पूरे परिवार को तोड़ देती है आत्महत्या, महिला किसानों को गुजारनी पड़ती है विपदा की जिदंगी

23 वर्षों में खेती-किसानी से संबधित 353,802 लोगों ने आत्महत्या की है। वहीं, समान अवधि में 50,188 महिला किसानों ने आत्महत्या करना पड़ा है।
पूरे परिवार को तोड़ देती है आत्महत्या, महिला किसानों को गुजारनी पड़ती है विपदा की जिदंगी
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खेती-किसानी करने वालों की जिंदगी एक ऐसे डगर पर चल रही होती है कि जब वे फिसलते हैं तो कोई न कोई फंदा उनका गला कसने को तैयार रहता है। खेतों में काम करते हुए महिला किसानों को भी बड़ी पीड़ा का सामना करना पड़ रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 1995 से 2018 के बीच कुल 23 वर्षों में खेती-किसानी से संबधित 353,802 लोगों ने आत्महत्या की  है। वहीं, समान अवधि में 50,188 महिला किसानों ने आत्महत्या करना पड़ा है।। जिस घर में महिलाएं खुद फांसी के फंदे पर झूल गईं वह घर तो तबाह हुआ ही लेकिन जिस घर में किसी पुरुष किसान के फांसी लगने की खबर है वहां महिलाएं जीवन की विपदा भरी आपाधापी से एकदम टूट गईं हैं। ऐसी महिलाओं ने सरकार से बजट में उनके लिए प्रावधान और सहयोग करने की मांग उठाई है।

कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के जरिए एक ताजा अध्ययन (आईएसईईसी, अगस्त 2017)  के मुताबिक सर्वाधिक महिला किसानों ने तेलंगाना में आत्महत्याएं की हैं। इसके बाद गुजरात, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल का नाम शामिल है। रिपोर्ट के मुताबिक 303,597 महिलाएं या तो घर का काम संभालती हैं या फिर वे खेतों के लिए मजबूत हो गई हैं। यह संख्या अभी तक रिपोर्ट नहीं की जाती है और या तो इसका इस्तेमाल किसी दूसरे तरीके से किया जाता है।

महिला किसानों की विपदा को लेकर यूएन वूमैन और महिला किसान अधिकार मंच (मकाम) की ओर से नीतिगत तरीके से बदलाव के लिए आवाज उठाई गई है। कार्यकर्ता कविता कुरुगंती ने कहा कि किसान परिवार में आत्महत्या के बाद महिला किसानों को कई कष्ठ झेलने पड़ते हैं। मसलन उनको भू-अधिकार से वंचित किया जाता। उनकी अव्हेलना की जाती है। उनके साथ हिंसा और गलत कार्य भी किए जाते हैं। हमें इनके साथ खड़े होने की जरूरत है। करीब 70 फसीदी भारतीय महिलाएं खेतों में काम करने जाती हैं। हर तीन महिलाओं में एक महिला ग्रामीण भारत से हैं जो कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं। इसके बावजूद सिर्फ 13 फीसदी जमीनों का स्वामित्व उनके पास है और मौत के बाद प्राधिकरणों के जरिए यही महिला किसान अदृश्य कर दी जाती हैं। इतना ही नहीं इनके बच्चे स्कूलों से बाहर निकाल दिए जाते हैं।

कार्यक्रम में कई महिलाओं ने अपनी आप-बीती भी सुनाई। तेलंगाना के नालगोंडा जिले की पीए पल्ली ने कहा कि हम लीज पर जमीन लेकर खेती करते हैं। मेरे पति ने 2018 में आत्महत्या की थी। उनका कर्ज अब मेरे ऊपर है। करीब 6 लाख का कर्ज बकाया है। मैं स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता की मदद से सरकार से राहत पाने की कोशिश कर रही हूं। मैं कई महीनों से सरकारी कार्यालयों के चक्कर काट रही हूं लेकिन मुझे आजतक कोई सफलता नहीं मिली है। वहीं, तेलंगाना की ही महिला किसान कोर्रा शान्थि के मुताबिक उनके पति के नाम पर जमीन न होने की वजह से उनको मुआवजे की पात्रता के लिए अयोग्य मान लिया गया।

मकाम की कार्यकर्ता सीमा कुलकर्णी ने कहा कि अलग-अलग राज्यों के राहत और पुर्नवास पैकेजों में काफी फर्क है। कुछ राज्य कृषि संबंधित आत्महत्या को चिन्हित करने से ही कतराते हैं और कई पीड़ित परिवारों की महिला किसानों को पर्याप्त राहत मुहैया करानी की उचित नीतियों का ही अभाव है। आंध्र प्रदेश में प्रत्येक पीड़ित परिवारों को 7 लाख रुपये मुआवजा देने की नीति है जबकि महाराष्ट्र में जहां किसानों के आत्महत्या के मामले सबसे ज्यादा हैं वहां पीड़ित किसान परिवारों को सिर्फ 2 लाख रुपये का मुआवजा ही दिया जा रहा है। ऐसी विसंगतियां और राज्यों में भी हैं। पंजाब में मुआवजे का आवंटन बेहद निराशाजनक है और व्यवस्थागत तरीके से किसान आत्महत्या को ही नकारने के सारे प्रयास किए जा रहे हैं।  

मकाम की आशालता सत्यम ने कहा कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश का जमीनी दौरा किया गया। इसमें पाया गया कि आत्महत्या से ग्रसित परिवारों में बच्चों को अपनी पढ़ाई भी छोड़नी पड़ी है। केवल कर्नाटक राज्य में पीड़ित परिवारों के बच्चों की शिक्षा को सुनिश्चित करने का यहां तक कि फीस भुगतान का भी नीतिगत प्रावधान है। इसके बावजूद विभिन्न विभागों के समन्वय के अभाव में यह सुविधा पीड़ित परिवारों तक नहीं पहुंच रही है। महाराष्ट्र सरकार ने शिक्षा विभाग को ऐसी नीति का प्रस्ताव किया है और बाकी राज्यों में तो ऐसी कोई नीति ही लागू नहीं की गई हैं।

पंजाब की किरनजीत कौर एक पीड़ित किसान परिवार से हैं। उनके यहां भी परिवार के सदस्य को आत्महत्या करनी पड़ी। वे बताती हैं कि सरकार ने यह मानने से ही इनकार कर दिया कि किसान आत्महत्या करता है। सरकार ने इतने जटिल मानदंड बनाए हैं जो कि आत्महत्या की कटु सच्चाई को ही नकारते हैं।

मकाम की ओर से यह कहा गया है कि सरकार न सिर्फ ऐसी पीड़ित किसान महिलाओं के लिए बजट में विशेष प्रावधान करे बल्कि उनके जीवन को सरल और सुगम बनाने के लिए जमीनी कार्य भी शुरु किए जाने चाहिए।

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