Photo: Vikas Choudhary
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दिल्ली में वायु प्रदूषण के लिए सरकार जिम्मेवार - पराली बेवजह बदनाम

अक्टूबर महीने में अमृतसर (पंजाब) व दूसरे हिस्से में जलने वाली पराली का धुआ औसतन 4 किलोमीटर वायु गति से चलने वाली हवाओ द्वारा 500 किलोमीटर दूर दिल्ली मे पहुंचना एक हास्यास्पद कल्पना मात्र है।
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दिल्ली मे वायु प्रदूषण वर्षा ऋतु को छोड़कर पूरे वर्ष ही रहता है। जिस पर सरकार और आम जनता के बीच यदा कदा ही चर्चा होती है, लेकिन हर साल अक्टूबर महीने मे उत्तर पश्चिम भारत से मानसून की वापिसी के साथ पहले से ही प्रदूषित राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र मे दीपोत्सव आदि त्योहार वायु प्रदूषण समस्या को ज्यादा गम्भीर बना देते हैं।

समाचारपत्रों की खबरो के अनुसार दीपोत्सव- 2024 पर हुई जबरदस्त आतिशबाजी के कारण मैदानी इलाकों से पहाड़ तक हवा जहरीली हो गई और देहरादून जैसे पहाडी क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआइ) का स्तर 5 गुणा बढ़कर 56 से 288 पर दर्ज हुआ।

नतीजतन मीडिया, सरकार, अदालत और आम पब्लिक मे गंभीर हूए वायु प्रदूषण पर चर्चा होना स्वाभाविक है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ज्यादा घनी आबादी, अनियोजित शहरीकरण, कारखानों व बिजली घरों की चिमनियों, सड़कों पर दौड़ते लाखों वाहनों की वजह से अधिकांश शहर पूरे वर्ष प्रदूषित रहते है।

यह प्रदूषण अक्टूबर-नवम्बर महीने में ऋतुचक्र  बदलाव, वायु गति के ठहराव और हिमालय से ठंडी वायु के प्रवाह आदि से ज्यादा गंभीर हो जाता है, क्योंकि तब धुआ वायु मंडल की ऊपरी सतह मे नहीं जाकर, पृथ्वी के धरातल से लगती सतह पर संघनित हो जाता है। 

सर्दियों में कम गति (4 किलोमीटर प्रति घंटा) से चलने वाली हवाएं इन प्रदूषकों को प्रभावी ढंग से फैलाने में असमर्थ होती हैं।

निस्संदेह वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के वायु प्रदूषण मे पराली की औसत वार्षिक हिस्सेदारी लगभग नगण्य रहती है।

भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान के ग्राफ के अनुसार अक्टूबर- 2024 में राजधानी क्षेत्र के वायु प्रदूषण मे पराली की हिस्सेदारी 26 दिन मात्र 5 प्रतिशत से कम और बाकि 5 दिन 15 प्रतिशत से भी कम रही यानि दिल्ली मे लगभग 95 प्रतिशत वायु प्रदूषण के लिए स्थानीय स्रोत जिम्मेदार है।

जैसा कि सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) के ताजा विश्लेषण से भी प्रमाणित होता है कि दिल्ली की वायु गुणवत्ता 'खराब' होने के लिए स्थानीय प्रदूषण स्रोत पीएम 2.5 के स्तर के लिए 95 प्रतिशत जिम्मेदार हैं। इसमें मुख्य रूप से वाहनों से निकलने वाला उत्सर्जन जिम्मेदार हैं।

सीएसई के विश्लेषण के अनुसार, विशेष रूप से परिवहन क्षेत्र आधे से अधिक प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है, इसके बाद आवासीय दहन (13 प्रतिशत), औद्योगिक उत्सर्जन (11 प्रतिशत) और निर्माण गतिविधियाँ (7 प्रतिशत) हैं. इसलिए "वाहनों, उद्योग और अन्य स्थानीय स्रोतों से होने वाले उत्सर्जन से निपटने के लिए प्रभावी उपाय लागू किए बिना राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को वायु प्रदूषण से मुक्त करना लगभग असम्भव है।

वैज्ञानिक तथ्यों के विपरीत मीडिया व दिल्ली सरकार द्वारा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण के लिए पराली को जिम्मेदार ठहराना, किसानों के खिलाफ गहरा षडयंत्र और वायु प्रदूषण फैलाने वालों को बचाने का निंदनीय प्रयास है।

यह वायु प्रदूषण के समाधान से मुंह मोड़ने की सच्चाई के समान है। अक्टूबर महीने में अमृतसर (पंजाब) व दूसरे हिस्से में जलने वाली पराली का धुआ औसतन 4 किलोमीटर वायु गति से चलने वाली हवाओ द्वारा 500 किलोमीटर दूर दिल्ली मे पहुंचना एक हास्यास्पद कल्पना मात्र है।

पराली दहन से स्थानीय क्षेत्र में गंभीर प्रदूषण होता है, जिसे रोकने के हरसंभव प्रयास होने चाहिए। माननीय सर्वोच न्यायालय द्वारा नवम्बर-2023 के दूसरे सप्ताह में दिल्ली राजधानी क्षेत्र मे वायु प्रदूषण पर हुई सुनाई की दौरान, की गई टिप्पणी कि "अन्नदाता किसान को खलनायक मत बनाए सरकार". जो राष्ट्रीय नीतिकारो के लिए एक गंभीर चेतावनी है।

क्योंकि सरकार अपने संवैधानिक कर्तव्य भुलकर, पराली दहन से उपजे वायु प्रदूषण के लिए देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले अन्नदाता किसान को बेवजह विभिन्न तरीको से प्रताड़ित कर रही है।

पराली दहन से वायु प्रदूषण रोकने के सरकारी प्रयास, अभी तक अप्रभावी व अव्यावहारिक और सार्वजनिक धन की बर्बादी मात्र साबित हूए है, क्योंकि धान कटाई के बाद मात्र 15 दिन में पराली को बिना सार्थक उपयोग में लाए, भारी- भरकम मशीनों द्वारा अरबों टन पराली को इकट्ठा और भण्डारण करना चुनौतीपूर्ण मिशन है।

इसके लिए बहुत ज्यादा संसाधन चाहिए, जो आम किसान के सामर्थ्य से बाहर की बात है। इसलिए किसान मजबूरन खेत साफ करने के लिए पराली दहन का सहारा लेते है।

पराली को भूमि में समाविष्ट करना ही पर्यावरण हितेषी स्थाई समाधान है, जिसमें गहरी जुताई द्वारा फसल अवशेष को भूमि मे मिलाकर और खेत तैयार करके, अगली फसल की बुआई की जाती है।

वैसे भी हरियाणा - पंजाब में धान की लगभग 90 प्रतिशत से ज्यादा कटाई - गहाई कम्बाईन हारवेस्टर द्वारा की जाती है। इसीलिए पराली को भूमि मे समाविष्ट की जिम्मेवारी कंबाईन हारवेस्टर के मालिकों की होनी चाहिए. जिसके लिए सरकार सभी कंबाइन हारवेस्टर मालिकों की रजिस्ट्रेशन और कंबाइन हारवेस्टर पर स्ट्रा मैनेजमेंट सिस्टम को अनिवार्य बनाए और उन्हे पराली को भूमि मे समाविष्ट करने की जिम्मेवारी के लिए 1000 रुपए प्रति एकड़ प्रोत्साहन देना चाहिए। इन प्रभावी उपाय से वायु प्रदूषण से मुक्ति मिलेगी और भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ेगी।

(वीरेन्द्र सिह लाठर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक हैं। लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं)

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