महामारी ने ढाया कहर, फिर भी नहीं बदली किसानों ने डगर

सर्वे में शामिल 84 फीसदी भारतीय किसानों का कहना है कि उन्होंने महामारी के दौर में भी फसलों में बदलाव नहीं किया था। वहीं 62 फीसदी किसानों ने सस्टेनेबल फार्मिंग को अपनाने में रुचि दिखाई है
महामारी ने ढाया कहर, फिर भी नहीं बदली किसानों ने डगर
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भारतीय किसानों पर किए एक सर्वे से पता चला है कि महामारी के दौर में भी 84 फीसदी किसानों ने अपनी फसलों में कोई खास बदलाव नहीं किया था। 2019-20 में भी ज्यादातर किसानों ने उन्हीं फसलों पर भरोसा जताया था, जिन्हें वो लम्बे समय से बोते आए हैं।

इतना ही नहीं 66 फीसदी ने माना कि उनके उर्वरकों या कीटनाशकों के उपयोग में कोई बदलाव नहीं आया था। भारत एक कृषि प्रधान देश है जहां करीब आधी आबादी आज भी अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। देखा जाए तो देश में ज्यादातर किसान अपने खेतों में साल-दर-साल एक ही प्रमुख फसल के भरोसे रहते हैं। उनकी यह आदत महामारी के दौर में भी बरकरार थी। 

इस बारे में यूके के एडिनबर्ग विश्वविद्यालय और भारत में कॉउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर के शोधकर्ताओं द्वारा एक अध्ययन किया गया है, जोकि जर्नल प्लोस सस्टेनेबिलिटी एंड ट्रांसफॉर्मेशन में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक कोविड-19 महामारी ने भले ही कृषि में लेबर, सप्लाई चैन और किसानों की ऋण और बाजार तक पहुंच को बाधित किया है, लेकिन इसके बावजूद महामारी ने भारतीय किसानों को खेती की शाश्वत प्रथाओं को अपनाने के लिए प्रेरित नहीं किया है। देश में आज भी किसान उसी सालों पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं।

महामारी के दौरान किसानों द्वारा बोई गई फसलों के पैटर्न और साधनों के उपयोग संबंधी आदतों में क्या बदलाव आया है। साथ ही क्या किसान खेती की शाश्वत पद्धतियों को अपना रहे हैं इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 01 दिसंबर 2020 से 10 जनवरी 2021 के बीच एक टेलीफोनिक सर्वे किया था।

इस सर्वेक्षण में भारत के 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में रहने वाले 3,637 किसानों का साक्षात्कार लिया गया था। इनमें से 59 फीसदी छोटे और सीमान्त किसान थे, जबकि 72 फीसदी पुरुष और 52 फीसदी ऐसे किसान थे जो गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं।

62 फीसदी किसानों ने जताई सस्टेनेबल फार्मिंग को अपनाने में रुचि

सर्वे में शामिल 84 फीसदी किसानों ने माना कि उन्होंने महामारी के समय 2019-20 में भी अपनी फसलों में कोई बदलाव नहीं किया था। वहीं जिन किसानों ने इस दौरान अपनी फसलों के पैटर्न में बदलाव किया है उनकी सब्जी और सोयाबीन की खेती करने की सम्भावना सबसे ज्यादा थी, जबकि धान की खेती की सम्भावना सबसे कम थी।

यदि कृषि इनपुट की बात करें तो 66 फीसदी किसानों ने उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग में कोई बदलाव न करने सूचना दी है, जबकि 59 फीसदी ने कृषि श्रम में किसी तरह का बदलाव नहीं किया था। वहीं आधे से ज्यादा करीब 62 फीसदी किसानों का कहना था कि वो शाश्वत कृषि पद्दति को अपनाने में रूचि रखते हैं ऐसा सरकारी योजनाओं और उनके साथियों द्वारा इन प्रथाओं को अपनाने के कारण है।

वहीं यदि किसानों के स्वास्थ्य पर महामारी के पड़ने वाले असर की बात करें तो करीब 18 फीसदी किसानों ने कोविड सम्बन्धी लक्षणों जैसे खांसी, बुखार, या सांस लेने में तकलीफ की सूचना दी थी, जबकि उनमें से 37 फीसदी का कहना था कि इससे उनके काम करने की क्षमता प्रभावित हुई है।

भारतीय किसानों ने महामारी के दौर में भी यह साबित कर दिया था कि दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर क्या कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि महामारी के दौर में भी पैदावार में गिरावट नहीं आई थी। जहां 2020 की पहली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में 15 फीसदी की गिरावट आई थी उस समय भी कृषि एकमात्र ऐसा सेक्टर थी जिसमें 3.4 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई थी।

लेकिन इसके बावजूद कुछ समस्याएं हैं जो भारतीय कृषि के लिए बड़ा खतरा हैं। जैसे आहार की गुणवत्ता खराब बनी हुई है। मिट्टी खराब हो रही है, भूजल का स्तर गिर रहा है और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि जारी है।

ऐसे में भारत में भोजन उत्पादन और उपभोग संबंधी प्रथाओं में एक आदर्श बदलाव की जरुरत है। इस रिसर्च में यह स्पष्ट रूप से सामने आया है कि महामारी से पैदा हुए संकट और फूड सप्लाई चैन में आई बाधाओं के बावजूद ज्यादातर किसानों ने फसलों के पैटर्न और कीटनाशकों के उपयोग संबंधी प्रथाओं को बदलने के बारे में ध्यान नहीं दिया। हालांकि आधे से ज्यादा किसानों ने सस्टेनेबल फार्मिंग में रुचि दिखाई है, जिससे कीटनाशकों के उपयोग में कमी लाना महत्वपूर्ण है।

आज भी भारत में ज्यादातर नीतियां सीमित संख्या में प्रमुख फसलों विशेषकर गेहूं और धान को बढ़ावा देने के पक्ष में हैं। ऐसे में यदि किसानों को पोषक तत्वों से भरपूर फसलों को बढ़ावा देने पर ध्यान और सरकारी समर्थन दिया जाए तो वो फायदेमंद हो सकता है। साथ ही किसानों को प्रशिक्षण देने के लिए व्यापक नेटवर्क और बाजार से जुड़ाव भी इस तरह के संकटों से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

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