

दिल्ली में वायु प्रदूषण की शुरुआत कैसे हुई, इस बाबत अब तक आपने पढ़ा, 1996 में सीएसई की 'स्लो मर्डर' रिपोर्ट ने खोली थी दिल्ली के प्रदूषण की पोल और टाटा मोटर्स और सीएसई के बीच डीजल विवाद, सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
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सभी ने यह बात नजरअंदाज कर दी कि सुप्रीम कोर्ट सीएनजी या किसी खास ईंधन को बढ़ावा नहीं दे रहा था, बल्कि उसका मकसद सिर्फ यह था कि दिल्ली की हवा साफ हो। 28 जुलाई 1998 के मूल आदेश में कोर्ट ने सीएनजी और दूसरे साफ ईंधनों की सिफारिश की थी। निर्देशों का पालन करते हुए 2001 में ईपीसीए ने साफ ईंधनों को परिभाषित किया, जिसमें सीएनजी, एलपीजी, कैटालिटिक कन्वर्टर्स के साथ इस्तेमाल हो सकने वाले कम बेंजीन और बिना लेड वाले पेट्रोल, और बेहतर पार्टिकुलेट ट्रैप और 10 पीपीएम सल्फर वाले साफ डीजल को विकल्प के रूप में शामिल किया।
इसके बाद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ऑटो फ्यूल पॉलिसी कमिटी की एक तात्कालिक रिपोर्ट पेश की, जिसमें कहा गया कि कोर्ट को केवल उत्सर्जन मानक निर्धारित करना चाहिए, न कि ईंधन और टेक्नोलॉजी पर कोई निर्देश देना चाहिए। लेकिन यह तरीका सही नहीं था क्योंकि यूरो II डीजल बसें सीएनजी की तुलना में 46 गुना ज्यादा प्रदूषण फैलाती थीं। डीजल के प्रदूषण को डब्ल्यूएचओ ने कैंसर पैदा करने वाला बताया था, क्योंकि यह फेफड़ों के कैंसर से जुड़ा था। सीएनजी के खिलाफ हो रही साजिशों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने जनता के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए सख्त रुख अपनाया हुआ था। कोर्ट ने दबाव की सभी रणनीतियों को नकारते हुए साफ कहा, “कोई डीजल नहीं। कोई डीजल नहीं। कोई डीजल नहीं।”
प्रतिबंध लागू होने की निर्धारित तारीखों के कई बार बीत जाने के बाद मार्च, 2002 में साल्वे ने अदालत में कहा, “यह पांचवीं बार है जब केंद्र और राज्य सरकारें अदालत में डीजल बसों को अनुमति देने की मांग कर रही हैं। अगर यह किसी निजी पार्टी का मामला होता तो इसे दुरुपयोग माना जाता और उस पार्टी से खर्च लिया जाता।” फिर अप्रैल, 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में डीजल बसों पर पूरी तरह से रोक लगा दी। कोर्ट ने हर डीजल बस पर रोज 1,000 रुपए का जुर्माना लगाया और केंद्र सरकार पर भी सीएनजी आदेश में बार-बार बदलाव की मांग करने के लिए जुर्माना लगाया। इससे सरकार पर इसे सही तरीके से लागू करने का दबाव बढ़ा। बस ऑपरेटरों ने विरोध करने की धमकी दी, लेकिन इस बार राज्य सरकार ने झुकने से मना कर दिया। सरकार के बदले हुए रुख को देखकर बस ऑपरेटरों ने जुर्माना देना शुरू किया और सीएनजी बसें खरीद लीं। 1 दिसंबर, 2002 को मीडिया में खबर आई “आखिरकार डीजल बसों को अलविदा।” सीएनजी के लागू होने के बाद दिल्ली में हवा की गुणवत्ता में सुधार दिखने लगा। 2003 के दिल्ली विधानसभा चुनावों से पहले राजनीतिक दलों में एक-दूसरे से सीएनजी का श्रेय लेने की होड़ मच गई। अब दिल्ली का लोकतंत्र और मजबूत हो चुका था।
साफ ईंधन और नई तकनीक पर काम अभी पूरा नहीं हुआ था, लेकिन दिल्ली में तेजी से बढ़ती कारों और दोपहिया गाड़ियों की संख्या पहले हुए सुधारों पर पानी फेर सकती थी। प्रदूषण को सिर्फ धीरे-धीरे पकड़कर नहीं, बल्कि तेजी से आगे बढ़कर ही रोका जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की वजह से दिल्ली की हवा कुछ हद तक सुधरी थी, लेकिन अगर गाड़ियों की संख्या और ट्रैफिक बहुत बढ़ गया, तो फायदा मिलन रुक सकता था। 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के लिए एक ठोस योजना मांगी, जिससे सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाया जाए और गाड़ियों की संख्या पर रोक लगे। साल्वे ने इस चिंता को अदालत में एक औपचारिक आवेदन के रूप में पेश किया। इसके बाद कोर्ट ने दिल्ली सरकार को नोटिस भेजा कि वह ट्रैफिक और गाड़ियों की संख्या कंट्रोल करने की योजना बताए। दिल्ली सरकार ने पहली बार मेट्रो, बस, रैपिड ट्रांजिट, और लाइट रेल जैसे पब्लिक ट्रांसपोर्ट नेटवर्क की योजना पेश की, जिसमें उन एजेंसियों और समय सीमा का जिक्र किया गया जिन्हें ये जिम्मेदारी सौंपी जानी थी। हमने भी सुझाव दिया कि पार्किंग नीति और व्हीकल टैक्स जैसे कदम उठाए जाएं, ताकि कारों की संख्या और उनका इस्तेमाल कम हो सके।
अक्टूबर 2015 में एक और बड़ा मोड़ आया। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर दिल्ली की जानलेवा सर्दियों में बढ़ते प्रदूषण पर सख्त कदम उठाए। हर सर्दी के साथ दिल्ली में खांसी, सांस लेने में तकलीफ और घुटन जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही थीं। हम लगातार प्रदूषण के स्तर, स्वास्थ्य पर असर और इसके स्रोतों से जुड़े आंकड़ों को इकट्ठा कर रहे थे, ताकि जागरूकता फैलाई जा सके और ठोस कार्रवाई हो। इस बार हमारे पास मजबूत वैज्ञानिक सबूत थे। आईआईटी कानपुर की एक नई स्टडी ने दिल्ली में प्रदूषण फैलाने वाले प्रमुख कारणों की रैंकिंग की और यह साफ किया कि डीजल कारें वाहनों से होने वाले पीएम 2.5 प्रदूषण का 70–80 प्रतिशत हिस्सा जिम्मेदार थीं। इससे स्रोत के हिसाब से बेहतर निर्णय लेना संभव हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने डीजल ट्रकों, कारों और टैक्सियों से निकलने वाले जहरीले धुएं, कचरा जलाने, निर्माण कार्य और सड़कों की धूल पर कड़ी कार्रवाई की। साथ ही सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाने, पैदल चलने और साइकिल चलाने के लिए बुनियादी ढांचे को मजबूत करने का निर्देश दिया। अब ध्यान सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं रहा, बल्कि पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) पर केंद्रित हो गया। इससे पंजाब और हरियाणा में हर साल होने वाली पराली जलाने की समस्या पर भी कार्रवाई संभव हुई जो पहले एक बड़ी चुनौती थी।
कोर्ट के फैसलों से आखिरकार ये साफ हो गया कि डीजल कारें ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं। निजी कारों में कम टैक्स वाले डीजल का इस्तेमाल हो रहा था, जिसे गलत माना गया। 16 दिसंबर, 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि आमतौर पर 2000 सीसी या उससे बड़ी डीजल गाड़ियां और एसयूवी अमीर लोग इस्तेमाल करते हैं और ये गाड़ियां ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं। इसलिए कोर्ट ने सर्दियों के दौरान इन गाड़ियों की बिक्री पर कुछ समय के लिए रोक लगा दी। हमेशा की तरह कार कंपनियों ने इस फैसले का विरोध किया, लेकिन जजों ने कहा कि इससे लोगों को यह समझ आएगा कि ये गाड़ियां पर्यावरण के लिए कितनी हानिकारक हैं। ईपीसीए की एक लंबित सिफारिश के मुताबिक डीजल कार मालिकों को यह सुझाव दिया गया कि वे कार की कीमत का कम से कम 20 प्रतिशत, पर्यावरण शुल्क के रूप में दें, ताकि पेट्रोल कारों की तरह टैक्स का संतुलन बना रहे। लेकिन डीजल कार कंपनियों ने बैन से बचने के लिए सिर्फ 1 प्रतिशत शुल्क देने की पेशकश की और उन्हें बैन से छुटकारा मिल गया।
कार उद्योग ने एक बार फिर अदालत में यह तर्क देना शुरू किया कि डीजल कारें ज्यादा प्रदूषण नहीं करती हैं। 5 जनवरी 2016 को मुख्य न्यायाधीश टी एस ठाकुर ने कंपनियों को फटकार लगाते हुए कहा, “आप कह रहे हैं कि डीजल वाहन कम प्रदूषण करते हैं, तो क्या आपके वाहन ऑक्सीजन छोड़ रहे हैं? लोगों का जीवन दांव पर है और आप कारें बेचने में जुटे हैं।” अदालत की सख्ती का नतीजा यह हुआ कि केंद्र सरकार ने 2016 में एक बहुत बड़ा फैसला लिया कि 2020 तक सीधे यूरो-V प्रदूषण मानकों को छोड़कर यूरो-VI मानकों को लागू किया जाएगा। यह बहुत बड़ा कदम था क्योंकि यूरो-VI पर ही पेट्रोल और डीजल से निकलने वाला प्रदूषण लगभग बराबर हो जाता है, जिससे डीजल गाड़ियों से होने वाला नुकसान कम होता। इसे एक ‘पासा पलटने वाला’ फैसला माना गया।
दिल्ली ने सर्दियों में चरम पर पहुंचने वाले प्रदूषण को कम करने में कुछ हद तक सफलता हासिल की थी, जिससे उम्मीद जगी थी। लेकिन सर्दियों के बाद यह सुधार थम गया। 2016 में दिवाली के बाद जो भयंकर धुंध (स्मॉग) छाई, वह पिछले 17 सालों में सबसे खराब थी। इससे साबित हुआ कि दिल्ली अभी भी प्रदूषण से निपटने के लिए तैयार नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर गहरी चिंता जताई। 8 नवंबर, 2016 को मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि प्रदूषण अब इंसानों की सहनशीलता से बाहर हो गया है। यह मानव जीवन के लिए खतरनाक हो गया है। उन्होंने इसे एक “आपदा” बताया और सरकार से इसके लिए एक “आपदा प्रबंधन योजना” और ठोस नीति बनाने को कहा।
आज दिल्ली के पास ई-बसों के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना तो है, लेकिन बसों की संख्या उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही, जितनी जरूरत निजी वाहनों की वृद्धि को रोकने के लिए है। इसका नतीजा यह हुआ कि 2023 में दिल्ली में निजी गाड़ियों की संख्या पिछले साल के मुकाबले दोगुनी हो गईं। यह तब है जब पेट्रोल-डीजल महंगा हुआ है और अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा परिवहन पर खर्च कर रहे हैं। निजी कारों की बढ़ती संख्या न केवल सड़क पर जाम बढ़ाती है, बल्कि सड़कें चौड़ी करने, फ्लाईओवर और हाईवे बनाने में जो पैसा खर्च होता है, उसका फायदा खत्म हो जाता है, क्योंकि ज्यादा गाड़ियां होने से फिर से जाम लगने लगता है। पुरानी गाड़ियां अब भी प्रदूषण कर रही हैं और सरकार का स्क्रैपेज प्रोग्राम प्रभावी नहीं है। भले ही नई गाड़ियां कम प्रदूषण करती हों, लेकिन अगर उनकी संख्या बहुत ज्यादा बढ़ जाती है, तो कुल मिलाकर फायदा खत्म हो जाता है। यह आसान गणित है!