पीएम 2.5 वे सूक्ष्म कण होते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक माने जाते हैं। यह पहली रिसर्च है, जिसने दो साल से कम उम्र के शिशुओं में खराब वायु गुणवत्ता और मस्तिष्क संबंधी समस्याओं के बीच संबंध स्थापित किया है। यूईए के स्कूल ऑफ साइकोलॉजी से प्रमुख शोधकर्ता जॉन स्पेंसर ने कहा, “इससे पहले हुए अध्ययनों में भी यह पाया गया है कि खराब वायु गुणवत्ता से बच्चों में मानसिक, भावनात्मक और व्यवहारिक समस्याएं हो सकती हैं, जिनका पूरे परिवार पर बहुत बुरा असर पड़ता है।”

शोधकर्ताओं ने उत्तर प्रदेश स्थित शिवगढ़ गांव में विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि वाले परिवारों के साथ काम किया। उन्होंने पाया कि जिन घरों में ठोस ईंधन जैसे गोबर के कंडे इस्तेमाल होते हैं, वहां घर के भीतर वायु गुणवत्ता बहुत खराब थी। ऐसे घरों में 6 और 9 महीने की उम्र में भी बच्चों का विजुअल मेमोरी स्कोर कम मिला। 6 से 21 महीने की उम्र के बीच उनकी विजुअल प्रोसेसिंग स्पीड भी धीमी पाई गई। स्पेंसर ने कहा कि हवा में मौजूद बेहद सूक्ष्म कण चिंता का मुख्य कारण हैं, क्योंकि ये कण फेफड़ों के जरिए मस्तिष्क तक पहुंच सकते हैं।

“स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2019” रिपोर्ट के अनुसार, भारत ठोस ईंधनों (लकड़ी, गोबर, बायोमास) पर खाना पकाने वाले घरों की संख्या में कुछ हद तक कमी लाने में सफल रहा है। 2005 में 76 प्रतिशत घरों में ठोस ईंधन का इस्तेमाल किया जाता था, जो 2017 में घटकर 60 प्रतिशत पर आ गया। ठोस ईंधन के इस्तेमाल में यह कमी तरल पेट्रोलियम गैस यानी एलपीजी की उपलब्धता में सुधार होने की वजह से आई है।

हालांकि, निम्न आय वर्ग के बहुत से परिवार अभी भी ठोस ईंधन पर निर्भर हैं। इनसे होने वाला प्रदूषण नवजात शिशुओं पर सबसे बुरा असर डालता है। नवजात बच्चों में पीएम 2.5 से जुड़ी बीमारियों के दो-तिहाई मामलों का कारण अब भी घर में होने वाला वायु प्रदूषण है। भारत में वायु प्रदूषण के स्तर पर लैंगिक असमानता भी है। निचले आय वर्ग, विशेषकर शहरों की झुग्गी बस्तियों में रहने वाली महिलाएं पारंपरिक चूल्हों पर खाना बनाती हैं, जहां वेंटिलेशन की व्यवस्था बदतर होती है।

ये चूल्हे बायोमास से जलते हैं और कार्बन मोनोऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन और सूक्ष्म कण (पीएम2.5) जैसे खतरनाक प्रदूषक छोड़ते हैं। पीएम 2.5 से होने वाले वायु प्रदूषण का लगभग 24 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं चूल्हों से फैलता है। पहले से कुपोषण का शिकार ये महिलाएं हर दिन घंटों तक घर के अंदर होने वाले इस वायु प्रदूषण को झेलती हैं। इससे उनके फेफड़े, हृदय और प्रजनन तंत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। बुनियादी सुविधाओं तक असमान पहुंच और कमजोर सामाजिक-आर्थिक स्थिति के कारण मृत्यु दर बढ़ जाती है। इसके साथ ही ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाला जलवायु परिवर्तन भी अब हमारी जिंदगी में परेशानी का नया सबब बन चुका है। वैज्ञानिक अब इस बात पर स्पष्ट हैं कि जलवायु में बदलाव वायु गुणवत्ता को गहराई से प्रभावित करेगा। वायुमंडल में होने वाले बदलावों को वायु प्रदूषण से गहरा संबंध है।

यह सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की पुस्तक “सांसों का आपातकाल” के पहले अध्याय का हिस्सा है। सभी अध्यायों को सिलसिलेवार डाउन टू अर्थ की वेबसाइट पर प्रकाशित किया जा रहा है। इस किताब में बताया गया है कि पिछले 40 सालों में भारत ने वायु प्रदूषण और उससे लड़ने की कोशिशों का सफर कैसे तय किया है।

पढ़ें ,

यह भी पढ़ें
सांसों का आपातकाल: ग्लोबल वार्मिंग व ब्लैक कार्बन, गंगा तटीय मैदान में बढ़ता प्रदूषण संकट
फाइल फोटो : सीएसई

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in