सांसों का आपातकाल: 1996 में सीएसई की 'स्लो मर्डर' रिपोर्ट ने खोली थी दिल्ली के प्रदूषण की पोल

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की नई रिपोर्ट सांसों का आपातकाल के पांचवे अध्याय में बताया गया है कि 1996 में उसकी रिपोर्ट "स्लो मर्डर" ने दिल्ली के वायु प्रदूषण के बारे में पहली बार लोगों को बताया था
फाइल फोटो: अमित शंकर, सीएसई
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सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की नई रिपोर्ट सांसों का आपातकाल के अब तब आप चार अध्याय पढ़ चुके हैं। पांचवा केंद्र दिल्ली की जानलेवा हवा पर केंद्रित हैं। पढ़ें, पहली कड़ी -

1996: दिल्ली की हवा धुएं और धुंध से काली हो गई थी। शहर को नहीं पता था कि उसे किस चीज ने घेरा था। लोगों की सांसों में जहर भर रहा था। जहरीली हवा ने पूरे शहर को अपने कब्जे में ले लिया था। वायु प्रदूषण और उसके नुकसान के बारे में लोगों में कम जानकारी थी। सबने समझा कि यह तो बस सर्दियों का धुंधलका है। साल 1996 के नवंबर में यानी आज से करीब 30 साल पहले सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने “स्लो मर्डर: द डेडली स्टोरी ऑफ व्हीकुलर पॉल्यूशन इन इंडिया” नाम की एक किताब प्रकाशित की। 

इस किताब की शुरुआत “पॉल्यूशन अंडर कंट्रोल (पीयूसी)” सिस्टम की पड़ताल से हुई। इसमें सवाल उठाया गया था कि क्या दिल्ली या कोई भी शहर हर गाड़ी के टेलपाइप से निकलने वाले धुएं की जांच करके अपनी हवा को साफ कर सकता है। इसमें यह सवाल भी उठाया गया था कि क्या शहर की हवा को साफ करने के लिए और कदम उठाने की जरूरत है, जैसे कि धुआं कम करने की बेहतर तकनीक और अच्छी गुणवत्ता वाला ईंधन का इस्तेमाल। यह अपनी तरह की पहली जांच थी और इसका असर भी देखने को मिला।

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सीएसई की दिल्ली की हवा को साफ करने की मुहीम की शुरुआत “स्लो मर्डर” वाली रिपोर्ट से हुई। याद रखें कि यह उस दौर की बात है जब वायु प्रदूषण पर कोई चर्चा नहीं होती थी। यह किसी की चिंता का विषय या एजेंडे का हिस्सा नहीं था। सीएसई से बार-बार पूछा जाता था, “आप काली हवा को लेकर इतनी चिंता क्यों कर रहे हैं?” दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल ने कहा था कि यह सिर्फ धूल है, इससे घबराने की कोई जरूरत नहीं। तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री ने भी कहा था कि वायु प्रदूषण से स्वास्थ्य को कोई खतरा नहीं है।

दिल्ली की खराब हवा को देखते हुए किताब का नाम “स्लो मर्डर” रखा गया। प्रदूषण तुरंत लोगों की जान नहीं लेता। यह शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर करता है, जिससे फेफड़ों को नुकसान पहुंचता है और कैंसर और दिल की बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। “यह धीमी जरूर थी, लेकिन फिर भी हत्या ही थी।” सरकार और उद्योगों की जिस मिलीभगत की वजह से हजारों लोग धीरे-धीरे मौत के मुंह में समा गए, इस किताब ने उसकी गहराई से पड़ताल की। डाउन टू अर्थ ने इस किताब पर एक रिपोर्ट की थी।

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मैगजीन ने 15 नवंबर, 1996 के अपने अंक के कवर पर 3 बड़े चेहरे छापे- वन एवं पर्यावरण मंत्री जय नारायण प्रसाद निषाद, पेट्रोलियम मंत्री टीआर बालू (उस समय प्राकृतिक गैस नहीं थी) और बजाज मोटर्स के मालिक और उस समय भारत के ऑटो किंग राहुल बजाज। कवर पर लिखा था, “नेल्ड! फॉर स्लो मर्डर।” ऐसा क्यों लिखा गया? क्योंकि सीएसई की जांच में पता चला था कि गाड़ियों के लिए स्टैंडर्ड मानक बनाने के प्रस्ताव अलग-अलग विभागों के बीच बस घुमाए जा रहे थे।

उस समय भारत में गाड़ियों से होने वाले उत्सर्जन के लिए भारत स्टेज (बीएस) I या II जैसे मानक नहीं थे। साफ ईंधन को लेकर बातें तो हो रही थीं, लेकिन कोई ठोस फैसला नहीं लिया गया था। उस समय ईंधन में सल्फर की मात्रा 10,000 पार्ट्स पर मिलियन (पीपीएम) या उससे भी ज्यादा  हुआ करती  थी (आज बीएस VI मानक के तहत यह घटकर सिर्फ 10 पीपीएम रह गई है)।

राहुल बजाज का चेहरा कवर पर इसलिए था, क्योंकि उस समय दोपहिया और तिपहिया गाड़ियों में इस्तेमाल होने वाली 2-स्ट्रोक तकनीक से बहुत ज्यादा प्रदूषण फैलता था। उस वक्त बाजाज का गाड़ियों के बाजार पर लगभग एकाधिकार था। यह वह दौर था जब 4-स्ट्रोक तकनीक नहीं आई थी और न ही निजी गाड़ियां रखने का चलन था।

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4-स्ट्रोक तकनीक के आने के बाद ही हीरो होंडा जैसी कंपनियों का उदय हुआ। इसी तरह, जब निजी कारों का चलन बढ़ा, तो मारुति-सुजुकी और फिर कई अन्य कंपनियां सामने आईं। सीएसई की लड़ाई का मकसद था कि फ्यूल टेक्नॉलजी के लिए कड़े मानक बनाए जाएं, ताकि इन मानकों के जरिए प्रदूषण फैलाने वाली गाड़ियों को सड़कों से हटाया जा सके। इसे ही आज पहली पीढ़ी के सुधार कहा जाता है।

भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति के आर नारायणन ने अपने आधिकारिक आवास पर इस किताब का विमोचन किया। इससे काफी लोगों का ध्यान इस मुद्दे की ओर गया। इसके बाद सीएसई ने नवंबर 1996 में राजधानी में स्थित फिक्की ऑडिटोरियम में एक जनसभा आयोजित की।

लेकिन, जैसा कि होता आया है एक साल गुजर गया और कुछ भी नहीं बदला। ऑटोमोबाइल उद्योग ने हर तरह के सुधार का लगातार विरोध किया और सरकार सिर्फ कागजी खानापूरी में ही उलझी रही। 1997 में इस मुद्दे को लेकर सीएसई ने एक बार फिर जनता का रुख किया। इस बार सीएसई के पास ठोस आंकड़े थे, जिनसे पता चलता था कि प्रदूषण की वजह से कितनी मौतें हुईं।

सीएसई के वर्ल्ड बैंक के मॉडल पर आधारित विश्लेषण से यह चौंकाने वाला खुलासा हुआ कि 1991 से 1995 के बीच सिर्फ चार सालों में वायु प्रदूषण के कारण समय से पहले होने वाली मौतों में 30 प्रतिशत की भारी बढ़ोतरी हुई थी। हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. नरेश त्रेहान ने फेफड़ों की दो तस्वीरें दिखाईं ।

उन्होंने कहा कि ऑपरेशन के दौरान वे सिर्फ फेफड़ों का रंग देखकर पहचान जाते थे कि मरीज किस इलाके से था। डॉ. त्रेहान ने बताया कि पहली तस्वीर दिल्ली के एक शख्स के फेफड़ों की थी। यहां बीड़ी-सिगरेट न पीने वाले इंसान के फेफड़े भी काले हो गए थे। दूसरी तस्वीर हिमाचल प्रदेश के एक शख्स की थी, जिसके फेफड़े बिल्कुल गुलाबी थे। इन सब चीजों की वजह से कार्रवाई में तेजी आई।

दिसंबर 1997 में तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्री सैफुद्दीन सोज ने दिल्ली के प्रदूषण पर एक रिपोर्ट जारी की, जो आगे चलकर एक कार्य योजना का आधार बनी। जनवरी 1998 में केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय (एमओइएफ) ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) के लिए पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम एवं नियंत्रण) प्राधिकरण (ईपीसीए) का गठन किया।

जून 1998 में ईपीसीए ने प्रदूषण की रोकथाम के लिए जरूरी कदमों पर अपनी पहली रिपोर्ट जारी की। इसमें बताया गया था कि दिल्ली की हवा को साफ करने के लिए कौन-कौन से जरूरी कदम उठाने चाहिए, जैसे कि डीजल गाड़ियों पर रोक लगाना और कंप्रेस्ड नेचुरल गैस (सीएनजी) के इस्तेमाल को बढ़ावा देना। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए. एस. आनंद की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की मुख्य बेंच ने जुलाई में ईपीसीए की रिपोर्ट के आधार पर समय-सीमा तय करते हुए निर्देश जारी किए।

इसमें सभी तिपहियों और डीजल बसों को सीएनजी गाड़ियों में बदलने की अंतिम तारीख तय की गई। दिल्ली की साफ-सफाई का काम बस शुरू ही होने जा रहा था। लेकिन जहां एक तरफ सुप्रीम कोर्ट फैसले ले रही थी, वहीं सरकार ने कदम पीछे खींच लिए। प्रभावशाली और स्वार्थी ताकतों का का राज चलता रहा। उन्होंने कोई बदलाव नहीं होने दिया। क्यों? क्योंकि डीजल के बड़े पैरोकार थे।

यह वह समय था जब विज्ञान ने प्रदूषण के असली कारण “छोटे कणों” को पहचान लिया था। तब तक हम सिर्फ एक प्रदूषक जानते थे, जिसे सस्पेंडेड पार्टिकुलेट मैटर (एसपीएम) कहा जाता है। अब सबूतों से यह साबित हो गया कि असल में ये छोटे कण हानिकारक थे। इन्हें रिस्पिरेबल सस्पेंडेड पार्टिकुलेट मैटर (आरएसपीएम) कहा जाता था, क्योंकि ये इतने छोटे होते थे कि ये आसानी से सांस के साथ अंदर चले जाते थे।

आरएसपीएम से जुड़ा पहला सर्वे 1998 में किया गया था। कणों का आकार पता चलने और उनकी जानलेवा विषाक्तता की पहचान करने के बाद आरएसपीएम को पीएम 10 और फिर पीएम 2.5 कहा जाने लगा। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के आंकड़ों से यह पता चला कि आरएसपीएम का स्तर 24 घंटे के राष्ट्रीय मानक से पांच गुना ज्यादा  था, जो जानलेवा था।

लेकिन, यह आरएसपीएम आता कहां से था? तब तक दुनिया भर में हो रहे शोध कणों के आकार और जहरीलेपन के आधार पर डीजल की ओर इशारा करने लगे थे। ये शोध न सिर्फ यह बता रहे थे डीजल जलता कैसे है, बल्कि यह भी दिखा रहे थे कि यह अपने आप में कितना खतरनाक हो सकता है।

अध्ययनों से पता चला कि डीजल गाड़ियों से निकलने वाला 90 प्रतिशत धुआं 1 माइक्रोन से भी छोटे कणों का होता है, जिन पर कैंसर पैदा करने वाले पॉली-अरोमैटिक हाइड्रोकार्बन (पीएएच) और अन्य जहरीले तत्वों की परत चढ़ी होती है। 1998 में दस साल के शोध के बाद कैलिफोर्निया एयर रिसोर्सेज बोर्ड ने आधिकारिक रूप से डीजल के कणों को जहरीले वायु प्रदूषक घोषित किया।

इसके बाद जापान में किए गए अध्ययनों में यह पाया गया कि डीजल के धुएं में कैंसर पैदा करने वाला एक शक्तिशाली तत्व होता है। यह ऑटो इंडस्ट्री के लिए बुरी खबर थी। उन्होंने इसका विरोध किया, और मामला बिगड़ गया।

जारी..

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