तीसरी कड़ी : मिट्टी में लौटने लगे कीटमित्र लेकिन पैदावार बनी बड़ी चिंता

सरकार भले ही 23 फसलों की एमएसपी की घोषणा करती हो लेकिन वह तीन से चार चुनिंदा फसलों की ही खरीददारी करती है
फोटो: विकास चौधरी
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अलग-अलग किस्मों की फसलें यानी फसल विविधीकरण 1980 के दशक के उत्तरार्ध से ही पंजाब में चर्चा का विषय रहा है। दरअसल उसी दौर में अर्थशास्त्री एसएस जोहल की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने पंजाब के प्रमुख धान-गेहूं चक्र से अलग फसल पैटर्न में विविधता लाने के लिए पहली सिफारिशें की थीं।

पिछले कुछ वर्षों में केंद्र और राज्य स्तर पर विभिन्न सरकारों ने अपनी-अपनी नीतियां बनाई हैं। लेकिन इन नीतियों से एक तरह की तयशुदा फसलों को लगातार लगाने (मोनोकल्चर) को समाप्त करने के वांछित परिणाम नहीं मिले हैं।

धान-गेहूं चक्र के आने से पहले पंजाब के खेती अभ्यास के बारे में बात करते हुए रणदीप ने कहा, “एक समय में कपास मुख्य फसलों में से एक थी। तब मिट्टी नरम हुआ करती थी क्योंकि कपास को धान जितना पानी या सिंचाई की जरूरत नहीं होती थी। उस नरम मिट्टी में कपास के पौधे की जड़ें गहराई तक जाती थीं और मिट्टी में मौजूद माइकोराइजा (एक कवक) से लाभ उठाती थीं। अब, कपास की खेती पूरी तरह से खत्म हो गई है।”

मालवा क्षेत्र को कभी पंजाब का सूखा क्षेत्र कहा जाता था और यहां कपास, ज्वार, बाजरा, ग्वार और दालें जैसी सूखी फसलें होती थीं।

रणदीप बताते हैं "कई साल पहले, गेहूं की एक फसल के बाद, अगले सीजन में किसान गेहूं की फसल छोड़कर चना या ग्वार की फसल बोते थे। हरित क्रांति के दौरान यह चक्र टूट गया।"

हरित क्रांति के कई साल बाद भी यह चलन था। लेकिन धान और गेहूं पर मिलने वाले सुनिश्चित और अच्छे रिटर्न ने किसानों को इन्हें छोड़ने पर मजबूर कर दिया।

रणदीप जैसे किसान 20 साल पहले तक कपास की फसल बोते थे। लेकिन कम रिटर्न और बीटी कपास पर कई सालों तक कीटों के हमले के कारण किसानों ने अब या तो फसल के तहत आने वाले क्षेत्र को काफी कम कर दिया है या इसे पूरी तरह से खत्म कर दिया है।

फसल विविधीकरण की विफलता का एक प्रमुख कारण कम रिटर्न और अन्य फसलों के लिए सुनिश्चित बाजार की अनुपस्थिति है, जिसके कारण किसान पारंपरिक फसल पैटर्न को जारी रखते हैं।

हर फसल सीजन से पहले केंद्र सरकार 23 फसलों के लिए एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की घोषणा करती है हालांकि, जमीनी स्तर पर धान, गेहूं और कभी-कभी सोयाबीन जैसी दो या तीन फसलें ही सरकार द्वारा घोषित कीमतों पर खरीदी जाती हैं। बाकी फसलें निजी व्यापारियों द्वारा खरीदी जाती हैं, जिनके पास एमएसपी या उससे अधिक दर पर खरीदने का कोई कानूनी बंधन नहीं है।

फलियों जैसी नाइट्रोजन फिक्सिंग फसलों का कोई सुनिश्चित बाजार नहीं है। इस साल राज्य में मूंग (हरा चना) का रकबा सबसे अधिक 67,000 हेक्टेयर रहा। लेकिन किसानों को इसे निजी व्यापारियों को निर्धारित एमएसपी 8,682 रुपये प्रति क्विंटल से काफी कम 6,000 रुपये प्रति क्विंटल के मूल्य पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा।

जीजीएस इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलॉजी में सतत नाइट्रोजन और पोषक तत्व प्रबंधन केंद्र के प्रमुख एन रघुराम ने कहा, " कृषि के गहन क्षेत्रों में खरीद विविधीकरण के बिना फसल विविधीकरण एक सपना ही है।" सभी फसलों के लिए एमएसपी की कानूनी गारंटी 2020-21 के ऐतिहासिक भारतीय किसान विरोध प्रदर्शनों की मुख्य मांगों में से एक थी। इस साल फरवरी से कई किसान इसी मांग को लेकर फिर से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।

क्या जैविक खेती एक स्पष्ट समाधान है?

रवदीप सिंह का 2.4 हेक्टेयर जैविक खेत रेगिस्तान में एक हरे-भरे उद्यान की तरह है। कुल फसल क्षेत्र में 0.4 हेक्टेयर कृषि वानिकी के अंतर्गत है। वह धान और गेहूं से लेकर मक्का, बाजरा, रागी (फिंगर मिलट), ज्वार, मौसमी सब्जियों और फलों की 40 किस्मों, गन्ना और हल्दी की खेती करते हैं।

रवदीप, जो फरवाही गांव के एकमात्र किसान हैं, जिन्होंने वाणिज्यिक उद्देश्यों और स्वयं के उपभोग दोनों के लिए पूरी तरह से जैविक खेती को अपनाया है। वह कहते हैं, "आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि मैंने रासायनिक खेती में खासकर सब्जियों में कुल कितने कीटनाशकों और उर्वरकों का इस्तेमाल किया है।"

यह 2011 की बात है जब उन्होंने एक बार में ही जैविक खेती को अपनाने का चरम कदम उठाया। 2009 में उनकी मां को कैंसर का पता चला। उन्होंने कहा, "हालांकि इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि गहन कृषि पद्धतियों ने बीमारियों में योगदान दिया है।"

छह साल पहले जब उन्होंने अपनी मिट्टी की जांच कराई थी, तो उनकी कृषि मिट्टी में कार्बनिक कार्बन 1.35 तक सुधर गया था। अब, उनका मानना ​​है कि यह 2 से 3 के बीच होगा। 2011 से पहले, यह 0.5 से भी कम था। मिट्टी की बनावट में काफी बदलाव आया है।

उन्होंने कहा, "मिट्टी नरम हो गई है। साथ ही अब खेत को साल में सिर्फ दो बार जोतना पड़ता है। रासायनिक खेती के दौरान, मैं डेढ़ महीने के अंतराल में धान की बुवाई से पहले कम से कम तीन से चार बार जुताई करता था।"

जिन कीटों को उन्होंने बचपन से नहीं देखा वह उनके खेतों में वापस आ गए हैं। 'कुम्यार' नाम के एक कीट को उठाते हुए उन्होंने कहा, "अगर यह आपके खेत में आता है, तो इसका मतलब है कि आपकी मिट्टी ठीक हो रही है।"

2011 से उन्होंने कोई कीटनाशक इस्तेमाल नहीं किया है। उन्होंने कहा, " नुकसानदायक कीट कभी-कभी आते हैं, लेकिन यह हमेशा सीमित हमला होता है, जिससे मैं बच सकता हूं।"

लेकिन अब पैदावार कैसी है?

2011 में जब वे पहली बार जैविक खेती कर रहे थे, तब विभिन्न फसलों की पैदावार सामान्य थी। 2012 से इसमें तेजी से गिरावट आने लगी। उन्होंने कहा, "अब यह कमोबेश स्थिर हो गई है। लेकिन अभी तक यह उस स्तर पर नहीं पहुंची है, जो रासायनिक खादों से मिलती थी। खासकर चावल और गेहूं में पैदावार अभी भी कम है।"

मिसाल के तौर पर रासायनिक खेती के जरिए एक हेक्टेयर में गेहूं कीऔसत पैदावार 50 क्विंटल है और 13 साल की जैविक खेती के बाद उनकी पैदावार एक हेक्टेयर में केवल 38 क्विंटल तक पहुंच पाई है।

उन्होंने डीटीई को बताया, "2011-12 में 20 हेक्टेयर से इसकी शुरुआत हुई थी।" यही मुख्य कारण है कि अधिकांश किसान रसायन मुक्त खेती की ओर ज्यादा भूमि क्षेत्र को स्थानांतरित नहीं कर पाए हैं।

रवदीप के खेत से करीब 3-4 किलोमीटर दूर संदीप बावा का खेत है। वे रवदीप के जैविक खेती की तरफ जाने के बारे में जानते हैं और इस बात से सहमत हैं कि रासायनिक खेती ने न केवल मानव स्वास्थ्य को बल्कि मिट्टी के स्वास्थ्य को भी प्रभावित किया है। साथ ही उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि वे अगले 10 वर्षों में भी पूरी तरह जैविक खेती नहीं कर सकते।

वह तर्क देते हैं “अगर हम पूरी तरह जैविक खेती करते हैं, तो पैदावार में भारी गिरावट आएगी। पैदावार को स्थिर होने में कम से कम चार से पांच साल लगेंगे। उस दौरान हम अपने खर्च कैसे पूरे करेंगे? हम खत्म हो जाएंगे।”

2014 में गुलाब ने अपने 6 हेक्टेयर खेत में से 0.6 हेक्टेयर भूमि पर जैविक खेती करने का प्रयोग किया। दो साल बाद ही उन्होंने रवदीप की तरह पूरी तरह जैविक खेती करने का फैसला किया और 2018 में उन्हें प्रति हेक्टेयर एक लाख का भारी नुकसान हुआ।

वे जैविक खेती के जरिए अपनी पैदावार से उत्पादन लागत भी नहीं निकाल पाए। 2018 में उन्होंने 5.4 हेक्टेयर में फिर से रासायनिक खेती शुरू कर दी, जबकि 0.6 हेक्टेयर को खुद के उपभोग के लिए जैविक खेती के तहत ही रखा।

कई किसानों ने कहा कि किचन गार्डन और जैविक खेती के तहत कुछ सब्जियां उगाने का एक ऐतिहासिक चलन रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उनमें से कई ने अपने भोजन के लिए पूरी तरह जैविक खेती करना शुरू कर दिया है।

यह किसी राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय योजना से प्रेरित नहीं है, बल्कि उनके अपने स्वास्थ्य के बारे में चिंताओं से प्रेरित है।

गुलाब ने कहा, "हम केवल इस बारे में सोच पाए हैं कि हम कैसे बेहतर खा सकते हैं। हम उस स्तर पर नहीं पहुंचे हैं जहां हम देश को बेहतर खाने के लिए सक्षम बना सकें।"

इसी तरह सुखविंदर के खेत में परिवार ने 2018 में स्वयं के उपभोग के लिए जैविक खेती के तहत सब्जी की खेती के लिए 0.8 हेक्टेयर अलग रखना शुरू कर दिया। पांच साल बाद, उन्होंने देखा कि इस छोटे से जमीन के टुकड़े पर केंचुए वापस आ गए हैं।

केवल ने कहा, "लेकिन बाकी (19.8 हेक्टेयर खेत) बर्बाद हो गया है।"

तीन कड़ी में पेश यह स्टोरी एशिया प्रशांत क्षेत्र में मिट्टी पर अपनी सहयोगी रिपोर्ट "ग्राउंड ट्रुथ्स" के लिए अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क के समर्थन से तैयार की गई है

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