किसानों की तकलीफें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। लगातार दूसरी बार सामान्य मानसून रहने के बाद तो किसानों को खुश होना चाहिए था। इसके उलट वे देशभर में अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर हैं। पिछले आठ महीने से 12 से ज्यादा राज्यों पर किसानों के प्रदर्शन चल रहे हैं। दक्षिण के किसान कर्जमाफी और अपनी फसलों के बेहतर दामों की मांग कर रहे हैं क्योंकि वहां सदी का सबसे भयंकर सूखा पड़ा है। जबकि उत्तर और पश्चिम भारत में बंपर उत्पादन के बावजूद किसानों की यही मांगें हैं।
लगातार तीन साल मानसून में कम बारिश होने के बाद पिछले दो साल में सामान्य मानसून रहा है। इसके बाद भी कृषि संकट सोचने पर मजबूर करता है। पिछले कई हफ्तों से किसानों के प्रदर्शन की खबरें रोज आ रही हैं। मध्य प्रदेश में पुलिस द्वारा छह किसानों की हत्या एक दर्दनाक घटना है। कृषि पर ऐसा संकट पहले कभी नहीं देखा गया।
कायदे से देखा जाए तो इस वक्त सरकार और किसानों को दो अहम पड़ावों का जश्न मनाना चाहिए। पहला 2016-17 में खाद्यान्न के रिकॉर्ड उत्पादन का और दूसरा हरित क्रांति के 50 साल पूरे होने का (देखें हरित क्रांति का कैसा जश्न, डाउन टू अर्थ, फरवरी 2017)। इसके विपरीत किसान आलू की फसल को नष्ट कर रहे हैं। दूध और अन्य कृषि उत्पादों को कम कीमत होने की वजह से सड़कों पर फेंका जा रहा है। इस संदर्भ में प्याज का उदाहरण भी लिया जा सकता है। आमतौर पर प्याज की ऊंची कीमतें सियासी गलियारों में तूफान मचाती रही हैं। ऐसा पहली बार है जब किसान और राजनेता प्याज के गिरते दामों से चिंतित हैं। यह इस बात के भी संकेत हैं कि कृषि क्षेत्र में गंभीर सड़न पैदा हो रही है जिसकी या तो हमें चिंता नहीं है या हम उस पर ध्यान नहीं देना चाहते।
किसानों और खेती की हालत देखते हुए साफ कहा जा सकता है कि हमने किसानों को भुला दिया है। देश में रोज 34 किसान कर्ज या कृषि से जुड़े कारणों के चलते आत्महत्या कर रहे हैं। हाल ही में जारी “स्टेट आफ इंडियाज एनवायरमेंट 2017: इन फिगर्स” रिपोर्ट के अनुसार 2014 से 2015 के बीच किसान आत्महत्या के मामले 42 प्रतिशत बढ़े हैं। 91 प्रतिशत किसान आत्महत्या के मामले छह राज्यों में दर्ज किए गए हैं। इनमें मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ प्रमुखता से शामिल हैं। ये आंकड़े नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के हैं।
भारतीय किसानों की आमदनी इतनी नहीं है कि वे कर्ज की अदायगी कर सकें। कृषक परिवार गैर कृषक परिवार की तुलना में ज्यादा कर्जदार हैं। नैशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक, 31.4 प्रतिशत कृषक परिवार पर कर्ज है। गैर कृषक परिवारों पर कर्ज 22.4 प्रतिशत है। यानी किसानों पर करीब 9 प्रतिशत अधिक कर्ज है। रिपोर्ट के मुताबिक, कृषक परिवारों पर औसतन 103,457 रुपये का कर्ज है जबकि खेती से उनकी आमदनी करीब 73,000 रुपये है।
कर्ज का दुष्चक्र घातक होता है। किसान हर साल खेती करने के लिए औपचारिक और अनौपचारिक कर्ज लेता है। ऊपर के आंकड़े बताते हैं कि कर्ज में होने के बावजूद किसान इस उम्मीद से और कर्ज लेता कि खेती से होने वाली कमाई से उसे लौटा देगा। लेकिन मौसम की अनिश्चितता और कम आमदनी होने पर वह इस स्थिति में नहीं पहुंच पाता। नतीजतन, लोन और ब्याज का बोझ बढ़ता जाता है। अंतत: किसान इस स्थिति में पहुंच जाता है कि कर्ज चुकाना उसके बूते से बाहर हो जाता है। उधर, लोन देने वालों का दबाव बढ़ता जाता है जो किसान के पूरे परिवार को चिंतित करता है। लोन लेने के लिए किसान घर और जमीन को गिरवी रख देते हैं। एनएसएसओ के आकलन के मुताबिक, 91 प्रतिशत किसानों की संपत्ति जमीन और घर ही होते हैं। इन्हें खोने का डर बड़ा होता है।
आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार से बात करने पर पता चलता है कि आत्महत्या का कारण कर्ज ही था। वह अपने परिवार को कर्ज के बोझ से निजात दिलाने के लिए अपनी कुर्बानी देता है। मौत होने पर ही लोन देने वाली एजेंसियां कर्ज माफ करती हैं। साफ कि किसान को कर्ज के दुष्चक्र से मुक्ति मौत के साथ ही मिलती है।
यह दुष्चक्र खत्म होने वाला नहीं है। इस बदहाली के लिए कुछ हद तक हम सभी जिम्मेदार हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सत्ता में आने के तीन साल बाद खाद्यान्न की मुद्रास्फीति दर में रिकॉर्ड गिरावट दर्ज की गई है। एक तरफ मध्यम वर्ग कम कीमतों का जश्न मना रहा है, दूसरी तरफ किसानों को बदले में कुछ नहीं मिल रहा। अपनी फसल का उचित दाम मांगने पर उनकी हत्या तक की जा रही है।
जुलाई 2016 में खाद्य मुद्रास्फीति की दर 8.35 प्रतिशत थी। इसके बाद से इसमें लगातार गिरावट दर्ज की गई है। इसी के साथ कमोडिटी के दामों में भी भारी गिरावट हुई है। इसी वजह से देशभर में किसान अशांत है। दिसंबर 2016 के मुकाबले जनवरी 2017 में खाद्य मुद्रास्फीति की दर में 0.53 प्रतिशत की गिरावट हुई है। यह नोटबंदी का दौर था जब 86 प्रतिशत उच्च करेंसी को रातोंरात चलन से बाहर कर दिया गया था।
इसने मांग और आपूर्ति पर असर डाला। यह किसानों के लिए घातक साबित हुआ क्योंकि लोगों के पास अचानक पैसों की किल्लत हो गई और वे किसानों को उचित दाम नहीं दे पाए। इस कारण कुछ सब्जियों के दाम 60 प्रतिशत तक गिर गए।
किसानों को सबसे बड़ा झटका पशु व्यापार के नए नियमों से लगा। जून में बूचड़खानों से जुड़े नए नियम आ गए। इससे पशु व्यापार की अर्थव्यवस्था चरमरा सकती है। यह व्यापार खेती से बड़ा है। खेती से निराश किसान इस व्यापार से जुड़े हैं। पशु व्यापार की अर्थव्यवस्था तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक है। आर्थिक योगदान की बातें करें तो कह सकते हैं कि पशु व्यापार की खेती से ज्यादा हिस्सेदारी है।
पिछले एक दशक में पशु व्यापार अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है क्योंकि किसानों ने बड़ी संख्या में खेती छोड़ कर इसे अपनाया है। 2002-03 में पशु व्यापार ने खेती को पीछे छोड़ दिया। नीति निर्माताओं ने इस तथ्य की अनदेखी की है। इस पर लगाए गए प्रतिबंध किसानों की ही कमर तोड़ेंगे। 2017 में खत्म हुई बारहवीं पंचवर्षीय योजना में भी माना गया कि पशु व्यापार कृषि के विकास का इंजन है।
बहुत से कृषि अर्थशास्त्री मानते हैं कि बीफ नीति पर असमंजस की स्थिति और मीट खाने पर बढ़ती असहिष्णुता से गरीबों की इस नई अर्थव्यवस्था पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं। नए नियमों के मुताबिक, मार्केट में पशु व्यापार की मनाही है। ज्यादातर पशु स्थानीय साप्ताहिक बाजार में ही बेचे जाते हैं। इन बाजारों तक किसानों की पहुंच आसान होती है। इन बाजारों में पशु बिक्री बंद होने से किसानों का यातायात पर खर्च काफी बढ़ जाएगा।
ऐसे में आखिर रास्ता क्या है? सरकार की रणनीतियां देखकर नहीं लगता कि वह इस मामले में गंभीर है। सरकार आयात को प्राथमिकता दे रही है। लगता नहीं कि सरकार किसानों को उचित दाम देने के प्रति चिंतित है। मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने पर सरकार का ध्यान है। वर्तमान में देश सबसे निम्न मुद्रास्फीति के दौर से गुजर रहा है। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए सरकार ने बाजारों में आयातित कृषि उत्पाद भर दिए हैं। कहने के लिए तो किसानों की खातिर राज्य और केंद्र सरकार की करीब 200 योजनाएं हैं लेकिन इसकी पहुंच देश के दस प्रतिशत किसानों तक भी नहीं है।
भारत का खाद्य आयात बिल तेल आयात बिल के करीब है। आज नहीं तो कल अर्थशास्त्री इसे अर्थव्यवस्था में शामिल कर लेंगे। यह तेल के मामले जैसा होगा जिसका हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। कुछ दशकों बाद खाद्य सब्सिडी पर चर्चा कर इसे खत्म करने की बात की जाएगी। सरकार खाद्य आयात बिल पर जोर देगी। सरकार सिंचाई और किसानों को बिजली देने संबंधी योजनाओं पर भी कैंची चलाने को कोशिश करेगी।
इसके बाद दलील दी जाएगी कि खाद्यान्न का आयात किया जा रहा है और इसकी भरपाई की जा रही है। ऐसे में क्यों स्थानीय उत्पादक को सहयोग किया जाए। कुल मिलाकर किसानों को उनकी फसल के सही दाम मिलने की उम्मीद नहीं है।
11 साल, 6500 घोषणाएं, अमल किसी पर नहीं
सरकार और बहुत से लोग दावा कर रहे हैं कि मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन खत्म हो गया है लेकिन यह सच नहीं है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भले ही अपना “अनिश्चतकालीन” अनशन 48 घंटे के भीतर खत्म कर दिया हो लेकिन मैं आंदोलन को शांतिपूर्ण तरीके से जारी रखूंगा। (मध्य प्रदेश के मंदसौर में 6 जून को न्यूनतम समर्थन मूल्य और लोन माफी की मांग रहे किसानों पर पुलिस ने फायरिंग की थी जिसमें छह किसानों की मौत हो गई थी, जबकि कई घायल हुए थे।) समस्या यह है कि हम मुख्यमंत्री और उनकी सरकार पर अब भरोसा नहीं कर सकते। हालांकि उन्होंने अनशन खत्म करते वक्त कुछ आश्वासन दिए हैं लेकिन पुराने अनुभव बताते हैं कि उनकी बातों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। शिवराज सिंह चौहान ने पिछले 11 साल में किसानों से संबंधित 6,500 घोषणाएं की हैं लेकिन उन्होंने किसी भी घोषणा का पूरा नहीं किया है। घोषणाओं को पूरा करने के लिए कोई सरकारी आदेश जारी नहीं किया गया। इसी कारण लोग मुख्यमंत्री को “घोषणा वीर” कहने लगे हैं। सरकार ने घोषणा की थी कि वह किसान आयोग बनाएगी जो कृषि उत्पादों की उत्पादन लागत को देखेगा। राज्य सरकार के पास ऐसे किसी भी आयोग को गठित करने का संवैधानिक अधिकार नहीं है। यह केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। केंद्र सरकार ने ऐसा ही आयोग एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में गठित किया था। इस आयोग ने 2006 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। इस आयोग की सिफारिश थी कि उत्पादन लागत से 50 प्रतिशत ज्यादा न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाना चाहिए। इस सिफारिश का क्या हुआ? आजादी के बाद से भारत में 6 किसान आयोग बने हैं लेकिन उनकी सिफारिशों का भी यही हाल हुआ है। आंदोलन के जरिए किसानों ने सरकार को सख्त संदेश दिया है लेकिन सरकार ने हमारी एक भी मांग नहीं मानी है। हमारी मांग है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर स्वामीनाथन की सिफारिशों को लागू करे। सभी फसलों को खरीदने की गारंटी दे। साथ ही मुद्रास्फीति और लोन माफी को ध्यान में रखते हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करे। इसके अलावा मध्य प्रदेश से संबंधित हमारी 11 और मांगें हैं, जैसे आलू का न्यूनतम समर्थन मूल्य 12 रुपये किया जाए और किसानों को मंडी में नगद भुगतान किया जाए। हमारे आंदोलन के हिंसक होने के बाद सरकार ने आननफानन में घोषणा की कि मंडी में किसानों को 50 प्रतिशत नगदी मिलेगी। लेकिन व्यापारियों के दबाव के बाद सरकार को अपने निर्णय से पीछे हटना पड़ा। इसका मतलब है कि सरकार ने 200 कारोबारियों की मांग सुनी जबकि छह करोड़ किसानों की मांगों को अनसुना कर दिया। कमजोर सरकारें ही ऐसे कदम उठा सकती हैं। हमारी कुछ अन्य मांगें भी हैं- जैसे भूमि सुधार और गरीब किसानों को थोड़ा बहुत मानदेय देना। राज्य सरकार ने घोषणा की है कि ऐसा कानून बनाया जाएगा जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर अनाज खरीदने को अपराध माना जाएगा। प्रदेश में ऐसा एक कानून पहले से है। यह कानून 20 साल पहले उस वक्त बना था जब दिग्विजय सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। सरकार के पास इतनी ताकत नहीं कि वह कानून को मजबूत कर सके क्योंकि उस पर कारोबारियों का दबाव है। दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्री रहते वक्त कुछ हद तक यह कानून काम कर रहा था लेकिन शिवराज सिंह चौहान ने इसे कमजोर कर दिया। दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में मंडी के अध्यक्ष का चुनाव सीधे तौर पर होता था। मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवराज सिंह ने चुनाव अप्रत्यक्ष कराने के लिए कानून ही बदल दिया। इसने भ्रष्टाचार के दरवाजे खोल दिए। माना जाता है कि मंडी के अध्यक्ष पद के लिए 5 करोड़ की बोली लगाई जाती है। फसलों को किसानों से सस्ते दामों पर खरीदने और खुदरा बाजार में ऊंचे दामों पर बेचने की डील है। (जितेंद्र से बातचीत पर आधारित) |