

ग्लोबल वार्मिंग और ब्लैक कार्बन के कारण गंगा तटीय मैदान में प्रदूषण संकट गहराता जा रहा है
दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में सर्दियों के दौरान धीमी हवा और इनवर्जन के कारण प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है
वैज्ञानिकों का कहना है कि ब्लैक कार्बन और कार्बन डाई ऑक्साइड के बढ़ते स्तर से प्रदूषण की समस्या और गंभीर हो सकती है
प्रदूषण की मार झेल रहे दिल्ली जैसे शहरों में रहने वाले लोगों में सर्दियों के दौरान पेड़ों की ओर देखना अब आदत बन गई है। वे पेड़ों की ओर देखकर यह जानने की कोशिश करते हैं कि पत्ते हिल रहे हैं या नहीं। पत्ते हिल रहे हैं, तो इसका मतलब है कि हवा चल रही है और दिल्ली समेत पूरे इंडो-गैंगेटिक प्लेन (आईजीपी) में छाई स्मॉग की चादर कुछ हद तक हल्की पड़ेगी। लेकिन जब हवा एकदम थमी हो, तो इसका मतलब है कि जहरीली धुंध शहर में बनी रहेगी और यह हर किसी के लिए बहुत बुरी खबर है। हर साल सर्दियों में दिल्ली समेत पूरा इंडो-गैंगेटिक प्लेन को जहरीली धुंध में लपेट लेने वाला स्मॉग आम लोगों के बीच बहस का मुद्दा बन जाता है। इस स्मॉग की वजह हवा और तापमान में होने वाले बदलाव होते हैं, जिनके कारण प्रदूषकों का एक बड़ा हिस्सा हमारी नाक के स्तर के करीब फंस जाता है। लेकिन, आम लोग मौसम और प्रदूषण के इस जटिल संबंध को ठीक से समझ नहीं पाते।
उत्तर भारत में हर साल सर्दियों में छाने वाले जानलेवा स्मॉग की एक प्रमुख वजह है, जिसे वैज्ञानिक भाषा में “विंटर इनवर्जन” कहा जाता है। सर्दियों में जमीन ठंडी हो जाती है, जिससे जमीन के पास की हवा भी ठंडी हो जाती है। इस ठंडी हवा की परत के ऊपर गर्म हवा की परत जम जाती है, जो एक ढक्कन की तरह काम करती है और प्रदूषण को नीचे फंसा देती है। इस स्थिति में प्रदूषित हवा ऊपर नहीं उठ पाती और उसके हवा में घुलने की प्रक्रिया रुक जाती है। ऐसी परिस्थिति में हवा ही एकमात्र सहारा भी होती है। अगर हवा न चले, तो प्रदूषक तत्व वहीं जमे रहते हैं, जिससे स्थिति और गंभीर हो जाती है। हवा की रफ्तार, दिशा और तापमान में बदलाव, ये सब मिलकर तय करते हैं कि जहरीली गैसें और कण फैलेंगे या जमा रहेंगे। गर्म हवा ऊपर उठती है और पीछे कम दबाव वाला क्षेत्र छोड़ती है। गैसें उच्च दबाव से कम दबाव की ओर बहती हैं, यही प्रक्रिया प्रदूषण के फैलाव में मदद करती है। लेकिन, जब हवा चलती ही नहीं, तब ये गैसें एक जगह ठहरी रह जाती हैं और हवा जहर बन जाती है।
2023-24 की सर्दियों में दिल्ली में सीएसई द्वारा किए गए एक अध्ययन में हवा के पैटर्न और प्रदूषण की सघनता के बीच यह घातक रिश्ता स्पष्ट रूप से सामने आया। उस सीजन में पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने की घटनाएं लगभग उतनी ही थीं, जितनी पिछले वर्षों में। इतना ही नहीं, उस दौरान अच्छी बारिश भी हुई।
उस क्षेत्र में प्रदूषण को बढ़ाने वाली गतिविधियों में ऐसी कोई असामान्य वृद्धि भी नहीं हुई। इसके बावजूद दिल्ली में पीएम 2.5 का स्तर बढ़ा और वार्षिक औसत खराब हुआ। इस बढ़े हुए प्रदूषण की प्रमुख वजह थी धीमी हवा। नवंबर 2023 में दिल्ली में सतह पर बहने वाली हवा की रफ्तार औसतन 9.8 मीटर प्रति सेकंड रही, जो पिछले 6 सालों में दर्ज हुई सबसे धीमी औसत रफ्तार थी।
उस अवधि में बीते वर्षों की तुलना में नवंबर, 2023 में हवा की गति 21 फीसदी कम रही। इनवर्जन की वजह से हवा और प्रदूषकों के ऊपर की तरफ उठने पर पहले से ही रोक लग गई थी। हवा की धीमी गति ने प्रदूषकों के क्षैतिज बहाव को भी बाधित कर दिया। इस तरह प्रदूषित हवा फंसी रही और इसका असर पूरे साल के औसत पीएम 2.5 स्तर पर पड़ा। यह क्षेत्र में प्रदूषण के अत्यधिक उच्च स्तर तथा धीमी गति से चल रही हवा का जानलेवा मेल था।
2023 की सर्दियों में मुंबई में जब प्रदूषण के मामले ने सुर्खियां बटोरीं, तब एक बार फिर यह साफ हो गया कि मौसम की भूमिका प्रदूषण के स्तर को किस हद तक प्रभावित कर सकती है। आमतौर पर मुंबई को इसकी समुद्र तटीय भौगोलिक स्थिति का प्राकृतिक फायदा मिलता है। यहां सतह पर बहने वाली तेज हवाएं प्रदूषण को जल्दी से उड़ा देती हैं।
इसके अलावा, हवा की दिशा में उलटफेर भी समय-समय पर प्रदूषकों को दूर करने में मदद करता है। लेकिन 2023 में ये “प्राकृतिक सुरक्षा कवच” टूट गया। भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान से जुड़े रहे जाने-माने वायुमंडलीय वैज्ञानिक डॉ. गुफरान बेग ने कई मौकों पर ध्यान दिया है कि 2022 से पश्चिम भारत में मौसम प्रणालियों में बड़े पैमाने पर अस्थिरता देखी जा रही है।
यह अस्थिरता प्रदूषण के बढ़ते स्थानीय स्रोतों के साथ मिलकर शहर समेत पूरे क्षेत्र की वायु गुणवत्ता को बिगाड़ रही है। 2023 के अक्टूबर-नवंबर महीनों के दौरान पश्चिम भारत के अधिकतर हिस्सों में सतह पर हवा की रफ्तार काफी धीमी हो गई थी जिससे वहां प्रदूषक तत्व जमा हो गए। इसी दौरान माॅनसून की वापसी भी सामान्य से देरी से हुई, एंटी-साइक्लोन सर्कुलेशन ने भी हालात को और गंभीर बना दिया।
वैज्ञानिक अब आगाह कर रहे हैं कि बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग से दुनिया भर में मौसम प्रणाली पर असर पड़ने की उम्मीद है और इसका सीधा असर विभिन्न स्थानीय भौगोलिक क्षेत्रों के प्रदूषण स्तर पर भी पड़ेगा। इन प्रभावों के स्थानीय साक्ष्य अब भारत में भी दिखाई देने लगे हैं। उदाहरण के तौर पर, “इंडो-गैंगेटिक मैदान” में किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है कि कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन और उसके कारण होने वाली गर्मी सतह पर हवाओं की रफ्तार को घटा रही है।
धीमी हवाओं का मतलब है कि सर्दियों में पीएम 2.5 का स्तर और ज्यादा बढ़ेगा। इस तरह, ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम में होने वाले बदलाव “इंडो-गैंगेटिक मैदान” में प्रदूषण की चुनौती को बढ़ा सकते हैं। इसलिए प्रदूषण स्तर में और अधिक तेजी से कमी की लाने की जरूरत होगी। सितंबर 2022 में एडवांसिंग अर्थ स्पेस साइंसेज जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में भी “इंडो-गैंगेटिक मैदान” में पीएम 2.5 की सघनता और कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन के बीच ऐसा ही संबंध पाया गया है।
रिपोर्ट के मुताबिक हर, एक डिग्री वैश्विक तापमान वृद्धि के साथ इंडो गैगेंटिक मैदानों में सर्दियों के दौरान पीएम 2.5 में औसतन 1 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है, जिससे गंभीर प्रदूषण की घटनाएं ज्यादा बार होने लगेंगी। साथ ही, बढ़ते कार्बन डाई ऑक्साइड के कारण पश्चिमी विक्षोभों की तीव्रता और आवृत्ति में कमी भी देखी जा सकती है, जो पहले प्रदूषण के फैलाव में मददगार होते थे। यह एक तरह से दोहरी मार है, एक तरफ प्रदूषण बढ़ रहा है, दूसरी तरफ उसे दूर करने वाली प्राकृतिक प्रणालियां कमजोर हो रही हैं।
हाल के वर्षों में “शॉर्ट-लिव्ड क्लाइमेट पॉल्युटेंट्स (एसएलसीपी)” को लेकर वैश्विक तापवृद्धि की बहस में तेजी आई है। इनमें सबसे प्रमुख है ब्लैक कार्बन। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) अब तक मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और हाइड्रोफ्लोरोकार्बन को ग्रीनहाउस गैसों के रूप में मान्यता देता रहा है। लेकिन 2000 के दशक के मध्य में इसमें ब्लैक कार्बन को भी शामिल किया गया। ब्लैक कार्बन, कार्बन आधारित ईंधनों के अधूरे दहन से बनता है, खासतौर पर तब जब तापमान कम हो। यह पार्टिकुलेट मैटर (पीएम 10 और पीएम 2.5) का एक ठोस और अत्यंत सूक्ष्म हिस्सा होता है, जो प्रकाश को पूरी तरह से सोख लेता है और इस ऊर्जा को गर्मी में बदल देता है। इससे जलवायु पर भी असर पड़ता है और स्वास्थ्य पर भी। पीएम 2.5 में शामिल यह ब्लैक कार्बन उन लाखों लोगों के लिए खतरा बन चुका है, जो ऐसी हवा में सांस ले रहे हैं, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के वायु गुणवत्ता मानकों से कहीं अधिक प्रदूषित है।
कार्बन डाई ऑक्साइड की तुलना में ब्लैक कार्बन बहुत अल्पकालिक होता है। आज उत्सर्जित हुआ कार्बन डाई ऑक्साइड भविष्य में अगले 30 से 100 साल तक पर्यावरण में बना रहेगा और उसे प्रभावित करता रहेगा, जबकि ब्लैक कार्बन कुछ मिनट, घंटों और दिन से लेकर करीब एक हफ्ते तक ही हवा में रहता है। ब्लैक कार्बन का उत्सर्जन डीजल और पेट्रोल वाहनों, धूल पैदा करने वाली गतिविधियों और सेकेंडरी पार्टिकुलेट्स (जैसे नाइट्रेट और सल्फेट) से होता है। डीजल और पेट्रोल से होने वाले उत्सर्जन पर हुए कुछ शुरुआती अध्ययनों से पता चलता है कि पेट्रोल वाहनों की तुलना में डीजल वाहनों से उत्सर्जित महीन कणों में ब्लैक कार्बन कई गुना ज्यादा होता है, खासतौर पर यूरो VI से पहले के मॉडल्स तो और भी ज्यादा ब्लैक कार्बन छोड़ते हैं। ब्लैक कार्बन की संरचना इस बात पर निर्भर करती है कि कौन-सा ईंधन इस्तेमाल किया गया, दहन की प्रक्रिया कैसी थी और प्रदूषण नियंत्रण तकनीकों का स्तर क्या था।
आईपीसीसी की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (एआर 6) में ब्लैक कार्बन के प्रभावों की विस्तृत पड़ताल की गई है, जिसमें बढ़ती गर्मी, पिघलते ग्लेशियर और बारिश के पैटर्न पर पड़ने वाले प्रभाव आदि शामिल हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, ब्लैक कार्बन सूर्य के प्रकाश को अवशोषित कर उसे ऊष्मा में बदलता है, जिससे आसपास का वातावरण गर्म हो जाता है। इसके प्रभाव को “रेडिएटिव फोर्सिंग” यानी प्रति वर्ग मीटर सतह पर अवशोषित सूर्य ऊर्जा और वापस विकिरणित ऊर्जा के अंतर से मापा जाता है। आईपीसीसी की एआर 5 रिपोर्ट के अनुसार, 20 वर्षों की समयावधि में कार्बन डाई ऑक्साइड की तुलना में ब्लैक कार्बन लगभग 900 गुना अधिक गर्मी पैदा कर सकता है। हालांकि आईपीसीसी द्वारा प्रस्तुत रेडिएटिव फोर्सिंग के आंकड़े दूसरे शोधों की तुलना में रूढ़िवादी माने जाते हैं, फिर भी ब्लैक कार्बन जैसे एसएलसीपी ब्लैक कार्बन जैसे एसएलसीपी (शॉर्ट-लिव्ड क्लाइमेट पॉल्यूटेंट्स) कार्बन डाई ऑक्साइड₂ की तुलना में ज्यादा गर्मी सोखते हैं और वैश्विक तापमान में वृद्धि तेज कर सकते हैं। ब्लैक कार्बन का उत्सर्जन और सघनता हर क्षेत्र में समान नहीं है, इसलिए इसके प्रभाव कार्बन डाई ऑक्साइड की तरह वैश्विक न होकर अधिक क्षेत्रीय होते हैं। लेकिन, जब तक वे वायुमंडल में बने रहते हैं, तब तक पर्यावरण पर गहरा असर डालते रहते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि ब्लैक कार्बन के ग्लोबल वॉर्मिंग पोटेंशियल (जीडब्ल्यूपी) और ग्लोबल टेम्परेचर चेंज पोटेंशियल (जीटीपी) जैसे उत्सर्जन मानकों में अभी भी कुछ अनिश्चितता बनी हुई है, जिससे अलग-अलग क्षेत्रों में इसके प्रभाव के आकलन में अंतर आ सकता है। लेकिन, इसके बावजूद इसके प्रभावों को नकारा नहीं जा सकता है।
यह ब्लैक कार्बन बर्फ पर जम जाए तो ग्लेशियर के पिघलने की प्रक्रिया भी तेज हो सकती है। बर्फ की चमकीली सतहें सौर ऊर्जा की एक बड़ी मात्रा को वापस अंतरिक्ष में परावर्तित कर देती हैं। लेकिन जब उस पर ब्लैक कार्बन जम जाता है, तो वह उस ऊर्जा को अवशोषित कर गर्मी के रूप में छोड़ता है। यही कारण है कि आर्कटिक और हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्र विशेष रूप से खतरे में हैं। हिमनदों पर जमा ब्लैक कार्बन ग्लेशियरों के पिघलने के मौसमी चक्र को बदल सकता है, जिससे जल संतुलन और जल आपूर्ति प्रभावित हो सकती है। प्रदूषण की स्थानीय प्रवृत्ति और प्रदूषण की गति से प्रभावित ये क्षेत्रीय प्रभाव चिंता का विषय हैं। इसके साथ ही ब्लैक कार्बन वर्षा और बादल बनने की प्रक्रियाओं को भी प्रभावित करता है। यह सतह तक पहुंचने वाले सूर्य के प्रकाश को बाधित कर दृश्यता को प्रभावित कर सकता है। वैज्ञानिक बताते हैं कि उत्सर्जन संवहन यानी ऊष्मा की स्थानांतरण प्रक्रिया को दबा सकता है और वायुमंडल की स्थिति को इस तरह से स्थिर कर सकता है, जिससे बारिश का सामान्य पैटर्न बाधित हो सकता है।
वैज्ञानिक इसे धरती की सतह के मंद पड़ने की प्रक्रिया (डिमिंग) कहते हैं, जिससे वाष्पीकरण की दर घटती है और बादलों के बनने में बाधा आती है। अगर ब्लैक कार्बन वायुमंडल की उस परत को गर्म कर देता है, जहां बदल बनते हैं, तो वहां बनने वाले बादल वाष्पित हो जाएंगे। इस तरह ब्लैक कार्बन की कालिख से ढंके बादल सूर्य के प्रकाश को अंतरिक्ष में वापस परावर्तित नहीं कर पाएंगे और वातावरण गर्म हो जाएगा। वहीं, अगर ब्लैक कार्बन निचले स्तर के बादलों के ऊपर जमा होता है, तो यह ऊपर की हवा को स्थिर कर देता है, जिससे बादल अधिक बनने लगते हैं। ये बादल किसी ढाल की तरह सूर्य के प्रकाश को रोक देते हैं। इस प्रक्रिया में ब्लैक कार्बन स्थानीय स्तर पर ग्रह को ठंडा भी कर सकता है।
अब ऐसे कई अध्ययन और साक्ष्य मौजूद हैं, जिनसे ब्लैक कार्बन के विभिन्न प्रभावों के बारे में जानकारी मिलती है। चाहे बादल बनने की प्रक्रिया हो, वर्षा चक्र में बदलाव हो या मौसम प्रणाली, हिमपात या जल स्रोतों पर असर, क्षेत्रीय स्तर पर ब्लैक कार्बन का असर अलग-अलग और गहराई से हो सकता है। आईपीसीसी की एआर 6 रिपोर्ट बताती है कि उत्तरी गोलार्ध में ब्लैक कार्बन के कारण वसंत ऋतु की शुरुआत में ही बर्फ के पिघलने को बढ़ावा मिल सकता है, हालांकि इसकी मात्रा अभी स्पष्ट नहीं है। दक्षिण एशिया में वायुमंडल में उपस्थित अवशोषक कण वर्षा के पैटर्न को प्रभावित कर सकते हैं। यह तिब्बती पठार में वायुमंडलीय प्रवाह में परिवर्तन, बर्फ पर काली परत के जमने और हिमनदों के पिघलने का कारण बन सकता है, हालांकि इसके प्रभाव की तीव्रता पर असहमति बनी हुई है।
इन सभी प्रभावों से निपटने के लिए स्थानीय परिस्थिति के अनुसार रणनीतियां अपनाना आवश्यक है। अमेरिका स्थित स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन ऑफ ओशनोग्राफी ने विमान आधारित अध्ययन और मॉडलिंग के जरिए यह दिखाया है कि ब्लैक कार्बन देशों की सीमाएं पार कर लंबी दूरियां तय कर सकता है। अध्ययन में पाया गया कि जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती है, ब्लैक कार्बन का वह अंश, जो एशिया में उत्पन्न हुआ है, वह भी बढ़ता जाता है। जब प्रदूषण वायुमंडलीय परत की सीमा में पहुंचता है, तो वह स्थिर हो जाता है और लंबी दूरी तय कर सकता है। जबकि, धरती की सतह के करीब मौजूद ब्लैक कार्बन का उत्सर्जन स्थानीय स्रोतों से अधिक होता है। जब प्रदूषण सीमा परत तक पहुंचता है, तो यह स्थिर हो जाता है और लंबी दूरी तय करता है। जमीनी स्तर पर ब्लैक कार्बन स्थानीय स्रोतों से अधिक होता है।
यह सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की पुस्तक “सांसों का आपातकाल” के पहले अध्याय का हिस्सा है। सभी अध्यायों को सिलसिलेवार डाउन टू अर्थ की वेबसाइट पर प्रकाशित किया जा रहा है। इस किताब में बताया गया है कि पिछले 40 सालों में भारत ने वायु प्रदूषण और उससे लड़ने की कोशिशों का सफर कैसे तय किया है।
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