डाउन टू अर्थ विशेष: विदेशी व संकर नस्ल की गायों पर क्यों भारी पड़ रही हैं देशी गाय?

पशुपालक अब विदेशी व संकर नस्ल की गायों की बजाय देशी गायों को पाल रहे हैं
हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में प्राकृतिक खेती करने वाले गगनपाल सिंह देसी साहिवाल गाय पालते हैं। उन्हें लगता है कि भारतीय परिस्थितियों में देसी गाय ही सबसे उपयुक्त हैं (फोटो: अनामिका यादव/सीएसई)
हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में प्राकृतिक खेती करने वाले गगनपाल सिंह देसी साहिवाल गाय पालते हैं। उन्हें लगता है कि भारतीय परिस्थितियों में देसी गाय ही सबसे उपयुक्त हैं (फोटो: अनामिका यादव/सीएसई)
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अरविंद कुमार ने 2019 में बहुत उम्मीदों के साथ अपने रिश्तेदार से एक लाख रुपए कर्ज लेकर दो जर्सी गाय खरीदी थीं। मगर, उनकी उम्मीदें ताश के पत्तों की तरह बिखर गईं। वह बताते हैं, “लगातार देखभाल करने के बावजूद गाय प्रायः बीमार पड़ जाती थीं। गर्मी के मौसम में दूध देना भी कम कर देती थीं। दूध देने के लिए गायों का गर्भाधान जरूरी होता है, लेकिन इन गाय में गर्भाधान भी मुश्किल था।”

उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के दुर्गापुरा गांव के रहने वाले अरविंद कुमार एक किसान हैं। उन्होंने पिछले साल ही दोनों जर्सी गायों को बेचकर 32,000 रुपए में देसी नस्ल की तीन गाय खरीद लीं।

उत्तर प्रदेश से करीब 1,300 किलोमीटर दूर ओडिशा के कटक जिले के पाटापुर गांव के किसान सुरेंदर साहू की कहानी भी कमोबेश अरविंद कुमार जैसी ही है। साहू बताते हैं, “हम इन्हें ठंडक देने की भरपूर कोशिश करते हैं लेकिन गर्मियों में इन विदेशी नस्ल की गाय के मुंह से हमेशा झाग निकलता है और वे हांफती हैं। इनकी दूध देने की क्षमता में भी काफी गिरावट आ जाती है।”

दो साल पहले उन्होंने एक जर्सी गाय बेच दी और दूसरी को भी बेचने की योजना बना रहे हैं। उनके पास दो देसी नस्ल की गाए भी हैं, जो गर्मी और बीमारियों को झेलने की आदी हैं।

गायों को लेकर किसानों के इस नजरिए से प्रतीत होता है कि वे विदेशी नस्ल की जगह देसी नस्ल की गायों को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। केंद्र सरकार ने डेयरी विकास कार्यक्रम “फूड ऑपरेशन” के अंतर्गत 1970 से अधिक दूध देने वाली होलिस्टन-फ्रीजियन, जर्सी, ब्राउन स्विस और रेड डेन जैसी विदेशी नस्ल की गायों को बढ़ावा देना शुरू किया। इससे भारत में दूध उत्पादन में इजाफा हुआ।

इस साल मार्च में केंद्र सरकार की थिंक टैंक नीति आयोग की ओर जारी श्वेत पत्र के अनुसार, साल 1973 में प्रति व्यक्ति दूध का उत्पादन महज 110 ग्राम था जो 2022 में बढ़कर 477 ग्राम पर पहुंच गया। दूध उत्पादन में भारत आज दुनिया में अग्रणी है और वैश्विक स्तर पर उत्पादित दूध में भारत की भागीदारी 24 प्रतिशत है।

स्वदेशी नस्लों की मिश्रित प्रजाति की देसी गाय की संख्या विदेशी नस्लों के मुकाबले अधिक है, लेकिन पशु गणना के 2007, 2012 और 2019 के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि देसी गाय की संख्या में 10 प्रतिशत की ही बढ़ोतरी हुई है, जबकि विदेशी या संकर नस्ल की गायों की संख्या में 76 प्रतिशत का इजाफा हुआ है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई), दिल्ली के शोध और फील्ड सर्वे से पता चलता है कि गर्म होती दुनिया में डेयरी किसान के लिए विदेशी या संकर प्रजाति की गायों का पालन किफायती साबित नहीं हो रहा है।

सीएसई ने आठ सूबों के 20 से ज्यादा डेयरी किसानों से बात की। बातचीत में कमोबेश सभी ने बताया कि विदेशी नस्ल की गाय शीतोष्ण क्षेत्र के अनुकूल हैं और गर्म व आर्द्रता वाले क्षेत्र में उन्हें संघर्ष करना पड़ता है।

इसके विपरीत, दूध उत्पादन के लिए मशहूर गुजरात की स्वदेशी नस्ल की गिर गाय हो या सुखाड़ क्षेत्र में भी दूध देने वाली असम की लक्ष्मी नस्ल की गाय जलवायु परिवर्तन के अनुसार खुद को ढालने में सक्षम हैं क्योंकि ये सदियों से भारतीय कृषि का अभिन्न हिस्सा रही हैं।

बेहतर अनुकूलन

उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के जैतपुरा गांव के किसान सुधाकर राजपूत याद करते हैं, “बचपन में हमारे पास सिर्फ देसी गैर-वर्णनात्मक गाय हुआ करती थीं। साल 1990 के दशक में मेरे पिता ने मवेशियों के झुंड में जर्सी गाय को शामिल किया। जर्सी गाय दूध तो अधिक देती थीं, मगर जल्द ही वे बीमार पड़ने लगीं और गर्भाधान में भी दिक्कत आने लगी।”

अब उनके पास केवल गैर वर्णनात्मक मवेशी और एक साहीवाल गाय है। साहीवाल, स्वदेशी प्रजाति की गाय है, जो अधिक दूध देने और गर्मी सहने के लिए विख्यात है। राजपूत कहते हैं, “देसी गाय शायद ही बीमार पड़ती हैं और अगर बीमार पड़ती भी हैं, तो पारंपरिक घरेलू उपचारों से आसानी से ठीक हो जाती हैं।” इटावा के जिला पशु अस्पताल के पशु चिकित्सक आरके त्रिपाठी कहते हैं कि वह रोजाना जितनी गाय का इलाज करते हैं, उनमें 15-16 गाय विदेशी या संकर नस्ल की होती हैं और देसी गाय सिर्फ दो से चार होती हैं।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के राष्ट्रीय पशु आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो के पूर्व प्रमुख डीके सदाना कहते हैं, “स्वदेशी मवेशियों में गर्मी को लेकर सहनशीलता और बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता दिखती है और वे चरम मौसमों में भी रह सकती हैं।” देसी नस्लों के शरीर छोटे, पसीने की ग्रंथि अधिक और गलकंबल बेहतर तरीके से विकसित होते हैं जो गर्मी को असरदार तरीके से बाहर निकालने में मददगार होते हैं।

आईसीएआर के सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च ऑन कैटल के प्रधान विज्ञानी रविंदर कुमार कहते हैं, “थारपारकर गाय (जो मुख्य रूप से राजस्थान में पाई जाती है और जिसका दोहरा इस्तेमाल किया जाता है) देसी गायों के स्थानीय जलवायु के अनुरूप खुद को ढाल लेने का बड़ा उदाहरण है। सर्दी में अधिक गर्मी पाने के लिए यह अपना रंग गाढ़ा कर लेती है।”

एशियन जर्नल ऑफ डेयरी एंड फूड रिसर्च में इस साल छपा उत्तर प्रदेश के शोधकर्ताओं का एक अध्ययन कहता है कि देसी नस्ल की गाय बैक्टीरिया जनित ट्रिपैनोसोमियासिस, टिक-जनित बेबसियोसिस और थेलेरियोसिस समेत अन्य बीमारियों के प्रतिरोध के लिए प्रख्यात हैं। मसलन, तमिलनाडु वेटरनरी एंड एनिमल साइंसेज यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं का 2021 का एक अध्ययन बताता है कि यूरोपीय नस्ल की गाय में उष्णकटिबंधीय थेलेरियोसिस रोग काफी गंभीर होता है और इसमें मृत्यु दर 40-90 प्रतिशत होती है जबकि स्थानीय क्षेत्रों की देसी नस्लों में मृत्यु दर तीन प्रतिशत हो सकती है।

दीर्घकालिक फायदे

विदेशी और संकर नस्लों की गाय को दूध उत्पादन को तेजी देने के लिए पशुपालन का हिस्सा बनाया गया था। लेकिन, देसी नस्लों के विपरीत संकर नस्ल की गायों में दूध उत्पादन में तेजी से गिरावट आती है क्योंकि उनमें संकर का प्रभाव (दो नस्लों को मिलाकर संकर नस्ल तैयार करने से उनके उत्पादन में इजाफा होता है) कम होने लगता है‌।

साल 2020 में आईसीएआर-नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीट्यूट, करनाल की ओर से किए गए एक अध्ययन के अनुसार, संस्थान ने ब्राउन स्विस और साहीवाल प्रजाति के बीच लैंगिक संसर्ग कराकर करन स्विस नस्ल तैयार की थी। इस नस्ल की पहली पीढ़ी में दूध उत्पादन में 65 फीसदी तक बढ़ोतरी हुई, लेकिन दूसरी पीढ़ी में दूध देने की क्षमता में 24.5 प्रतिशत तक की गिरावट आ गई।

इसके साथ ही देसी मवेशी के विपरीत विदेशी या संकर मवेशियों की खरीद और देखभाल खर्चीला है। इन्हें पौष्टिक आहार, नियमित स्नान, पंखे और अलग बाड़ा चाहिए। रविंदर कुमार कहते हैं, “पर्याप्त पौष्टिक आहार नहीं मिलने से इस नस्ल के मवेशियों में न केवल बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है बल्कि वे बांझ भी हो जाते हैं। मगर देसी नस्ल के मवेशी चराई से ही पलते-बढ़ते हैं और उन्हें विशेष देखभाल या अलग बाड़े की जरूरत भी नहीं पड़ती (देखें, लंबी दौड़ के लिए बेहतर,)।”



शमन की क्षमता

जैसे-जैसे दुनिया जलवायु शमन और अनुकूलन की तरफ बढ़ रही है, उत्सर्जन कम करने के लिए कृषि सहित सभी क्षेत्रों को लक्षित किया जा रहा है। कृषि क्षेत्र में उत्सर्जन कम करने में एक अहम घटक मवेशियों की पाचन क्रिया है, जिसमें जुगाली करने वाले जानवर मसलन मवेशी, भेड़ और बकरियां शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस मीथेन छोड़ते हैं।

केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु मंत्रालय द्वारा संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन को दी गई तीसरी द्विवार्षिक अद्यतन रिपोर्ट (बीयूआर) कहती है कि साल 2016 में भारत के कृषि क्षेत्र ने 4,070.8 लाख टन कार्बन-डाईऑक्साइड का उत्सर्जन किया, जिसमें मवेशियों द्वारा छोड़े गए मीथेन की हिस्सेदारी 54.7 प्रतिशत थी।

भारत में मवेशियों की बड़ी संख्या को अक्सर उत्सर्जन की समस्या के रूप में देखा जाता है। लेकिन तीसरी द्विवार्षिक अद्यतन रिपोर्ट के मुताबिक, एक देसी डेयरी मवेशी एक साल में 28±5 किलो मीथेन का उत्सर्जन करता है, जबकि एक संकर नस्ल का मवेशी एक साल में 43±5 किलो मीथेन छोड़ता है।

एनडीआरआई के नेशनल इनोवेशंस ऑन क्लाइमेट रेजीलिएंट एग्रीकल्चर सेंटर के प्रधान विज्ञानी आशुतोष कहते हैं कि अपने आकार में छोटे होने और प्रभावी उपापचय के चलते देसी नस्ल की गाय अपेक्षाकृत कम उत्सर्जन करती हैं। वे घरेलू, चराई और छोटे किसानों के बीच फूलते फलते हैं, जिससे कार्बन उत्सर्जन और भी कम होता है।

संरक्षण के उपाय

भोजन और आजीविका उपलब्ध कराने में पशुपालन व खेती की महत्वपूर्ण भूमिका के चलते मवेशियों से होने वाले उत्सर्जन को भारत “अस्तित्व के लिए उत्सर्जन” मानता है। स्वदेशी मवेशियों की नस्लें निस्संदेह भारत को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने, किसानों को आर्थिक रूप से समर्थन देने और ग्रामीण समुदायों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और अनुकूलित करने में मदद कर सकती हैं।

भारत में स्वदेशी मवेशियों के संरक्षण पर केंद्रित कुछ पहल हुईं हैं। दिसम्बर 2014 में शुरू हुई केंद्र सरकार की राष्ट्रीय गोकुल मिशन स्कीम में कई घटक हैं। इनमें उच्च आनुवांशिक गुण वाले जर्मप्लाज्म की उपलब्धता, कृत्रिम तरीके से वीर्यारोपग के जरिए तेजी से नस्लों में सुधार, आईवीएफ, लिंग निर्धारित सीमेन सेंटर, किसानों में जागरुकता और कौशल विकास शामिल हैं। 2021-26 तक चलने वाली इस स्कीम पर 2,400 करोड़ रुपए खर्च होंगे।

हालांकि, भारत में देसी मवेशी की नस्ल के सीमेन की किल्लत है। साल 2019-2020 भारत में 56 सीमेन स्टेशन मौजूद हैं, लेकिन अधिकतर स्टेशन भैंस के सीमेन और विदेशी या संकर नस्ल के मवेशियों के जर्मप्लाज्म की मांग ही पूरी करते हैं। ये सीमेन स्टेशन, दूध उत्पादन के लिए जानी जाने वाली स्वदेशी नस्ल के 37 मवेशियों में से सिर्फ 9 नस्लों का जर्मप्लाज्म ही उपलब्ध कराता है।

राज्य प्रजनन नीतियों के तहत इन्हीं नौ नस्लों की मांग है। औसतन हर स्टेशन महज दो से तीन स्वदेशी नस्ल के मवेशियों के ही सीमित सीमेन डोज का उत्पादन करता है। अधिकतर स्वदेशी नस्लों के गुणवत्तापूर्ण सीमेन की कमी ब्रीडरों को भी खराब नस्ल या अज्ञात अनुवांशिक क्षमता वाले सांड पर निर्भर बनाते हैं।

केंद्र सरकार के आकांक्षी जिला का परिवर्तन का साल 2019 का मिशन मूल्यांकन कहता है कि राष्ट्रीय गोकुल मिशन के पहले चरण में कृत्रिम प्रजनन के लिए उच्च आनुवांशिक गुणों वाले 5,471 सांडों का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन 2019 तक केवल 1,841 सांडों को ही शामिल किया जा सका।

इसी तरह, कृषि, पशुपालन और खाद्य प्रसंस्करण पर संसद की स्थायी समिति की 49वीं रिपोर्ट बताती है कि इस मिशन के अंतर्गत 50 एम्ब्र्यो ट्रांसफर टेक्नोलॉजी और आईवीएफ लेबोरेटरी और 10 सेक्स सॉर्टेड सीमेन स्टेशन स्थापित करने का लक्ष्य था, जिनमें से 19 लेबोरेटरी को ही मंजूरी मिल पाई और अब तक इनमें से 4 स्टेशन ही काम कर रहे हैं।

इस मिशन के तहत बुनियादी ढांचा तैयार करने और प्रजनन की सुविधा देने में भी चुनौतियां हैं। पशुपालन और डेयरी विभाग के एक अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि आईवीएफ को अपनाने में किसान इच्छुक नहीं हैं। भारत के डेयरी क्षेत्र में मुख्य रूप से कम गहनता वाला और छोटे झुंड का ढांचा है और यह भी संगठित प्रजनन को प्रभावी तरीके से लागू करने में चुनौतियां बनकर उभर रहा है।

कुछ राज्यों ने इन चुनौतियों से निपटने के लिए कुछ पहल की हैं। उत्तर प्रदेश, हरियाणा और बिहार, देसी गाय खरीदने और उनके पालन के लिए किसानों को प्रोत्साहन दे रहे हैं। हिमाचल प्रदेश न केवल दूध बल्कि प्राकृतिक व जैविक खेती में इस्तेमाल के लिए देसी गाय के पालन को प्रोत्साहित कर रहा है।

आबादी बढ़ाने के अलावा देसी गाय के दूध की मांग को सुधारने की भी जरूरत है। शहरी व्यावसायिक डेयरी लाभ केंद्रित होते हैं इसलिए वे दूध का उत्पादन बढ़ाने को प्राथमिकता देते हैं। गाजियाबाद के हेमंत डेयरी के हेमंत खुराना कहते हैं कि देसी गाय के दूध की मांग बढ़ रही है, लेकिन अधिक दूध और उसमें फैट की मात्रा के लिए डेयरी मालिक संकर नस्ल की गाय और भैंसों को तरजीह देते हैं (देखें, नीतियों में प्रोत्साहन)।



सिर्फ शुद्ध देसी नस्ल की गाय का दूध उपलब्ध कराने वाले संपन्न डेयरी दुकानों में इजाफे का ट्रेंड भी दिख रहा है। लेकिन सीमित मांग और उपभोक्ताओं में जागरुकता की कमी के चलते ये दुकानें ग्राहकों के एक सीमित समूह को 120 से 170 रुपए प्रति लीटर की प्रीमियम कीमत पर बेचती हैं। देसी गाय के दूध को प्रोत्साहित करने के लिए दूध सहकारिता की स्थापना से मांग में सुधार हो सकता है।

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