डॉ. ऋषि राज
कृषि कानूनों के खिलाफ कई किसान संगठन देश की राजधानी दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर बैठे हैं, लेकिन इनके अलावा दिल्ली से सटे नोएडा में भी किसानों का एक आंदोलन चल रहा है। आखिर क्यों ये किसान आंदोलन कर रहे हैं।
दरअसल नोएडा के 81 गांवों के ये किसान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह लड़ाई है अपने अधिकार की, अपने बच्चों के भविष्य की। यह लड़ाई है भ्रष्ट तंत्र और उसके थोपे गए अव्यवहारिक नियमों के खिलाफ।
1976 में नोएडा के गठन के समय से ही किसानों के हितों की लगातार अनदेखी हुई है। इसमें सभी सरकारें शामिल हैं। बीच-बीच में किसान कल्याण की कुछ नीतियां बनी हैं, लेकिन भ्रष्टाचार और पारदर्शिता की कमी के कारण उनका पूरा लाभ सभी किसानों को नहीं मिल पाया।
किसानों का लगातार शोषण होता रहा है। यह लड़ाई किसानों के पिछले चार दशकों के संघर्ष और प्रशासन द्वारा लगातार की गयी अनदेखी से उपजे असंतोष का परिणाम है।
क्या है किसानों की मांग
इन किसानों की केवल तीन मांगें हैं।
किसानों की पहली लड़ाई अपनी उस आबादी (बसावट वाली जगह) को अपने नाम वापस कराने की है, जिसको गलत और मनमाने तरीके से प्राधिकरण ने अपने नाम करा लिया। जिस जमीन पर किसान पिछले चालीस साल से घर बनाए बैठा है, उसका अपना वह मकान प्राधिकरण के नाम है।
दरअसल नोएडा प्राधिकरण द्वारा जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया में शुरू से ही पारदर्शिता, निष्पक्षता और समावेशिता का अभाव रहा है। अधिकांश जमीनें भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के प्रावधानों के तहत अधिगृहित की गई।
इमरजेंसी क्लॉसेस लगाकर बिना किसान का पक्ष सुने भूमि का अधिग्रहण कर लिया गया। जिन जमीनों पर किसान पैतीस - चालीस साल से घर बनाये बैठे थे, उनका भी अधिग्रहण कर लिया गया। इसके खिलाफ लोग संघर्ष करते रहे और अदालतों में भी गए।
उन जमीनों पर न तो प्राधिकरण को कोई योजना लानी थी, न ही कोई विकास कार्य प्रभावित होना था। लेकिन प्राधिकरण की हठधर्मिता से किसान परेशान होते रहे और कई मुकदमों में भी फंसे रहे।
प्राधिकरण इसको अतिक्रमण बताकर लगातार किसानों का शोषण करता रहा। कई लोगों की शेष अधिगृहित भूमि का मुआवजा भी रोके रखा।
2011 में प्राधिकरण द्वारा "ग्रामीण आबादी नियमावली - 2011" बनाई गई, जिसके माध्यम से आबादी की अधिगृहित जमीन की बैक लीज किसान के पक्ष में होनी थी। नियम तो बन गया, लेकिन उसका अनुपालन आज तक नहीं हुआ।
दूसरी लड़ाई अधिगृहित जमीन के बदले मिलने वाले भूखंड को लेकर है। गौतमबुद्ध नगर में मुख्यतय तीन औद्योगिक विकास प्राधिकरण हैं।
नवीन ओखला औद्योगिक विकास प्राधिकरण (नोएडा प्राधिकरण), ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण और यमुना एक्सप्रेस-वे औद्योगिक विकास प्राधिकरण।
तीनों प्राधिकरणों की किसानों को अधिगृहित भूमि के बदले क्रमशः 5%, 6% और 7% भूखंड देने की योजना थी। किसान मुआवजे की राशि और भूखंडों में बढ़ोतरी की मांग कर रहे थे।
कुछ लोग न्यायालय भी गए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मुआवजे की राशि में 64.7 % की बढ़ोतरी और मिलने वाले भूखंड में बढ़ोतरी और एकरूपता करते हुए 10% कर दिया।
नोएडा प्राधिकरण ने बढ़ा हुआ मुआवजा सभी किसानों को दे दिया। लेकिन 10 प्रतिशत भूखंड अथवा भूखंड के बदले धन, केवल उन लोगों को ही दे रहा है जो न्यायालय गए - उनको नहीं, जो न्यायालय नहीं गए या जिन्होंने आपसी सहमति से जमीन प्राधिकरण को दे दी।
इसका मतलब है कि पिता से विरासत में मिले एक ही खेत का प्रतिफल दो पुत्रों में से एक को ज्यादा और दूसरे को कम मिल रहा है। इससे किसानों में असंतोष है। किसान चाहते हैं कि अधिग्रहित भूमि के बदले भूखंड सभी को सामान मिले।
इन किसानों की तीसरी मांग है कि ग्रामीण आबादी को भवन निर्माण नियमावली से बाहर किया जाये। नोएडा क्षेत्र में लगभग 81 गांव हैं।
प्राधिकरण का मानना है कि उत्तरप्रदेश इंडस्ट्रियल एरिया डेवलपमेंट एक्ट 1976 के अधिसूचित क्षेत्र में बिना प्राधिकरण की अनुमति के भवन निर्माण नहीं किया जा सकता।
प्राधिकरण ने नोएडा एरिया बिल्डिंग रेगुलेशन एक्ट 2010 बनाया है, जिसमें विभिन्न प्रकार के भवन जैसे आवासीय, व्यावसायिक आदि को बनाने के नियम हैं। जैसे कि भवन बनाते समय आगे, पीछे कितनी कितनी जमीन छोड़नी है आदि आदि।
ये गांव हजारों साल से बसे हैं। जैसे-जैसे गांवों की जनसंख्या में वृद्धि हुई, उसी के साथ गांव की आबादी की सीमाओं का भी विस्तार हुआ।
यह विस्तार भी भूमि की उपलब्धता और लोगों की जरुरत के हिसाब से साल दर साल हुआ - गैर योजनाबद्ध तरीके से। हजारों साल से बसे और विकसित हुए गांव पर नए नियम के अनुसार भवन निर्माण असंभव, अतार्किक और अव्यवहारिक है।
क्या पुरानी दिल्ली (चांदनी चौक, बल्ली मारान आदि ) और लुटियंस जोन अथवा ग्रेटर कैलाश में एक ही प्रकार के नियमों के अनुसार भवन निर्माण संभव है।
अब यदि गांव में कोई अपने पुराने मकान को तोड़ कर दोबारा बनता है या उसमें कोई बदलाव करता है तो प्राधिकरण के लोग (पटवारी, जूनियर इंजीनियर आदि ) आकर तुरंत काम रुकवा देते हैं। उसे रिश्वत देनी पड़ती है अन्यथा ध्वस्तीकरण अथवा सीलिंग कर दी जाती है।
इस नियम की आड़ में किसान का बहुत शोषण हो रहा है। ग्रामीण लोग, जिनमें किसान और भूमिहीन लोग दोनों शामिल हैं वे चाहते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र भवन नियमावली से मुक्त हों।
पिछले कई सालों से किसान इन मुद्दों को लेकर लड़ाई लड़ रहे हैं। हर बार प्राधिकरण के अधिकारी शीघ्र निदान का आश्वासन देकर आंदोलन को स्थगित करवाते रहे हैं। लेकिन इस बार लड़ाई आर पार की है। प्राधिकरण कार्यालय की ओर जाने वाले सभी रास्तों की किलाबंदी की हुई है।
किसान हरौला गांव के समुदाय भवन में डेरा डाले हैं। पिछले 24 सितम्बर 2021 को हुई प्राधिकरण के बोर्ड की बैठक में इन विषयों के समाधान की आशा थी, लेकिन इनपर कोई विचार ही नहीं किया।
इस वजह से नोएडा के किसान आंदोलन कर रहे हैं। आंदोलन की अगुआई रिटायर्ड फौजी सुखबीर खलीफा कर रहे हैं। वे खुद किसान हैं और पिछले कई सालों से इस लड़ाई को लड़ते हुए कई बार जेल भी गए हैं।
आंदोलन गैर राजनैतिक है और किसान इसमें स्वयं जुड़ रहे है। पिछले 10 – 12 सालों से मैं स्वयं प्राधिकरण के साथ संघर्ष कर रहा हूँ। सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के तहत भी सूचनाएं ली हैं और फाइलों को खंगाला है।
दो बड़े अधिकारीयों के ऊपर सूचना नहीं देने के कारण राज्य सूचना आयोग ने 25000 रुपए का आर्थिक दंड भी लगाया गया, लेकिन प्राधिकरण की कार्यशैली में पारदर्शिता और ईमानदारी का घोर अभाव है।
किसान को दिए जाने वाले 5% प्लॉट अधिकांश किसानों को आसानी से आवंटित नहीं होते। प्राधिकरण के चक्कर लगाते-लगाते जूते घिस जाते हैं। और इसी कारण अधिकांश किसान परेशान होकर उस प्लाट को दलालों को बेचने को मजबूर हो जाते हैं।
एक बार जब प्लॉट किसान ने बेच दिया तो दलाल लोग पैसे देकर उन्हें अपनी पसंद की जगह पर लगवा लेते हैं। किसानों की मांगे जायज हैं, क्षेत्र के जन प्रतिनिधि ये लोग भी मानते हैं लेकिन इतने प्रभावशाली व्यक्ति होने के बावजूद इन जनप्रतिनिधियों की उदासीनता और अकर्मण्यता चिंता का विषय है।