वरदान बनी ‘ग्राफ्टिंग’ की नई तकनीक, जलवायु से जूझते छोटे किसानों को मिलेगा बड़ा सहारा

आंध्र प्रदेश के किसानों को इस तकनीक की मदद से काफी फायदा हुआ है। इससे उनकी सब्जी की पैदावार में 30 से 150 फीसदी तक की बढ़ोतरी देखी गई
अपनी टमाटर की फसल को दिखाता किसान; फोटो: इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (इक्रीसेट)
अपनी टमाटर की फसल को दिखाता किसान; फोटो: इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (इक्रीसेट)
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सब्जियों, फलों की खेती कर रहे किसानों के लिए उम्मीद की एक नई किरण दिखी है। इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (इक्रीसेट) के नए अध्ययन से पता चला है कि, ‘सब्जियों की नई ग्राफ्टिंग’ तकनीक किसानों के लिए बेहद फायदेमंद है। इससे न केवल पैदावर में वृद्धि होती है। साथ ही यह बदलती जलवायु और विषम परिस्थितियों में भी पौधे को पनपने और फलने में मदद करती है।

इक्रीसेट के मुताबिक अगर यह तकनीक प्राकृतिक रूप से हवादार पॉलीहाउस जैसी संरक्षित खेतों में अपनाई जाए, तो इसकी मदद से फसलों की पैदावार और छोटे किसानों की आमदनी में बड़ा इजाफा हो सकता है। वैज्ञानिकों को भरोसा है कि यह तकनीक जलवायु से जूझते किसानों के लिए वरदान बन सकती है।

इस अध्ययन के नतीजे जर्नल फ्रंटियर्स इन एग्रोनॉमी में प्रकाशित हुए हैं।

अध्ययन से पता चला है कि ग्राफ्टिंग की इस नई तकनीक में एक बेहतर उत्पादन देने वाली सब्जी की किस्म को कलम की मदद से मुश्किल हालात में भी पनप सकने वाले पौधे की जड़ से जोड़ा जाता है। इससे ऐसे पौधे तैयार किए जा सकते हैं जो विषम मौसम में भी अच्छी तरह से बढ़ते हैं, जहां पारंपरिक खेतों में अक्सर फसलें नुकसान झेलती हैं।

टमाटर में मिला शानदार परिणाम

अध्ययन के दौरान जब टमाटर के पौधे को सोलेनम टॉरवम नामक जड़ों पर ग्राफ्ट करके पॉलीहाउस में उगाया गया तो उसकी पैदावार खुले खेतों में उगाए बिना ग्राफ्टिंग वाले पौधों की तुलना में 63.8 फीसदी तक अधिक रही। इस ग्राफ्टिंग तकनीक से उगाए गए पौधे ज्यादा मजबूत थे। इन्होने अधिक दिनों तक फल दिए। अध्ययन के दौरान इनसे तीन से पांच बार पैदावार ली गई। इसके साथ-साथ यह पौधे पर्यावरण से जुड़े तनावों जैसे कीटों, गर्मी आदि के प्रति भी कहीं ज्यादा सहनशील थे।

यह परिणाम दर्शाते हैं कि ग्राफ्टिंग तकनीक टमाटर और इसी तरह की अन्य सब्जियों (सोलेनेसियस) की पैदावार को बढ़ाने का एक प्रभावी तरीका है।

इक्रीसेट के अनुसंधान एवं नवाचार विभाग के उप महानिदेशक डॉक्टर स्टैनफोर्ड ब्लेड ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा, "सब्जियों की ग्राफ्टिंग तकनीक, खासकर संरक्षित कृषि (पॉलीहाउस) के साथ मिलकर, छोटे किसानों के लिए एक बदलाव लाने वाली तकनीक है। अध्ययन से स्पष्ट है कि यह तरीका न केवल पैदावार और मुनाफे को बढ़ाता है, बल्कि किसानों को जलवायु-संवेदनशीलता से निपटने का व्यावहारिक और क्लाइमेट स्मार्ट समाधान भी प्रदान करता है।“

अध्ययन में बताया गया कि प्राकृतिक रूप से हवादार पॉलीहाउस में उगाई गई ग्राफ्टेड सब्जियों से सबसे अधिक कमाई हुई। इसका लाभ-लागत अनुपात भी सबसे बेहतर रहा। इससे साफ है कि यह तकनीक किसानों को जलवायु के बढ़ते जोखिम से बचाते हुए उनकी आर्थिक स्थिति को मजबूत कर सकती है।

अध्ययन में यह भी सामने आया है कि उपज में वृद्धि के अलावा, ग्राफ्टेड पौधों में पत्ते बड़े थे, इनमें क्लोरोफिल ज्यादा था और फलों का बेहतर विकास हुआ। इसका मतलब है कि बड़ी पत्तियों और क्लोरोफिल अधिक होने के कारण पौधे ज्यादा अच्छे से भोजन बना पाए और उनमें बेहतर फल लगे।

इस शोध के प्रमुख वैज्ञानिक डॉक्टर रोहन खोपड़े के मुताबिक यह तकनीक सिर्फ टमाटर तक सीमित नहीं है। इसे बैंगन, मिर्च, खीरा, लौकी, तरबूज जैसी कई फसलों में भी अपनाया जा सकता है। इससे विविध फसलों की उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है।

पैदावार में देखी गई 150 फीसदी तक की बढ़ोतरी

इक्रीसेट में प्रधान कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर गजानन सावरगांवकर ने आंध्र प्रदेश सरकार और इक्रीसेट की संयुक्त परियोजना की सफलता पर प्रकाश डाला है। उन्होंने कहा कि इस पहल की मदद से आंध्र प्रदेश के किसानों को काफी फायदा हुआ है। इससे किसानों की सब्जी उत्पादकता में 30 से 150 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई है।

इक्रीसेट में रेसिलिएंट फार्म एंड फूड सिस्टम्स के अंतरिम निदेशक डॉक्टर रमेश सिंह के मुताबिक ग्राफ्टिंग तकनीक उन जगहों पर सब्जी की खेती में बड़ा बदलाव ला सकती है, जहां मौसम बार-बार बदलता है। अगर सही समर्थन मिले, तो यह तरीका खेती में क्रांति ला सकता है। इससे लोगों की सेहत और किसानों की कमाई दोनों में सुधार आ सकता है।

जलवायु परिवर्तन के बढ़ते असर और खाद्य प्रणाली पर बढ़ते दबाव के बीच, सब्जियों की ग्राफ्टिंग एक ऐसा वैज्ञानिक और असरदार तरीका बन सकता है जिससे खेती बेहतर हो सकती है।

लेकिन इसका बड़े स्तर पर इस्तेमाल तभी संभव है जब किसानों को सही नीतिगत मदद मिले, सरकार और निजी क्षेत्र साथ काम करें और किसानों को सही प्रशिक्षण और जानकारी दी जाए। वैज्ञानिकों को भरोसा है कि यदि ऐसा किया जाए तो यह तकनीक जलवायु संकट के इस दौर में बिना किसी जेनेटिक बदलाव के खेती में नई जान फूंक सकती है।

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