फाइल फोटो: प्रदीप साहा/सीएसई
फाइल फोटो: प्रदीप साहा/सीएसई

सांसों का आपातकाल: पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन कानून से मिल सकता है 'न्याय'

सीएसई द्वारा हाल ही में प्रकाशित किताब "सांसों का आपातकाल" का चौथा अध्याय बताता है कि वायु प्रदूषण की वजह से गरीब वर्ग कैसे प्रभावित हो रहा है। इस कड़ी में एक कानून के बारे में पढ़ें
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इससे पहले की कड़ी में आपने पढ़ा : सामाजिक असमानता से गहराया वायु प्रदूषण का संकट

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ऐसा ही एक और अधिनियम है, जो केंद्र सरकार को पर्यावरण की रक्षा और सुधार के लिए उपाय करने का अधिकार देकर लोगों के लिए स्वच्छ पर्यावरण सुनिश्चित करने का प्रावधान करता है। इसका नाम पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 है। हालांकि, इस अधिनियम के ज्यादातर प्रावधान “वायु अधिनियम” जैसे ही हैं, जो पर्यावरणीय न्याय के सिद्धांतों को दर्शाते हैं।

लेकिन, इस अधिनियम में सबसे महत्वपूर्ण बात पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) की अनिवार्यता है। ईआईए एक प्रक्रिया है, जिसमें किसी भी नई परियोजना (जैसे फैक्ट्री, बांध) के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का पहले से मूल्यांकन किया जाता है। हालांकि, भारत की ईआईए प्रक्रिया में “पर्यावरणीय न्याय” शब्द का सीधा जिक्र नहीं है।

फिर भी केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा जारी ईआईए अधिसूचना में ऐसे कई तरीके बताए गए हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरणीय न्याय को बढ़ावा देते हैं। इन तरीकों का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि औद्योगिक परियोजनाओं को मंजूरी देते समय पर्यावरण संबंधी चिंताओं और प्रभावित समुदायों के हितों को ठीक से सुना और सुलझाया जाए।

अगर ईआईए (पर्यावरण प्रभाव आकलन) का ठीक से इस्तेमाल किया जाए तो यह पर्यावरण से जुड़ा न्याय दिलाने का एक बहुत बड़ा जरिया बन सकता है। ईआईए यह अनिवार्य करता है कि बिजली संयंत्रों, खनन जैसी प्रदूषण फैलाने वाली सभी विकास परियोजनाओं का उनके आसपास के पर्यावरण और लोगों पर क्या असर पड़ेगा, इसका पहले आकलन किया जाए। यह आकलन पर्यावरण की मंजूरी देने से पहले किया जाता है।

राज्य सरकारें किसी भी परियोजना को मंजूरी देने से पहले उसके पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन करती हैं और इसमें अक्सर जनता से सलाह मशविरा भी शामिल होता है। प्रभावित समुदायों को प्रस्तावित परियोजना के बारे में अपनी चिंताएं, राय और शिकायतें बताने का मौका देने के लिए जन सुनवाई और बैठकें की जाती हैं।

ईआईए सभी संबंधित पक्षों को प्रस्तावित परियोजनाओं के पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक प्रभावों के बारे में पूरी जानकारी देता है। समुदायों और हितधारकों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल करने से उन्हें परियोजना के संभावित पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के बारे में अपनी चिंताएं व्यक्त करने का अवसर मिलता है।

ईआईए की पर्यावरण प्रभाव चेकलिस्ट में कभी-कभी पर्यावरणीय पहलुओं के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक पहलुओं को भी शामिल किया जाता है। कुछ मामलों में, ईआईए अधिसूचना के तहत स्थानीय समुदायों पर औद्योगिक परियोजनाओं के संभावित सामाजिक प्रभावों का आकलन करने के लिए एक अलग से “सामाजिक प्रभाव आकलन (एसआईए)” रिपोर्ट तैयार करना जरूरी होता है।

एसआईए यह जानने के लिए डेटा इकट्ठा करता है कि प्रस्तावित परियोजना आसपास की आबादी (जनसांख्यिकी संरचना), मौजूदा सामाजिक सुविधाओं (जैसे स्कूल, अस्पताल) और स्थानीय समुदायों पर क्या असर डालेगी।

एसआईए प्रभावित समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन करता है, आजीविका, संसाधनों तक पहुंच और सामाजिक सुविधाओं पर पड़ने वाले संभावित प्रभावों की पहचान करता है। यह ऐसे उपाय भी सुझाता है, जिनसे नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सके और परियोजना के कारण होने वाली या बढ़ने वाली सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर किया जा सके।

अगर एसआईए के माध्यम से जानकारी सही और ईमानदारी से एकत्र की जाती है, तो यह कमजोर हितधारकों को सोच-समझकर निर्णय लेने में मदद करती है, ताकि वे पर्यावरण और समुदायों दोनों पर विकास के दीर्घकालिक प्रभावों को समझ सकें।

इसके साथ ही 2006 का ईआईए कानून व्यापक दृष्टिकोण से समाज में परियोजनाओं के बोझ और लाभों के निष्पक्ष वितरण को सुनिश्चित करके पर्यावरणीय अन्याय को दूर करने की क्षमता रखता है। यह निर्णय लेने वालों को कमजोर या हाशिए पर पड़े समुदायों पर पड़ने वाले संभावित असमान प्रभावों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है, ताकि निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में समानता को बढ़ावा मिले।

पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) प्रक्रिया की प्रभावशीलता को लेकर लंबे समय से बहस और आलोचनाएं होती रही हैं, विशेषकर हाशिए पर मौजूद समुदायों के अधिकारों की रक्षा और सार्थक जन सहभागिता सुनिश्चित करने को लेकर। 2006 की अधिसूचना, जिसमें लचीलापन इस उद्देश्य से शामिल किया गया था ताकि भविष्य में नई वैज्ञानिक आवश्यकताओं को समाहित किया जा सके, लेकिन ऐसा लगता है कि ईआईए के पूरे उद्देश्य को कमजोर करने के लिए एक औजार की तरह उसका दुरुपयोग किया गया है। ईआईए 2006 अधिसूचना में बताया गया है कि किन-किन क्षेत्रों और परियोजनाओं के लिए मंजूरी लेने से पहले ‘जन सुनवाई’ या ‘सार्वजनिक परामर्श’ जरूरी है।

इसमें इन दोनों प्रक्रियाओं का पूरा तरीका भी बताया गया है। सार्वजनिक परामर्श, एक बड़ी प्रक्रिया है, जिसमें ईआईए के दौरान सभी संबंधित पक्षों (हितधारकों) से बातचीत की जाती है, ताकि प्रस्तावित परियोजना पर उनकी राय और सुझाव लिए जा सकें। दूसरी ओर, जन सुनवाई सार्वजनिक परामर्श प्रक्रिया का एक खास हिस्सा है। इसमें लोगों को एक तय अधिकारी (यानी सुनवाई करने वाले अधिकारी) के सामने सीधे अपनी बात कहने और परियोजना पर अपने विचार व्यक्त करने का मौका मिलता है।

पहले केवल ‘राष्ट्रीय रक्षा’ जैसे कुछ खास क्षेत्रों को ही सार्वजनिक परामर्श से छूट मिलती थी, लेकिन समय के साथ, इस छूट वाली सूची में और भी सेक्टर और उद्योग जुड़ते गए हैं। जुलाई 2023 में मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी कर कहा कि जिन स्टैंडअलोन री-रोलिंग या कोल्ड रोलिंग इकाइयों (जो कुछ धातुओं को दोबारा इस्तेमाल करती हैं) को मान्य संचालन और स्थापना की अनुमति मिल चुकी है, यदि वे एक वर्ष के भीतर टर्म्स ऑफ रेफरेंस (टीओआर ) के लिए आवेदन करती हैं, तो उन्हें जन परामर्श की आवश्यकता नहीं होगी।

अक्टूबर 2021 में मंत्रालय ने एक और ज्ञापन जारी किया, जिसमें सिर्फ सार्वजनिक परामर्श के आधार पर (बिना पूरी जन सुनवाई के) लोहे, मैंगनीज, बॉक्साइट और चूना पत्थर जैसे छोटे खनिजों के उत्पादन में 20% तक बढ़ोतरी की अनुमति दे दी गई। इसी तरह, 1994 के ईआईए नियमों के तहत जिन पुरानी खनन परियोजनाओं को मंजूरी मिली थी, उनके लिए भी ढील देते हुए जन सुनवाई की प्रक्रिया को और आसान कर दिया गया है।

2006 की ईआईए अधिसूचना में उल्लिखित पूरी जन सुनवाई प्रक्रिया का पालन करने की बजाय केवल सार्वजनिक परामर्श से गुजरना होगा। सार्वजनिक परामर्श और डेटा तक पहुंच में इस तरह की ढील देने से ईआईए की क्षमता कमजांर होगी। ईआईए का मूल उद्देश्य पर्यावरण न्याय सुनिश्चित करना था, यानी यह देखना कि परियोजनाओं का असर सभी पर समान रूप से पड़े और खासकर कमजोर लोगों को नुकसान न हो। यह छूट ईआईए के पीछे के बुनियादी सिद्धांत को ही धुंधला कर देगी। ईआईए का मूल सिद्धांत था लोगों और पर्यावरण की रक्षा करना और ऐसा न्याय देना जिसमें उन लोगों को भी आवाज मिले जिनकी आवाज अक्सर सुनी नहीं जाती।

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने जनवरी 2019 में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) शुरू किया। इसका मुख्य लक्ष्य 24 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के 131 शहरों (जहां हवा खराब है या जहां 10 लाख से ज्यादा लोग रहते हैं) में हवा की गुणवत्ता सुधारना है। इसमें सभी संबंधित पक्षों को शामिल करके 2025-26 तक पीएम 10 की सघनता में 40 प्रतिशत तक की कमी लाई जा सके और राष्ट्रीय स्वच्छ वायु गुणवत्ता मानकों को पूरा किया जा सके।

एनसीएपी में वायु प्रदूषण और इसके प्रतिकूल प्रभावों को संबोधित करने के उद्देश्य से प्रावधान बनाए गए हैं। इसे मोटे तौर पर बाहर की वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए डिजाइन किया गया है। हालांकि, जैसा कि पहले कहा गया है, एनसीएपी की एक जरूरी बात यह है कि यह प्रदूषण वाले हॉटस्पॉट (यानी सबसे ज्यादा प्रदूषण वाले इलाकों) की पहचान करता है और वहां कार्रवाई को प्राथमिकता देता है।

यद्यपि यह प्रावधान सीधे तौर पर पर्यावरणीय न्याय की ओर इशारा नहीं करता है, लेकिन यह प्रावधान उन समुदायों के लिए फायदेमंद है, जो प्रदूषण के हॉटस्पॉट वाले इलाकों में रहते हैं और असमान रूप से ज्यादा प्रदूषण का सामना करते हैं। इससे उनके ऊपर प्रदूषण का बोझ कम करने का मौका मिलता है।

एनसीएपी प्रभावित समुदायों, नागरिकों के सामाजिक संगठनों और स्थानीय अधिकारियों सहित सभी हितधारकों को इसमें शामिल करने पर जोर देता है। यह सहभागी तरीका हाशिए पर पड़े समुदायों की चिंताओं और विचारों को वायु गुणवत्ता सुधार के उपायों की योजना और लागू करने में शामिल करने में मदद कर सकता है।

एनसीएपी में स्थानीय अधिकारियों और समुदायों की वायु प्रदूषण से प्रभावी ढंग से निपटने की क्षमता बढ़ाने के लिए भी पहल शामिल हैं। इसमें लोगों को वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य प्रभावों के बारे में जागरूक करना, वायु गुणवत्ता की निगरानी और प्रबंधन पर प्रशिक्षण देना और समुदायों को स्थानीय हवा की गुणवत्ता सुधारने के लिए कदम उठाने में सशक्त बनाना शामिल है।

एनसीएपी में “स्वास्थ्य प्रभाव आकलन” करने के प्रावधान भी हैं। इनका उद्देश्य बच्चों, बुजुर्गों और पहले से बीमार लोगों जैसी कमजोर आबादी पर वायु प्रदूषण के बुरे स्वास्थ्य प्रभावों का मूल्यांकन करना है। इसके साथ ही, एनसीएपी का उद्देश्य एक मजबूत वायु गुणवत्ता निगरानी और रिपोर्टिंग प्रणाली तैयार करना है, जो सुधार की प्रगति को पारदर्शी और सुलभ डेटा के माध्यम से ट्रैक कर सके।

जारी

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