सांसों का आपातकाल: सामाजिक असमानता से गहराया वायु प्रदूषण का संकट

सीएसई द्वारा हाल ही में प्रकाशित किताब "सांसों का आपातकाल" का चौथा अध्याय बताता है कि वायु प्रदूषण की वजह से गरीब वर्ग कैसे प्रभावित हो रहा है
फाइल फोटो: विकास चौधरी
फाइल फोटो: विकास चौधरी
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एक और चुनौती यह है कि जब सरकारें प्रदूषण फैलाने वाली फैक्ट्रियों और निर्माण कार्यों को बंद या सीमित करती हैं, तो वहां काम करने वाले गरीब और असंगठित मजदूरों की रोजी-रोटी पर सीधा असर पड़ता है। यानी साफ हवा की कोशिशें इन मजदूरों के लिए आर्थिक जोखिम भी बन जाती हैं। यह उदाहरण दिखाते हैं कि वायु प्रदूषण की मार सिर्फ एक स्वास्थ्य संकट नहीं है, बल्कि यह सामाजिक और आर्थिक अन्याय से भी संबंधित है।

नई रिसर्च से यह साफ हो गया है कि वायु प्रदूषण से जुड़ी समस्याएं सिर्फ स्वास्थ्य की नहीं, सामाजिक असमानता की भी हैं। गरीबी और सामाजिक पिछड़ापन ऐसे कारक हैं, जो लोगों की हालात सुधारने की क्षमता को सीमित कर देते हैं। खासकर दलित, पिछड़े और वंचित समुदायों के पास न तो संसाधन हैं और न ही आवाज, जिससे वे अपने लिए समाधान खोज सकें। ऐसे में समाज के कमजोर तबके के लिए प्रदूषण जैसी समस्याओं का समाधान निकालना मुश्किल हो जाता है। यह असमानता सामाजिक जाति व्यवस्था से भी जुड़ी हो सकती है।

एक अध्ययन में भारत के ग्रामीण इलाकों में वायु प्रदूषण के संपर्क की असमानता का पता लगाया गया। इसमें पता चला कि प्रदूषण के संपर्क में आने और सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बीच गहरा संबंध है। यदि इन संकेतकों (जो बताते हैं कि कौन सबसे ज्यादा कमजोर है) को नीतियों में शामिल करें, तो हम अपने निवेश को सही जगहों पर लगा सकते हैं।

इससे सबसे कमजोर समुदायों को लक्ष्य बनाकर उनके कल्याण और स्वास्थ्य को अधिकतम लाभ पहुंचाया जा सकेगा। जैसा कि पहले ही देखा जा चुका है, जहां उद्योग और बिजली संयंत्र स्थित हैं, वे अधिकतर ऐसे गांव होते हैं, जो आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हैं। वहां रहने वाले लोगों को ज्यादा प्रदूषण झेलना पड़ता है।

एनवायरनमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी नाम के प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय जर्नल में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले पर एक अध्ययन “हाई-रेजोल्यूशन पीएम 2.5 एमिशन्स एंड असोसिएटेड हेल्थ्स इंपैक्ट इनएक्वेलिटीज इन एन इंडियन डिस्ट्रिक्ट” प्रकाशित हुआ। इसमें शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों को शामिल किया गया।

इस अध्ययन में पाया गया कि अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक वर्गों के बीच वायु प्रदूषण में उनके योगदान और उसके संपर्क में आने के बीच एक बड़ा अंतर है। हर साल होने वाली असमय मौतों में से 68 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में होती हैं। निम्न-सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले लोगों को पीएम 2.5 के संपर्क से उद्योगों, घर में खाना पकाने के ईंधन, खुले में कचरा जलाने और परिवहन से होने वाली असमय मृत्यु का जोखिम, प्रदूषण में उनके अपने योगदान की तुलना में, बहुत ज्यादा (क्रमशः 6 प्रतिशत, 7 प्रतिशत, 7 प्रतिश और 26 प्रतिशत ज्यादा) होता है।

इसका मतलब यह है कि जो लोग प्रदूषण के लिए कम जिम्मेदार हैं, वही उससे सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। शोध से पता चला है कि “विकलांगता-समायोजित जीवन वर्ष” (डीएएलवाई) का सबसे ज्यादा नुकसान निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले श्रमिक समूहों को होता है।

भले ही भारत में “पर्यावरणीय न्याय” को लेकर कोई विशेष कानून न हो, लेकिन संविधान, न्यायपालिका और नीतियों में इसके सिद्धांतों की गूंज स्पष्ट तौर पर मिलती है। वायु प्रदूषण से संबंधित जनहित याचिकाओं के मामलों में न्यायपालिका ने पर्यावरण संरक्षण और जीवन के अधिकार को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से संवैधानिक प्रावधानों को बरकरार रखा है।

अदालतों ने यह तय किया है कि स्वस्थ वातावरण में जीने का अधिकार, जीवन के अधिकार का हिस्सा है। इनमें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48ए, अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 51ए(जी) शामिल हैं। अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, जिसकी अदालतों द्वारा व्याख्या की गई है कि इसमें स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार भी शामिल है।

न्यायपालिका ने इस अनुच्छेद की व्यापक रूप से व्याख्या की है, ताकि स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार को जीवन के अधिकार के अभिन्न अंग के रूप में शामिल किया जा सके। इस व्याख्या के कारण कई महत्वपूर्ण अदालती फैसले हुए हैं, जहां अदालतों ने पर्यावरण की रक्षा और पर्यावरणीय न्याय सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए हैं। अनुच्छेद 21 के माध्यम से नागरिकों को अपने स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार को खतरे में डालने वाले पर्यावरणीय क्षरण या उल्लंघनों के खिलाफ राहत पाने के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाने का अधिकार है।

इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 48ए पर्यावरण के संरक्षण और सुधार को अनिवार्य करता है। यह अनुच्छेद राज्य नीति का एक निर्देशक सिद्धांत है, जो यह अनिवार्य करता है कि राज्य पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने, वनों और वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा। यह राज्य के कर्तव्य पर जोर देता है कि वह अपनी शासन जिम्मेदारियों के हिस्से के रूप में पर्यावरण संरक्षण सुनिश्चित करे। निर्देशक सिद्धांत सीधे तौर पर अदालतों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते, लेकिन वे नीति-निर्माण और कानून में राज्य के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में कार्य करते हैं। अनुच्छेद 48ए राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण और टिकाऊ विकास के महत्व को बताता है।

जहां, एक तरफ अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 48ए नागरिक के पर्यावरणीय अधिकारों की रक्षा करते हैं, वहीं दूसरी तरफ भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51ए (जी) पर्यावरण के प्रति नागरिक के मौलिक कर्तव्यों को रेखांकित करता है। इसमें कहा गया है कि भारत के प्रत्येक नागरिक को वनों, झीलों, नदियों और वन्यजीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना चाहिए और जीवित प्राणियों के प्रति दया रखनी चाहिए। अनुच्छेद 51ए (जी) पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास में नागरिकों की भूमिका पर जोर देता है और प्रत्येक नागरिक पर पर्यावरण की रक्षा और उसे बेहतर बनाने की जिम्मेदारी डालता है, जिससे जमीनी स्तर पर पर्यावरणीय न्याय को बढ़ावा मिलता है। 

ये संवैधानिक प्रावधान मिलकर भारत में पर्यावरणीय शासन के लिए एक ढांचा तैयार करते हैं। जहां अनुच्छेद 48ए पर्यावरण संरक्षण से संबंधित नीतियों और कानूनों को बनाने में राज्य का मार्गदर्शन करता है, वहीं अनुच्छेद 21 यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्तियों को स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार है और उल्लंघन के मामले में वे कानूनी सहारा ले सकते हैं। अनुच्छेद 51ए (जी) इस धारणा को पुष्ट करता है कि पर्यावरण संरक्षण केवल राज्य की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि प्रत्येक नागरिक का भी कर्तव्य है। यह संयुक्त दृष्टिकोण पर्यावरणीय संरक्षण को विकासात्मक आवश्यकताओं के साथ संतुलित करते हुए नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करके पर्यावरणीय न्याय प्राप्त करने में मदद करता है। उपरोक्त संवैधानिक प्रावधानों के अलावा पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 और वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 जैसे कुछ पर्यावरण कानून भी हैं। ये कानून खासतौर पर प्रदूषण को नियंत्रित करने में मदद करते हैं। वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 अपने नियामक ढांचे, प्रदूषण-नियंत्रण उपायों, सार्वजनिक-भागीदारी प्रावधानों, अनुपालन निगरानी और कानूनी उपचारों के माध्यम से प्रदूषण के संपर्क के मूल्यांकन और कमजोर आबादी की भागीदारी में सहायता करके और उल्लंघन करने वालों पर जुर्माना लगाकर अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरणीय न्याय सुनिश्चित करने में योगदान देता है। 

एयर एक्ट सीधे तौर पर पर्यावरणीय न्याय की बात नहीं करता, लेकिन इसमें कुछ ऐसे प्रावधान हैं, जो वंचित और प्रभावित आबादी को राहत दिलाने में मदद कर सकते हैं। इस अधिनियम में ऐसे तरीके हैं, जिनसे आम लोग प्रदूषण नियंत्रण उपायों के निर्माण और कार्यान्वयन में सहभागिता कर सकते हैं। इस अधिनियम की धारा 21 केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को वायु प्रदूषण की रोकथाम, नियंत्रण और कमी के लिए उपाय करने का अधिकार देती है, अप्रत्यक्ष रूप से सार्वजनिक भागीदारी के रास्ते प्रदान करती है। ये बोर्ड अक्सर जन सुनवाई करते हैं, प्रस्तावित विनियमों पर जनता से सुझाव मांगते हैं और वायु गुणवत्ता डेटा की निगरानी और रिपोर्टिंग में जनता को शामिल कर सकते हैं।

हालांकि, 1981 के वायु अधिनियम में आधुनिक पर्यावरणीय कानून के समान स्पष्ट प्रावधान नहीं हैं, जो जन भागीदारी को अनिवार्य करते हों, लेकिन बोर्डों (जिनमें आमतौर पर सरकारी एजेंसियों, उद्योग, पर्यावरण संगठनों और कभी-कभी जनता के सदस्यों सहित विभिन्न हितधारकों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं) की स्थापना और उनकी कार्यप्रणाली से ऐसी व्यवस्था बनती है, जिनके जरिए वायु प्रदूषण नियंत्रण और प्रबंधन से संबंधित मामलों में सार्वजनिक भागीदारी हो सकती है।

वायु अधिनियम में जन भागीदारी के प्रावधानों के साथ-साथ प्रदूषण-नियंत्रण उपायों का उल्लंघन करने वालों के लिए कानूनी उपचार और दंड का भी प्रावधान किया गया है। यह प्रभावित व्यक्तियों और समुदायों को पर्यावरणीय उल्लंघन के मामलों में अदालतों का दरवाजा खटखटाने की अनुमति देता है। यह अधिनियम कानूनी समाधान के रास्ते प्रदान करके नागरिकों को स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण के अपने अधिकार की रक्षा करने का अधिकार देता है। इसलिए भले ही वायु अधिनियम में “पर्यावरणीय न्याय” शब्द का सीधा इस्तेमाल न किया गया हो, लेकिन इसके कुछ प्रावधान पर्यावरणीय न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हैं। ये प्रावधान एक ऐसे नीतिगत उपकरण के रूप में काम कर सकते हैं, जो पर्यावरणीय न्याय को और मजबूत बनाने में मदद कर सकते हैं। 

हालांकि, वायु अधिनियम जैसे कानूनों में भले ही अच्छे प्रावधान हों, लेकिन इनमें स्पष्ट दिशा-निर्देशों और कानूनी अनिवार्यताओं की कमी भी है। जिसके कारण न्याय के सिद्धांतों से संबंधित इन प्रावधानों का इस्तेमाल इन्हें लागू करने वाले अधिकारी और प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों, फैक्ट्रियों के विवेक पर छोड़ दिया गया है। “प्रदूषण फैलाने वाला भुगतान करेगा” सिद्धांत के तहत अगर कोई उद्योग प्रदूषण फैलाता है, तो उस पर जुर्माना लगाया जाता है। लेकिन, कई बार उद्यमियों को लगता है कि उत्सर्जन कम करने के लिए महंगा तरीका अपनाने की बजाय जुर्माना देना ज्यादा सस्ता है। ऐसी कमियां सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों पर प्रदूषण का बोझ और बढ़ा देती हैं, क्योंकि उनके पास प्रभावी ढंग से विरोध करने के लिए या तो जागरुकता की कमी होती है या फिर इतना राजनीतिक प्रभाव नहीं होता है कि वे प्रदूषण के खिलाफ मजबूती से आवाज उठा सकें।

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