दुनिया भर में हवाओं का चलना मद्धम पड़ रहा है। यह हवा की गति के रूप में तुरंत स्पष्ट नहीं हो सकता, जो एक स्थानीय घटना है। लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि हवा के वैश्विक स्तर पर शांत होने से हमारे जीवन के तकरीबन हर पहलू पर असर पड़ता है। खासतौर से अप्रत्याशित वर्षा, अत्यधिक गर्मी और तूफानों के रूप में यह दिख रहा है। हवा का ठहराव पवन ऊर्जा उत्पादन और विमानन क्षेत्र को भी प्रभावित करता है। सबूत ग्लोबल वार्मिंग और हवा के शांत होने के बीच एक स्पष्ट संबंध दिखाते हैं। क्या यह जलवायु मॉडल में एक गायब कड़ी हो सकता है? डाउन टू अर्थ, हिंदी के अक्टूबर अंक की आवरण कथा का पहले भाग में आपने पढ़ा, आवरण कथा, थमती हवाएं: जब न चली हवा तो... जबकि दूसरे भाग में आपने पढ़ा, आवरण कथा, थमती हवाएं: विनाशकारी है हवाओं का रुख बदलना, वैज्ञानिकों ने चेताया । अब पढ़ें अगला भाग
बदलते हवा के पैटर्न और तीव्रता के ये सभी लक्षण संकेत करते हैं कि पृथ्वी की हवा प्रणाली ऐसी स्थिति में जा रही है जिसमें वह लाखों वर्षों से नहीं रही है, लेकिन इसके साथ इसकी अपनी सीमाएं भी हैं। हम कैसे सुनिश्चित हो सकते हैं कि ये परिवर्तन हो रहे हैं और भविष्य के वार्मिंग के साथ वे कैसे व्यवहार करेंगे?
मुख्य बात ये है कि सैटेलाइट्स के जरिए हवा के डायरेक्ट ऑब्जर्वेशन की कमी है, इस वजह से हम क्लाइमेट मॉडल के जरिए भी निकाले गए कुछ निष्कर्षों के बारे में निश्चित नहीं हो सकते हैं। इस ऑब्जर्वेशन डेटा की कमी का मुकाबला करने का एक तरीका प्रॉक्सी डेटासेट है, जिसकी मदद से हमें बदलते पैटर्न के बारे में कुछ अंतर्दृष्टि मिल सकती है। इन अंतर्दृष्टि को फिर जलवायु मॉडल में सेट किया जा सकता है ताकि उन्हें हवा प्रणालियों के बारे में अधिक सटीक बनाया जा सके।
ऐसा ही एक प्रॉक्सी डेटासेट पृथ्वी के एक निश्चित भूवैज्ञानिक समयावधि के दौरान हवाओं की कार्रवाई की वजह से महासागरों के तल पर जमा धूल (डस्ट) है। वैज्ञानिक इन डस्ट कोर को ड्रिल करते हैं और उनका विश्लेषण करते हैं ताकि इन हवाओं के स्थानों और उनकी तीव्रता को समझ सकें। जनवरी 2021 में नेचर जर्नल में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर में, वैज्ञानिकों ने पाया कि प्लियोसीन काल के दौरान पछुआ हवाएं (वेस्टली) कमजोर थे और ध्रुवीय क्षेत्रों की ओर अधिक स्थित थे।
रिसर्च पेपर के लेखकों में से एक और अमेरिका की लीहाई यूनिवर्सिटी में पेलियो-क्लाइमेट साइंटिस्ट जॉर्डन टी अबेल बताते हैं कि हमारा समूह महासागर के तल से कीचड़ के रसायन का इस्तेमाल यह समझने के लिए करता है कि अतीत में एरोसोल कैसे बदल गए, विशेष रूप से रेगिस्तानों की धूल। इस मामले में एशिया से प्रशांत महासागर में धूल पहुंचाई गई थी। महासागर के विभिन्न इलाकों में हमने उसमें जो परिवर्तन देखा, उसके मद्देनजर यह सोचा कि हम ये बता पाएंगे कि कैसे हवाओं ने जिन धूल को महासागर तक लाया है, वे समय के साथ बदल गए हैं।
वैज्ञानिकों ने प्लियोसीन काल पर अध्ययन किया क्योंकि इसे वर्तमान और भविष्य के जलवायु परिवर्तन के लिए निकटतम संभावित एनालॉग माना जाता है। वह आखिरी बार था जब कार्बन डाइऑक्साइड आज की तरह ही अधिक था और तापमान थोड़ा गर्म था। उन्होंने दो अलग-अलग स्थानों पर डस्ट को देखा जो अक्षांश से विभाजित थे और पाया कि वे सिर्फ अक्षांशों के बीच धूल की बस्तियों में परिवर्तन की व्याख्या कर सकते हैं वो भी तब जब हवाएं न केवल इस गर्म जलवायु के दौरान कमजोर रहीं, बल्कि ध्रुवों के करीब भी स्थित थीं।
अबेल कहते हैं, “हम अपने अध्ययन में हवाएं कितनी कमजोर हो गई हैं, उसका परिमाण नहीं बता सके, लेकिन ऐसा लगता है कि हवाएं (वेस्टली) इस समय की तुलना में तब अधिक ध्रुवीय थीं, जब उत्तरी गोलार्द्ध में बर्फ की चादरें विकसित होना शुरू हो रही थीं। ये बर्फ की चादरें कितनी बड़ी थीं, हम नहीं जानते। क्योंकि हमने पाया कि बर्फ की चादरों के विकास के समय एक बड़ा बदलाव होता है। हमने ये परिकल्पना की है कि वायुमंडल के तापमान में बदलाव के कारण यह होता है जो हवा के स्थान और तीव्रता में बदलाव करता है।”
रिसर्च विशेष रूप से उत्तरी गोलार्द्ध के लिए किया गया था, लेकिन दक्षिणी गोलार्द्ध के लिए भी एक समान निष्कर्ष का अनुमान लगाया जा सकता है। अबेल कहते हैं, “हमने पाया कि दक्षिणी गोलार्द्ध में भी समान जलवायु संक्रमण में धूल बढ़ जाती है। लेकिन हमारे लिए दक्षिणी गोलार्द्ध में अक्षांशों में कई साइटें नहीं थीं, जिससे हम तुलना कर सकें कि हवाएं कैसे चल रही थीं। लेकिन जैसा कि हम दोनों गोलार्द्धों में एक ही समय में जाते हैं, हम अनुमान लगा सकते हैं कि दक्षिणी गोलार्द्ध में भी हवाएं इसी तरह बदल रही थीं।”
पश्चिमी हवाओं का कमजोर होना और उनका ध्रुवों की तरफ मूवमेंट दोनों ही वर्तमान जलवायु में देखा गया है और भविष्य के लिए भी अनुमानित है, जिसका उत्तरी गोलार्द्ध के बड़े हिस्से में मौसम और जलवायु पर भारी प्रभाव पड़ता है। अबेल कहते हैं,“अब सबूत है कि उप-उष्णकटिबंधीय महासागरीय चक्र जो बड़े महासागर परिसंचरण हैं जो गर्मी, पोषक तत्वों और ऑक्सीजन को महासागर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में ले जाते हैं, थोड़ा विस्तार कर रहे हैं। ये दोनों गोलार्द्धों में पछुआ पवनों के ध्रुवों की तरफ मूवमेंट के कारण हो सकता है।” समुद्र की सतह के तापमान में परिवर्तन हवाओं और समुद्र की सतह की ऊंचाई को प्रभावित करते हैं और इसके साथ महासागर गायरे की सीमाएं समय के साथ बदल सकती हैं।
दक्षिणी गोलार्द्ध में पछुआ पवन संभावित रूप से अपवेलिंग के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। अपवेलिंग एक सामुद्रिक प्रक्रिया है जो तब घटित होती है जब हवा सतह के पानी को किनारों से दूर धकेलता है जिसकी वजह से समुद्र की गहराई में स्थित ठंडा और पोषक-तत्वों से भरपूर पानी सतह पर आकर उसकी जगह लेता है।
पछुआ पवन में परिवर्तन दक्षिणी गोलार्द्ध में कार्बन चक्र के लिए काफी प्रभावशाली हो सकता है क्योंकि वे दक्षिणी महासागर में गहरे पानी को सतह पर लाने के लिए जिम्मेदार हैं। गहरे पानी में बहुत सारे पोषक तत्व और कार्बन डाइऑक्साइड होते हैं। इसलिए यदि पश्चिमी हवाएं कमजोर हो रही हैं और ध्रुवों की तरफ बढ़ रही हैं तो वायुमंडल में सीओ2 की हानि वाले क्षेत्रों में परिवर्तन होता है और यदि पश्चिमी हवाएं खुले दक्षिणी महासागर पर उतनी नहीं चलती हैं तो वायुमंडल में सीओ2 की हानि की मात्रा कम हो जाती है।
वहीं, यदि पश्चिमी हवाएं भूमध्य रेखा की ओर अधिक चलती हैं, तो वे दक्षिणी महासागर में उतनी नहीं चलती हैं और दक्षिणी अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया की ओर अधिक चलती हैं, तो वायुमंडल में सीओटू की हानि फिर से कम हो जाएगी।
ऐसा इसलिए है क्योंकि गहरे पानी का अपवेलिंग उतनी तेजी से नहीं हो रहा है जितना होना चाहिए क्योंकि पश्चिमी हवाओं की ताकत भी कम हो रही है। इसे कई चीजों से संतुलित किया जा सकता है, लेकिन यह निश्चित रूप से एक तरीका है जिसमें हवाएं बड़े जलवायु प्रणाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
दरअसल, अपवेलिंग एक सामुद्रिक प्रक्रिया है जो तब होती है जब हवा सतह के पानी को किनारों से दूर ले जाती है, जिससे गहराई में स्थित ठंडा, पोषण-युक्त पानी ऊपर उठकर उसकी जगह लेता है। उत्तरी गोलार्द्ध में पश्चिमी हवाओं की ताकत और स्थान में परिवर्तन एएमओसी (एमोक) और भूमध्य रेखा और आर्कटिक क्षेत्रों के बीच गर्मी के आवागमन को प्रभावित कर सकता है, जो यूरोप और उत्तरी अमेरिका में गर्मी के महत्वपूर्ण ट्रांसपोर्ट को प्रभावित करता है।
वास्तव में पहले ही एएमओसी का धीमा होना देखा गया है और 2025 तक संभावित रूप से यह रुक सकता है।
कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी, डेनमार्क के वैज्ञानिकों द्वारा 25 जुलाई, 2023 के एक रिसर्च पेपर में कहा गया है कि मानवजनित उत्सर्जन के प्रभाव के कारण एएमओसी 2025 और 2095 के बीच ध्वस्त हो सकता है। नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित अध्ययन में वैज्ञानिकों ने 95 प्रतिशत भरोसे के साथ कहा है कि उत्सर्जन की वर्तमान दर के आधार पर 2050 के दशक में इसके ध्वस्त होने की संभावना है। यदि यह भविष्यवाणी सच साबित होती है तो एमओसी 16 क्लाइमेट टिपिंग एलिमेंट्स में से पहला हो सकता है जो ध्वस्त होगा।
रिसर्च में वैज्ञानिकों ने उत्तरी अटलांटिक महासागर में अधिक ताजा पानी के जुड़ने की ओर इशारा किया है, जिसका कारण बढ़ी हुई वर्षा और ग्रीनलैंड आइस शीट का तेजी से पिघलना है। ये एएमओसी के धीमा होने की वजह है , लेकिन महासागर की सतह पर धीमी हवाएं जो एएमओसी को चलाती हैं, वे भी इसके पूर्ण रूप से ध्वस्त होने में एक अतिरिक्त कारक हो सकता है। लेकिन इस फैक्टर पर वर्तमान में कम अध्ययन हुआ है।
पश्चिमी हवाओं की ताकत और वे कितनी लहरादार हैं, इस आधार पर उच्च अक्षांशों से निम्न अक्षांशों तक ठंडी हवा का प्रकोप हो सकता है और ध्रुवों तक गर्म हवा का घुसपैठ भी हो सकता है। इसका प्रभाव चरम मौसम घटनाओं जैसे हीटवेव और बाढ़ लाने वाली अतिवृष्टि पर पड़ता है। एक और सबूत पश्चिमी हवाओं और तूफान के ट्रैक के बीच के संबंध से है जो मध्य अक्षांशों में वर्षा की तीव्रता और वितरण को प्रभावित करता है। यदि पश्चिमी हवाएं ध्रुवीय दिशा में स्थानांतरित होती हैं तो वर्षा का वितरण भी प्रभावित हो सकता है। इससे उन क्षेत्रों में प्रभाव पड़ेगा जहां किसान अपने फसल उगाते हैं।
पश्चिमी हवाओं के कमजोर होने के कुछ अन्य दीर्घकालिक प्रभाव भी हैं, जैसे कि भूमि पर हवाओं का स्थिर होना, हालांकि ऐसे प्रभावों का अध्ययन केवल हवाओं पर उच्च गुणवत्ता वाले लॉन्ग टर्म ऑब्जर्वेशन डेटासेट्स की मदद से किया जा सकता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ शिकॉगो में जियोफीजिकल साइंसेज की प्रोफेसर टिफनी शॉ कहती हैं, ‘वैज्ञानिक समुदाय अभी भी भूमि पर हवाओं के स्थिर होने को लेकर अनिश्चित है, लेकिन दुनिया भर से इसके उदाहरण और सबूत हैं। जैसे कि यूनाइटेड किंगडम से जहां इसने देश की पवन ऊर्जा से बिजली उत्पादन के लिए डर पैदा कर दिया था।’
वह आगे कहती हैं, “हम पूरी तरह से नहीं समझते कि भूमि की सतहों पर बहने वाली हवाओं का क्या हो रहा है क्योंकि हम सबसे छोटे पैमाने पर हवाओं को सही ढंग से मॉडल करने में सक्षम नहीं हैं। यही कारण है कि टॉरनेडो और अन्य छोटे तूफान प्रणालियों का पूर्वानुमान अभी भी काफी चुनौतीपूर्ण है।”
महासागर तल से डस्ट कोर के प्रॉक्सी डेटा सेट, जियोलॉजिकल टाइम में समुद्र के तापमान में बदलाव और फाइटोप्लांकटन डिपॉजिट्स के संदर्भ में उत्पादकता में परिवर्तन हमें सिर्फ अतीत के बारे में जानकारी देते हैं। ये जानकारी यह संकेत दे सकती है कि आखिर भविष्य कैसा दिख सकता है।
अबेल कहते हैं, “जैसे आप समय में और पीछे जाते हैं, तब हमारे पास डस्ट कोर और अन्य से जुड़े ये प्रॉक्सी रिकॉर्ड कम से कमतर होते जाते हैं। हमारे अध्ययन में भी हम इस बात का कोई साफ-साफ आंकड़ा नहीं बता पाए हैं कि पश्चिमी हवाएं कितनी हिलती हैं क्योंकि हमारे पास केवल दो रिकॉर्ड्स के आधार पर शिफ्ट की मात्रा तय करने की क्षमता नहीं है जिन पर हमने ध्यान दिया।”
यहीं पर इन विभिन्न समय अवधियों के लिए पैलियो क्लाइमेटिक स्टडीज के डेटा को क्लाइमेट माडलिंग रिजल्ट से तुलना अपनी भूमिका निभा सकती है। वैज्ञानिकों के इस बात पर संतुष्ट होने के बाद कि मॉडल पैलियो-क्लाइमेट डेटा के विश्लेषण द्वारा मिले बेसिक रिजल्ट प्रदान कर रहा है, तो वे यह तय कर सकते हैं कि क्या वे मॉडल से अन्य अतिरिक्त आउटपुट का इस्तेमाल हवाओं के मूवमेंट की हद के बारे में जानने के लिए कर सकते हैं।
वैसे इन मॉडलों में सुधार की जरूरत है और इस दिशा में काम चल रहा है। शॉ कहती हैं,“ग्राफिकल प्रोसेसिंग यूनिट्स, मशीन लर्निंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से जलवायु और मौसम मॉडल में सुधार के साथ हवाओं के अध्ययन में भी कम्प्यूटेशनल प्रोग्रेस की जा रही है।”
विशेष रूप से मौसम मॉडलिंग और पूर्वानुमान में सुधार के मामले में मौसम एमुलेटर के साथ मदद मिली है, जो भौतिकी आधारित मौसम पूर्वानुमान मॉडल हैं। ये मशीन लर्निंग का इस्तेमाल सामान्य समूह न्यूमेरिकल वेदर प्रेडिक्शन मॉडल की कम्प्यूटेशनल जरूरतों को कम करने के लिए करते हैं। यह एमुलेटर द्वारा ऐतिहासिक पूर्वानुमानों से प्राप्त सीख के आधार पर पूर्वानुमान करने के माध्यम से होता है।
इन प्रणालियों का भविष्यवाणी कौशल वास्तव में अच्छा है और लगातार सुधार हो रहा है। मशीन लर्निंग सिस्टम के साथ हम जल्द ही दीर्घकालिक क्लाइमेट मॉडलिंग और प्रोजेक्शन में भी सुधार देखेंगे। यह उष्णकटिबंधीय मौसम प्रणालियों की सटीक जानकारी देने में मदद करेगा।
हवा प्रणालियों को समझने की मौलिक समस्या और वे भविष्य में कैसे बदलने जा रही हैं, यह दीर्घकालिक और सटीक डेटासेट की कमी है। चेम्के कहते हैं,“यदि आप वैज्ञानिक साहित्य से गुजरते हैं तो आपको मानव उत्सर्जन और भूमि के सामान्य रूप से या विशेष रूप से आर्कटिक के तापमान में वृद्धि, समुद्री बर्फ के नुकसान और समुद्र के स्तर में वृद्धि जैसे ऊष्मागतिक प्रक्रियाओं पर प्रभाव के अधिक अध्ययन मिलते हैं। इसका कारण यह है कि उस स्थिति में ग्लोबल वार्मिंग का संकेत बहुत अधिक स्पष्ट है। हवाओं और हवा प्रणालियों के लिए संकेत उतना स्पष्ट या बड़े नहीं है क्योंकि यह स्वाभाविक रूप से बहुत कोलाहल वाली प्रणाली है।”
क्लाइमेट मॉडल को इन अपेक्षाकृत अधिक कमजोर संकेतों की पहचान करने में अधिक समय लगता है। यह अब शुरू हो गया है क्योंकि हवाओं के लिए हमारे पास 40-50 वर्षों का डेटा है। चेम्के कहते हैं कि जब हम अब इस डेटा का विश्लेषण कर रहे हैं तो हम शोर से उभरते संकेतों को देखना शुरू कर रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन संकेत की ताकत भी मौसम पर निर्भर करती है। गर्मियों में संकेत बहुत मजबूत होता है और स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, लेकिन उत्तरी अमेरिका और यूरोप में सर्दियों में संकेत अभी बहुत कमजोर है और केवल मध्य शताब्दी तक उभर सकता है। हवा प्रणाली कैसे काम करती है और उन्हें क्या नियंत्रित करता है और उनके अंतर्निहित जलवायु तंत्र के संदर्भ में हवाओं की एक बहुत ही अच्छी बुनियादी समझ उपलब्ध है। लेकिन यह देखने के लिए कि क्या क्लाइमेट साइंटिस्ट के सिद्धांत वास्तविक जीवन में जलवायु परिवर्तन के तौर पर घटित होते हैं, इसमें लंबे समय के पैमाने और बड़े क्षेत्रों में फैले डेटासेट की आवश्यकता होगी।
चेम्के कहते हैं,“हवाओं का एक अच्छा डेटा होना जलवायु विज्ञान में एक बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि हमें ये स्थान और समय के हिसाब से लगातार चाहिए। हमारे पास इन-सीटू (स्थानीय स्तर पर) माप में जो कुछ है वह तब होता है जब एक गुब्बारा हवा में छोड़ दिया जाता है ताकि किसी विशिष्ट स्थान पर हवा की गति को मापा जा सके लेकिन वे स्थान और समय में छिटपुट होते हैं।
आप वास्तव में उससे हवा के पैटर्न की गणना नहीं कर सकते हैं।” इसीलिए वैज्ञानिक पुनर्विश्लेषण डेटा का इस्तेमाल करते हैं जो मॉडल और ऑब्जर्वेशन डेटा के मिश्रण होते हैं। मॉडल मूल रूप से एकत्रित ऑब्जर्वेशन डेटा के पैटर्न का पालन करने और उसी से बंधे रहने के लिए बनाए जाते हैं। चेमके कहते हैं,“यह कभी-कभी वायुमंडलीय अवस्थाओं के लिए हमारा सबसे अच्छा अनुमान होता है। कभी-कभी हम अन्य पैमानों पर हवाओं का डेटा प्राप्त कर सकते हैं जो कुछ तरीकों से हवा के पैटर्न से जुड़े होते हैं और जिनके लिए हमारे पास सेटेलाइट मेजरमेंट हैं।”
भारतीय महासागर क्षेत्र जैसे कुछ क्षेत्रों में हवाओं का सेटेलाइट मीजरमेंट मुश्किल है। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी, पुणे के क्लाइमेट साइंटिस्ट रोक्सी मैथ्यू कोल कहते हैं,“भारतीय महासागर क्षेत्र में हवा या उससे जुड़े कई कारकों के बहुत सारे सेटेलाइटऑब्जर्वेशन मौजूद नहीं हैं। यह क्षेत्र में उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की निगरानी और ट्रैकिंग के लिए एक समस्या बन जाता है।’
उदाहरण के लिए, पूरे चक्रवात की लगभग रियल टाइम इमेज प्राप्त करना अभी भी काफी कठिन है। कोल बताते हैं,“हम आम तौर पर चक्रवात के आधे या तीन-चौथाई हिस्से को देख सकते हैं और उसका विश्लेषण कर सकते हैं। इससे चक्रवातों के तेजी से तीव्र होने और हवा की अधिकतम गति दोनों का पूर्वानुमान लगाने में असमर्थता हो रही है। तीव्रता और हवा की अधिकतम गति दोनों ही पैरामीटर चक्रवातों के मार्ग में लोगों को सटीक शुरुआती चेतावनी प्रदान करने के लिए आवश्यक हैं।”
भारत में मानसून वर्षा का पूर्वानुमान लगाने में भी यही समस्या है। मानसून हवाओं की गति का विश्लेषण अभी भी बहुत सटीक नहीं है, जिससे वर्षा के वितरण और चरम वर्षा घटनाओं का अनुमान लगाना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। कोल बताते हैं,“बेहतर भविष्यवाणी के लिए आपको कम से कम तीन उपग्रहों से हिंद महासागर क्षेत्र देखने की आवश्यकता है। इसरो के उपग्रहों में से एक, स्कैटसैट-1 विंड वेक्टर डेटा को ऑब्जर्व और रिकॉर्ड करता है, लेकिन वर्तमान में विश्लेषण के लिए इस डेटा तक हमारी पहुंच नहीं है। इसरो के पास हवाओं पर डेटा तक पहुंच के लिए कोई आसानी से उपलब्ध प्रावधान नहीं है।”
2019 में यूरोपियन स्पेस एजेंसी द्वारा लॉन्च किए गए प्रयोगात्मक एओलस सेटेलाइट के साथ उपग्रह आधारित विंड ऑब्जर्वेशन भी शुरू हो चुका है। शॉ के अनुसार, 2023 में डी-ऑर्बिट किए गए सेटेलाइट का डेटा यूरोप और अमेरिका के लिए पूर्वानुमान में सुधार करता है। नासा हवाओं का अवलोकन करने के लिए सेटेलाइट लॉन्च कर रहा है।
नासा के पास पहले से ही उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के अंदर हवाओं का अवलोकन करने वाला साइक्लोन ग्लोबल नेविगेशन सेटेलाइट सिस्टम (सीवाईजीएनएसएस) है। शॉ कहती हैं,“हवाओं पर डेटा एकत्र करने और उन्हें समझने के लिए अन्य रास्ते भी आजमाए जा रहे हैं, जैसे कि सेटेलाइट की मदद से सतह के वायुदाब को मापना, जो हवा की तीव्रता और दिशा का भी संकेत दे सकता है। लेकिन यह भविष्यवाणी करने में सक्षम होने के लिए कि कैसे हवाएं वार्मिंग के साथ बदलने जा रही हैं, लंबे समय के अंतराल में हवाओं के और ज्यादा माप की आवश्यकता है और हम अभी तो इसे बस शुरू ही कर रहे हैं।”