पड़ताल: पंजाब-हरियाणा जैसा मंडी सिस्टम क्यों चाहते हैं दूसरे राज्यों के किसान?

देश के दूसरे राज्यों के किसान अपने जीवनयापन के लिए पंजाब या उसके पड़ोसी राज्य हरियाणा जैसे सपोर्ट सिस्टम की मांग कर रहे हैं
दिल्ली संघू बॉर्डर में पंजाब के किसान धरने पर बैठे हैं। फोटो : धनंजय
दिल्ली संघू बॉर्डर में पंजाब के किसान धरने पर बैठे हैं। फोटो : धनंजय
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हाल ही में बने तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसान देश की राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर बैठ गया है। उन्हें दिल्ली के भीतर नहीं घुसने दिया जा रहा है। सरकार से कई दौर की वार्ता हो चुकी है। सरकार कानूनों में संशोधन को तैयार है, लेकिन किसान तीनों कानूनों को वापस लेने की मांग पर अड़े हैं। किसान संगठनों का कहना है कि तीनों कानूनों के माध्यम से सरकार कृषि क्षेत्र से अपना पल्ला झाड़ कर कॉरपोरेट्स के हवाले करना चाहती है, लेकिन आखिर किसान सरकार के दामन से क्यों जुड़ा रहना चाहता है। डाउन टू अर्थ ने कारण जानने के लिए व्यापक पड़ताल की। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, क्यों सरकार के दामन से जुड़ा रहना चाहता है किसान । पढ़ें, दूसरी कड़ी -

पंजाब के किसान परिवार की आमदनी 2, 16,708 रुपए है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर औसत आमदनी 77,124 रुपए सालाना है। पंजाब का किसान सबसे अमीर माना जाता है। पंजाब के लगभग 95 फीसदी किसानों से सरकारी खरीद होती है। पंजाब अकेला ऐसा राज्य है, जिसे अपनी फसल के लिए स्टोरेज की जरूरत नहीं होती और पूरी फसल खरीद ली जाती है।

1960 में पंजाब में फसल की गहनता 126 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 200 प्रतिशत हो गई है। उस समय पंजाब के खेतों से धान और गेहूं का उत्पादन 1.2 टन प्रति हेक्टेयर होता था, जो अब चार से पांच गुणा बढ़ चुका है। अब इससे ज्यादा उपज नहीं बढ़ सकती है। जबकि साल दर साल लागत बढ़ रही है, ऐसे में पंजाब के किसान को हर हाल में न केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य का सपोर्ट चाहिए, बल्कि हर साल एमएसपी में ठीकठाक बढ़ोत्तरी हो। हर साल सरकार पंजाब के किसान की फसल खरीदे, बिजली से लेकर खाद तक के लिए सब्सिडी दी जाए और नगद राशि की सहायता की जाए, ताकि फसल की लागत में कमी आ सके। पंजाब के किसान के पास प्राइवेट मार्केट सिस्टम का अनुभव नहीं है। ऐसे में यदि चालू सुविधाओं में से कोई भी कमी की जाती है तो पंजाब की कृषि अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। पंजाब एक अनोखा मामला है, जहां फसल का उत्पादन तो बहुत अधिक है, बावजूद इसके यहां सपोर्ट सिस्टम की बहुत ज्यादा जरूरत है। ,

यह स्थिति तब है, जब देश के दूसरे राज्यों के किसान अपने जीवनयापन के लिए पंजाब या उसके पड़ोसी राज्य हरियाणा जैसे सपोर्ट सिस्टम की मांग कर रहे हैं। बावजूद इसके, नये कृषि कानूनों में सरकार द्वारा नियंत्रित मंडियों की बजाय प्राइवेट मार्केट को बढ़ावा देने की व्यवस्था की गई है। हालांकि पंजाब-हरियाणा को छोड़कर दूसरे राज्यों में किसान अपनी फसल खुले बाजार में ही बेचता है।

शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट के अनुसा पिछले सालों में देश का लगभग 94 फीसदी किसान निजी बाजारों पर निर्भर रहा। देश में केवल 8900 बाजार ऐसे हैं, जिनका संचालन सरकारी एजेंसियों द्वारा किया जा रहा है। औसतन हर गांव से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर एक बाजार है। फसल बिक्री केंद्रों की कमी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकार अपना अनुमान है कि लगभग 64 हजार करोड़ रुपए की फसल का नुकसान इसलिए हो जाता है, क्योंकि यह फसल बाजार तक नहीं पहुंच पाती।

दरअसल, उत्तर प्रदेश सबसे अधिक गेहूं का उत्पादन करता है, बावजूद इसके यहां से लगभग 11.5 फीसदी गेहूं की खरीद एमएसपी पर होती है। उमेश जैसे किसानों से दाल की खरीद महज पांच फीसदी ही एमएसपी पर की जाती है।

पंजाब ही नहीं बल्कि दूसरे राज्यों के किसानों के लिए सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य ही हमेशा उचित सौदा रहा है। द एडवांस्ड स्टडी ऑफ इंडिया, यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिलवेनिया द्वारा पंजाब, ओडिशा और बिहार सहित 10,000 किसानों के सर्वेक्षण किया। जो बताता है कि सरकारी एजेंसियों द्वारा एमएसपी पर खरीद करने से फसल की कीमतों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।

सर्वेक्षण के परिणाम बताते हैं कि बिहार व ओडिशा के किसान जब सरकारी एजेंसी को अपनी उपज बेचने में सफल रहे तो बिहार में 16 प्रतिशत और ओडिशा में 17.5 प्रतिशत किसानों की फसल की कीमतों में सुधार हुआ। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्यों किसान फसल की बिक्री में सरकार के हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं।

बिहार में केवल पांच फीसदी किसान ही अपनी धान एमएसपी पर बेच पाते हैं, जबकि लगभग 30 फीसद किसान अपनी धान बेचते वक्त मोल भाव करते हैं, लेकिन लगभग 65 फीसदी किसानों को खरीद करने वाले व्यापारियों द्वारा प्रस्तावित कीमत पर ही अपनी धान बेचनी पड़ती है। मंडी सिस्टम न होने के कारण यहां नीलामी के जरिये फसलों की खरीद-फरोख्त नहीं हो पाती।

सर्वे बताता है कि बिहार में गेहूं, मक्का और सरसों की बिक्री एमएसपी पर नहीं होती। खरीद करने वाले व्यापारी द्वारा जो दाम ऑफर किए जाते हैं, अधिकतर किसान उसी कीमत पर अपनी फसल बेच देते हैं। इनमें गेहूं बेचने वालों की संख्या लगभग 70 फीसदी, मक्का बेचने वालों की संख्या 60 फीसदी और सरसों बेचने की वाले किसानों क संख्या 75 फीसदी के आसपास रहती है। लगभग 25 फीसदी किसान मोलभाव करने के बाद सरसों बेचने की स्थिति में रहते हैं। इसी तरह लगभग 40 फीसदी किसान मक्का बेचते वक्त मोलभाव करते हैं तो गेहूं बेचते वक्त ऐसा करने वाले किसानों की संख्या 30 फीसदी है।

यह अध्ययन बताता है कि  ओडिशा में धान और मक्का की खरीद एमएसपी पर हुई। धान की बात करें तो किसान लगभग 25 फीसदी धान पर बेच पाए, जबकि 60 फीसदी धान की खरीद व्यापारी ने अपने रेट पर की और लगभग 15 फीसदी धान मोलभाव के बाद बिकी। इसी तरह लगभग 70 फीसदी मक्का व्यापारियों ने अपने रेट पर खरीदा, जबकि 25 फीसदी मक्का के लिए किसान और व्यापारी के बीच मोलभाव के बाद खरीदा गया। सरसो की बात करें तो ओडिशा में सरसो एमएसपी पर नहीं बिका। हालांकि अन्य फसलों के मुकाबले सरसों के लिए किसान ज्यादा मोलभाव किया और लगभग 35 फीसदी किसानों ने मोलभाव के बाद सरसों बेची, जबकि लगभग 65 फीसदी किसानों ने व्यापारी द्वारा ऑफर किए गए रेट पर सरसों बेची।

इस अध्ययन में पंजाब की तीन फसलों को शामिल किया गया है। इनमें धान, गेहूं और मक्का शामिल है। अध्ययन के मुताबिक लगभग 90 फीसदी धान की खरीद एमएसपी पर हुई, जबकि लगभग इतना ही गेहूं भी एमएसपी पर खरीदा गया। इसके मुकाबले मक्का केवल पांच फीसदी ही एमएसपी पर खरीदा गया। यहां मंडियां होने के कारण नीलामी पर लगभग 60 फीसदी मक्का खरीदा गया, जबकि 10 फीसदी मक्के की खरीद किसान-व्यापारी के बीच हुए मोलभाव के बाद हुई, लेकिन लगभग 25 फीसदी खरीद व्यापारी द्वारा ऑफर किए गए रेट पर हुई। 

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