

बड़ी आबादी वाले ऐसे शहर, जहां गरीबों की संख्या काफी ज्यादा है, वहां यह मुद्दा एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य एजेंडे के तौर पर उभर सकता है। भारत के शहरों में भी बिना किसी योजना के अनाधिकृत बस्तियां बस गई हैं, जहां की झुग्गी-झोपड़पट्टियों में गरीब और हाशिए पर छोड़ दिए गए लोग गुजर-बसर करते हैं।
सीएसई के एक अनुमान के मुताबिक, कम से कम हर 6 में से 1 शहरी भारतीय ऐसे ही बस्तियों में रहता है। जनगणना 2011 के आंकड़ों के मुताबिक, इन अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाले 10 में से 6 लोग गंदे नालों के पास रहते हैं और हर छठे व्यक्ति को पीने के लिए साफ पानी तक नहीं मिलता। यानी जब ये लोग बीमार पड़ते हैं, तो उनके पास बीमारी से उबरने की जरूरी सुविधाएं नहीं होतीं। इससे उनकी स्थिति और खराब हो जाती है।
अध्ययन में यह भी पाया गया है कि झुग्गी या अनौपचारिक बस्तियां अक्सर उन जगहों पर स्थित होती हैं, जो वायु प्रदूषण के लिहाज से बेहद खतरनाक मानी जाती हैं। ये बस्तियां आमतौर पर कचरा डंपिंग स्थल, खुले में कचरा जलाने की जगहों, ट्रैफिक जाम वाले इलाकों, छोटे स्तर की निर्माण साइटें और असंगठित औद्योगिक इकाइयों के पास होती हैं, जो प्रदूषण के लिहाज से हॉटस्पॉट मानी जाती हैं।
सीएसई द्वारा जयपुर और कोलकाता जैसे शहरों में किए जा रहे एक अध्ययन के दौरान “वल्नरेबिलिटी मैपिंग” में पाया गया है कि प्रदूषण के हॉटस्पॉट, हीट वेव हॉटस्पॉट, बाढ़ प्रभावित क्षेत्र और झुग्गी बस्तियों का स्थान अक्सर एक ही जगह पर मिलता है। यह बेहद गंभीर मामला है, क्योंकि बढ़ते शहरीकरण के साथ अनौपचारिक बस्तियां भी तेजी से बढ़ रही हैं।
अनुमान है कि 2001 से 2011 के बीच, जहां शहरी आबादी 32 प्रतिशत बढ़ी, वहीं झुग्गी बस्तियों की आबादी 131 प्रतिशत बढ़ गई। 10 लाख से अधिक आबादी वाले 47 शहरों में से लगभग 11 शहर ऐसे हैं, जहां औसतन 30 प्रतिशत आबादी झुग्गी बस्तियों में रहती है। यह संख्या आने वाले वर्षों में दोगुनी हो सकती है।
यह समस्या इसलिए भी गंभीर है क्योंकि ज्यादातर झुग्गियां शहर के बाहरी और उपेक्षित हिस्सों में हैं। इसलिए आमतौर पर ये इलाके नगर निगम की सेवाओं, ट्रांसपोर्ट, सफाई और स्वास्थ्य सुविधाओं के दायरे से बाहर और हाशिए पर होते हैं। काफी लंबे समय तक आवास नीति का फोकस भी इन बस्तियों को शहर से बाहर विस्थापित करने पर रहा।
इससे इन समुदायों की समस्याएं और बढ़ती गईं। सार्वजनिक आवास योजनाओं पर हाल की नीतियों में अब कुछ सुधार शुरू हुए हैं, जैसे “इन-सीटू डेवलपमेंट” (यानी जहां लोग हैं, वहीं पर बेहतर सुविधाएं देना) को बढ़ावा देना। इसमें झुग्गियों को हटाने की बजाय उन्हें शहर के भीतर ही बुनियादी सुविधाएं देना शामिल है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि भले ही वायु प्रदूषण का असर सभी पर पड़ता है, लेकिन इसका बोझ सब पर बराबर नहीं पड़ता। गरीब और हाशिए पर रह रहे लोग, खासकर जो सड़क या उद्योगों के पास रहते हैं, वे सबसे ज्यादा जहरीली हवा के संपर्क में आते हैं। ये हालात शहरों में बदतर होते जा रहे हैं।
प्रदूषण के संपर्क में सबसे ज्यादा वे लोग आते हैं, जिन्हें बाहर खुले में काम करना पड़ता है या फिर विशेष प्रदूषण पैदा करने वाली गतिविधियों और औद्योगिक प्रक्रियाओं के बहुत करीब रहना पड़ता है। यह वायु प्रदूषण से जुड़ी एक और बड़ी समस्या है, पेशेवर जोखिम। इस बात के पुख्ता सबूत सामने आए हैं कि अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने वाले (जैसे दिहाड़ी मजदूर) बाहरी वायु प्रदूषण और मौसम के चरम बदलावों के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) पहले से इस बात पर जोर देता रहा है कि जो लोग अपने काम की वजह से पर्यावरणीय जोखिमों के संपर्क में आते हैं, उन्हें खास सुरक्षा की जरूरत है। अब भारत में भी इस विषय पर नए अध्ययन शुरू हुए हैं। दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था चिंतन एनवायर्नमेंटल रिसर्च एंड एक्शन ग्रुप ने 2022 में एक विशेष अध्ययन किया।
इस अध्ययन में उन्होंने उन लोगों की सेहत की जांच की, जो खुले में और ज्यादा प्रदूषण वाली जगहों पर काम करते हैं, जैसे कचरा बीनने वाले, नगर निगम के सफाई कर्मचारी और सुरक्षा गार्ड। शोधकर्ताओं ने इन कामगारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, जीवनशैली, वायु प्रदूषण के बारे में उनकी जानकारी और उन्हें होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं को देखा। उन्होंने उनके फेफड़ों की कार्यप्रणाली (सांस लेने की क्षमता) की भी जांच की और यह पता लगाया कि सांस की बीमारियों का उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति और काम के माहौल से क्या संबंध है। यह अध्ययन दिल्ली के चुनिंदा स्थानों पर किया गया था।
इसमें भलस्वा लैंडफिल, गाजीपुर लैंडफिल, महिपालपुर और विवेकानंद कैंप में कचरा बीनने वालों के साथ ही दक्षिणी दिल्ली नगर निगम (एसडीएमसी), नई दिल्ली नगर परिषद (एनडीएमसी) और पूर्वी दिल्ली नगर निगम (ईडीएमसी), नई दिल्ली नगर निगम (एनडीएमसी) और खान मार्केट में काम करने वाले नगर निगम के सफाई कर्मचारियों का अध्ययन किया गया। अध्ययन के दौरान सफदरजंग अस्पताल, कैग बिल्डिंग, आईटीओ, रिलायंस बिल्डिंग, चांदनी चौक आदि जगहों पर काम करने वाले सुरक्षा गार्डों के सेहत की विशेष तौर पर समीक्षा की गई।
तुलना के लिए मध्य दिल्ली के आसपास की जगहों से एक कंट्रोल ग्रुप को लिया गया। इन समूहों के फेफड़ों की कार्यप्रणाली और श्वसन प्रक्रिया से जुड़ी जांचों के साथ ही स्पाइरोमीटर टेस्ट भी किया गया। अध्ययन से पता चला कि कचरा बीनने वालों में 86 प्रतिशत मामलों में बीमारियों का कारण वायु प्रदूषण था। इनके फेफड़ों की क्षमता अन्य समूहों की तुलना में काफी कम पाई गई। यही नहीं, इनमें सांस लेने में रुकावट और फेफड़ों में क्षति जैसी समस्याओं की गंभीरता 57 फीसदी तक देखी गई। कचरा बीनने वाली महिलाओं में सांस की बीमारी होने की आशंका पुरुषों की तुलना में 3.9 गुना अधिक होती है।
अध्ययन में शामिल हुए नगर निगम के 97 फीसदी सफाई कर्मचारी अपनी नौकरी के दौरान वायु प्रदूषण के संपर्क में पाए गए। 37 फीसदी सफाई कर्मचारी ऐसे थे, जिन्हें सर्दियों के दौरान ठंड से पर्याप्त सुरक्षा नहीं मिली। 23 फीसदी कर्मचारियों ने पिछले एक साल में बुखार, सिरदर्द और रक्तचाप जैसी बीमारियां होने की सूचना दी, हालांकि इनमें से सिर्फ 11 फीसदी कर्मचारी ही इलाज कराने के लिए अस्पताल गए।
सबसे चौंकाने वाली बात ये थी कि महिला सफाईकर्मियों में सांस की बीमारियां होने का खतरा पुरुषों की तुलना में लगभग 6 गुना ज्यादा पाया गया। सुरक्षा गार्डों की स्थिति भी चिंताजनक पाई गई। 45 प्रतिशत सुरक्षा गार्डों ने खांसी, गले में खराश, आंखों में जलन, सिरदर्द जैसी दिक्कतें बताईं। 86 प्रतिशत गार्डों की फेफड़ों की कार्यक्षमता सामान्य से खराब पाई गई।
इसी तरह, एनवायरमेंटल साइंस एंड पॉल्यूशन रिसर्च जर्नल में 2022 में एक और अध्ययन प्रकाशित हुआ। इसमें ऑटो-रिक्शा चालक, फुटपाथ विक्रेता और सफाईकर्मियों को शामिल किया गया। अध्ययन में शामिल अधिकतर लोगों ने सिरदर्द, चक्कर आना, मिचली, मांसपेशियों में ऐंठन जैसी शिकायतें कीं। ऑटो चालकों ने सबसे ज्यादा आंखों में जलन और लाली की शिकायत बताई।
इसकी वजह उनका वाहनों के धुएं का ज्यादा सामना करना पाया गया। फुटपाथ विक्रेताओं ने वाहन उत्सर्जन के बढ़ते संपर्क के कारण सिरदर्द और आंखों के लाल होने की परेशानियां बताईं। अधिकतर ऑटो-रिक्शा चालक, स्ट्रीट वेंडर और सफाई कर्मचारियों ने माना कि खराब हवा उनके स्वास्थ्य को बिगाड़ रही है। इनमें से अधिकतर के फेफड़ों की कार्यक्षमता भी कम पाई गई।
निर्माण मजूदरों पर संकट
शहरों में निर्माण स्थल प्रदूषण के महत्वपूर्ण स्रोत हो सकते हैं। सीएसई (सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट) द्वारा की गई एक समीक्षा से पता चला है कि निर्माण स्थलों पर धूल के मुख्य स्रोतों में रेत, बजरी, कन्वेयर सिस्टम, ट्रक का आवागमन, मिट्टी की खुदाई, साइट की सफाई, निर्माण सामग्री को संभालना और भंडारण, बुलडोजर, क्रेन, क्रशर, पाइलिंग, दीवारों को तोड़ना, और कंक्रीट मिलाना शामिल हैं।
निर्माण का हर चरण जहरीली धूल पैदा करता है। इनसे निकलने वाली धूल में अक्सर सिलिका पाई जाती है, जो रेत, पत्थर, चट्टान, बलुआ पत्थर, ईंट, कंक्रीट और मोर्टार से निकलती है। यह सिलिका फेफड़ों को गंभीर नुकसान पहुंचा सकती है। चिनाई के काम, सुरंग बनाने, सड़क की मिलिंग और सीमेंट व कंक्रीट को मिलाने से निकलने वाली धूल भी श्रमिकों की सेहत बिगाड़ती है।
धूल के अन्य स्रोतों में पत्थरों की कटाई, पॉलिशिंग और ड्रिलिंग जैसे काम भी शामिल हैं, जिनसे निकली धूल घातक हो सकती है। पुराने भवनों को तोड़ने के दौरान सीसा और एस्बेस्टस ज्यादा निकलता है, जो बहुत ज्यादा जहरीले होते हैं। कंस्ट्रक्शन के कचरे से निकलने वाले कणों से फेफड़ों का कैंसर, सिलिकोसिस (फेफड़ों की बीमारी), सीओपीडी (सांस की पुरानी बीमारी) और अस्थमा जैसी गंभीर समस्याएं होती हैं।
2023 के एक वैश्विक अध्ययन में पाया गया कि निर्माण स्थलों के विभिन्न चरणों में अलग-अलग काम करने वाले मजदूरों को अलग-अलग तरह की गंभीर बीमारियों का जोखिम होता है। उदाहरण के लिए, नींव के लिए गहरे गड्ढे खोदने वाले, सरिया बांधने वाले, प्लास्टर, चिनाई और पुट्टी का काम करने वाले श्रमिक निर्माण स्थलों पर सबसे ज्यादा खतरे में होते हैं।
दिल्ली में हेल्प दिल्ली ब्रीद और महिला हाउसिंग ट्रस्ट द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि लैंडफिल (कचरा डंपिंग स्थल) के पास रहने वाले असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को सबसे ज्यादा प्रदूषण और असुरक्षित हालात का सामना करना पड़ता है। काम की खराब परिस्थितियां जैसे, बहुत ज्यादा ठंडी, गर्मी और बारिश जैसी मौसम की मार के साथ ही काम की असुरक्षित जगहें, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और असमानता समस्या को और भी बदतर बना देती हैं।
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