जलवायु परिवर्तन के दौर में पशुचारण और पशुचारकों की स्थिति

संयुक्त राष्ट्र के कृषि एवं खाद्य संगठन (एफएओ) ने पशुचारकों की स्थिति में सुधार के लिए एक अपील जारी की है
भारत में पशुचारकों की संख्या 1.3 करोड़ से अधिक है। फोटो: राजू सजवान
भारत में पशुचारकों की संख्या 1.3 करोड़ से अधिक है। फोटो: राजू सजवान
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चरवाहों की जिन्दगी गतिशील होती है। प्राचीन काल से वे विभिन्न जलवायु स्थिति में अपनी आजीविका की तलाश में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में घूमते रहे हैं। उनकी इस गतिशीलता की रक्षा को राष्ट्रीय समर्थन मिले, इसके लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक अपील जारी की है। इस अपील के जारी होने के बाद, दुनिया का ध्यान इस प्राचीन व्यवस्था की तरफ गया है।

प्लेइस्टोसिन युग के अंत तक (जो लगभग 26 लाख साल पहले शुरू हुआ और 11,700 साल पहले तक चला), पशुपालन या पशुधन के लिए एक व्यापक चराई प्रणाली विकसित हो चुकी थी। यानी, व्यवस्थित तरीके से खेतीबाड़ी शुरू होने से पहले ही पशुचारण (पशु चराने का काम) व्यवस्था बन चुकी थी। इस प्रकार यह प्रणाली एक नई जलवायु स्थिति में और होमोसेपियन्स के लिए जीविका स्रोत के रूप में विकसित हुई।

इस प्राचीन तरीके को अभी तक बहुत कम समझा गया है या इस पर कम लिखा गया है, लेकिन यह तरीका अब भी जारी है। दुनिया भर में, 10 से 20 करोड़ लोग (भारत में 1.3 करोड़) अभी भी इसे एक आर्थिक गतिविधि के रूप में अपनाए हुए हैं।

धरती के क्षेत्रीय सतह का एक चौथाई अभी भी इसी तरह के उत्पादन प्रणाली के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। जब यह प्रणाली शुरू हुई, तो पृथ्वी हिमयुग से धीरे-धीरे गर्म (मानव-प्रेरित नहीं, जो औद्योगिक क्रांति के साथ शुरू हुआ था) होती जा रही थी।

इसी वक्त आज के मानव पूरी धरती पर पाए जाने लगे थे। चारागाह और चराई से जुड़ी प्रणाली आमतौर पर कठोर जलवायु क्षेत्रों में पाई जाती हैं और निर्विवाद रूप से ये सबसे अधिक संसाधन-दुर्लभ भौगोलिक क्षेत्र में पाए जाते हैं। यानी, यह प्रणाली जलवायु-लचीला और किसी भी जलवायु परिस्थिति के अनुकूल है।

यह प्रणाली चरागाहों तक समय-समय पर पहुंचने वाले लोगों और पशुओं की अप्रतिबंधित गतिशीलता के इर्द-गिर्द घूमती है। इस प्रणाली में पशुपालक राष्ट्रीय सीमाओं, अंतर्देशीय सीमाओं को पार करते हैं और निजी और सार्वजनिक जमीन का इस्तेमाल करते हैं।

पशुपालन भी फसल प्रणाली के साथ ही पनपता है, क्योंकि वे एक दूसरे को लाभान्वित करते हैं। खेतों से मिलने वाले फसल अवशेष पशुओं के लिए चारा बन जाते हैं और पशु से किसानों को खाद मिल जाता है।

लेकिन, इस प्रणाली के साथ भी चुनौती आ खड़ी हुई है। आधुनिक प्रणालियों ने इस प्रणाली को अनावश्यक रूप से खारिज कर दिया है। दुनिया भर के पर्यावरण विभागों ने चराई को पर्यावरण के लिए खतरा करार दिया है।

समय के साथ कृषि नीतियों ने उत्पादकता बढ़ाने के तरीके के रूप में स्थायी कृषि और पशुधन खेती को प्राथमिकता दी है। नतीजतन, पशुचारण को गुमनामी में धकेल दिया गया।

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) ने "मेकिंग वे: डेवलपिंग नेशनल लीगल एंड पॉलिसी फ्रेमवर्क फॉर पैस्टोरल मोबिलिटी" जारी की है।

इस अपील में चराई प्रणाली और इससे संबंधित लोगों और उनकी गतिशीलता की रक्षा करने के तरीके को ले कर कुछ सुझाव और सिफारिशें दी गयी है। यह अपील इस प्रणाली के समर्थन के तौर पर सामने आई है।

एफएओ का नवीनतम दस्तावेज कहता है, "पशुपालकों को पिछड़ा और अनुत्पादक माना जाता है और ऐतिहासिक रूप से प्रतिकूल कानूनों की वजह से उन्हें कम कर के आंका गया है। पशुचारक संसाधन की कमी और गतिशीलता पर प्रतिबंधों के प्रति संवेदनशील होते हैं। चूंकि उन्हें उत्पादक क्षेत्रों से बाहर कर दिया जाता है, इसलिए उन्हें सीमित उपलब्ध चराई संसाधनों पर निर्भर होना पड़ता है। गतिशीलता की रक्षा और विनियमन करने वाले कानून के अभाव में, पशुचारक अन्य संसाधन उपयोगकर्ताओं और राज्य के साथ संघर्ष में फंस जाते हैं।"

पशुचारण को हमेशा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाला मान कर इसे ख़त्म किए जाने की बात कही जाती है। यानी, पशुचारण को आर्थिक गतिविधि के रूप में प्रोत्साहित करने के लिए पर्याप्त उत्पादक नहीं माना जाता है। लेकिन, यूरोप, अफ्रीका और एशिया सहित कई देशों में इसके पुनरुद्धार के लिए आवाजें उठी हैं।

यह कहा जा रहा है कि इस प्रणाली के कई पर्यावरणीय और आर्थिक लाभ हैं। पशुचारक प्राकृतिक खाद के उत्पादक और वितरक होते हैं। ऐसी खाद की कीमत सालाना 45 अरब डॉलर होने का अनुमान है।

विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि आधुनिक प्रणालियों की तुलना में पशुचारण प्रणाली में प्रति यूनिट फ़ीड में अधिक प्रोटीन उत्पादन होता है। भारत में, पशुचारण का कुल मांस उत्पादन में 70 प्रतिशत से अधिक और कुल दूध उत्पादन में 50 प्रतिशत हिस्सा है।

मीट एटलस 2021 का अनुमान है, "पशुधन क्षेत्र का हिस्सा भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 4.5 प्रतिशत है, जिसमें दो-तिहाई हिस्सा पशुचारण उत्पादन से आते हैं।"

इसके अलावा, यह सबसे कठिन भौगोलिक क्षेत्रों में सबसे गरीब समुदायों की अर्थव्यवस्था है। यह प्रणाली बदलती जलवायु परिस्थितियों से अधिक प्रभावी ढंग से लड़ने के लिए विकसित हुई है। इसलिए, यह सबसे गरीब लोगों के लिए जीविका के एक व्यवहार्य स्रोत के रूप में अब भी बना हुआ है।

इस प्रणाली को मिलने वाला नीतिगत समर्थन असल में सबसे कठिन जलवायु स्थिति में रहने वाले सबसे गरीब लोगों की अर्थव्यवस्था को लचीला बनाने की दिशा में एक प्रभावी कदम होगा।

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