चने के पौधों में लग सकती हैं जड़े सड़ने की बीमारियां, वैज्ञानिकों ने जताई चिंता

भारत में चने की फसल में लगने वाली यह बीमारी 30 से 35 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक तापमान, सूखे की स्थिति और मिट्टी में 60 फीसदी तक नमी की कमी के कारण होती है
संक्रमित चने की फसल और रोग से प्रभावित खेत
संक्रमित चने की फसल और रोग से प्रभावित खेत
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भारत में चने की फसल में बीमारी फैलाने वाले 'नेक्रोट्रॉफिक फाइटोपैथोजेनिक कवक राइजोक्टोनिया बटाटिकोला' से भारी नुकसान होने के आसार हैं। इस रोग के कारण सूखे की स्थिति में पौधों की जड़े सड़ने लगती हैं। निकट भविष्य में बदलते जलवायु परिदृश्यों के तहत औसत तापमान और असामान्य वर्षा पैटर्न के कारण इसमें वृद्धि हो सकती है।

अब भारतीय वैज्ञानिकों ने इस बात का पता लगाया है कि तापमान के बढ़ने से पडने वाले सूखे की स्थिति और मिट्टी में नमी की कमी से जड़ को सड़ा देने वाला रोग ड्राई रुट रॉट (डीआरआर) के आसार बढ़ जाते हैं। यह रोग चने की जड़ और तने को भारी नुकसान पहुंचाता है।

सूखे की स्थिति में जड़ को सड़ा देने वाले रोग के कारण पौधे की शक्ति कम हो जाती है। पत्तों का हरा रंग फीका पड़ जाता है, वृद्धि धीमी कम हो जाती है और तना मर जाता है। बड़े पैमाने पर जड़ को नुकसान होने से पौधे की पत्तियां अचानक मुरझाने के बाद सूख जाती हैं। वैज्ञानिकों ने बताया कि दुनिया भर के औसत तापमान में बढ़ोतरी के कारण पौधे में रोग पैदा करने वाले नए रोगाणुओं के बारे में अब तक अधिक जानकारी नहीं है।

इनमें एक मैक्रोफोमिना फेजोलिना भी शामिल है। यह एक मिट्टी से संबंधित नेक्रोट्रोफिक नामक परपोषी है, जो चने के पौधे की जड़ों में सड़न रोग पैदा करता है। वर्तमान में भारत के मध्य और दक्षिण के राज्यों में डीआरआर रोग की पहचान की गई है। इस रोग से ये इलाके सबसे अधिक प्रभावित हैं। इन राज्यों में चने की फसल का कुल 5 से 35 फीसदी हिस्सा संक्रमित होता है। 

इस रोग को फैलाने वाला सूक्ष्मजीव कृषि क्षेत्र में विनाशकारी असर दिखा सकता है। पौधों पर लगने वाला यह रोग निकट भविष्य में एक महामारी का रूप ले सकता है। इस तरह की स्थिति का सामना न करना पड़े इसके लिए इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (आईसीआरआईएसएटी) की डॉ. ममता शर्मा की अगुवाई में एक टीम ने चने में डीआरआर रोग के पीछे के विज्ञान को जानने की पहल शुरू की है।

डॉ. शर्मा ने कहा कि हमने इस रोग की बारीकी से निगरानी की है तथा इस बात का पता लगाया है कि यह रोग 30 से 35 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक तापमान, सूखे की स्थिति और मिट्टी में 60 फीसदी से कम नमी के कारण होता है।

यहां बताते चले कि आईसीआरआईएसएटी जलवायु परिवर्तन से होने वाले बदलावों पर कार्य करता है, यह भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की सहायता से चलता है।

वैज्ञानिकों की टीम ने इस बात का पता लगाया है कि मैक्रोफोमिना पर्यावरण की विभिन्न परिस्थितियों में जीवित रहता है। यहां तक कि तापमान, मिट्टी के पोटेंशियल ऑफ हाइड्रोजन मान (पीएच) और नमी की चरम स्थिति में भी ऐसा हो सकता है।

उच्च तापमान और सूखे की स्थिति में चने की फसल में फूल और फली आने के चरणों के दौरान डीआरआर रोग बहुत अधिक तेजी से फैलता है। वैज्ञानिक अब इस रोग से निजात पाने के लिए क्षेत्र में विकास और बेहतर प्रबंधन रणनीतियों के लिए इस अध्ययन के माध्यम से नए तरीके तलाश रहे हैं।

डॉ. शर्मा ने कहा इसके अलावा टीम आणविक दृष्टिकोण से पहचाने गए रोग तथा इसके अनुकूल परिस्थितियों को दूर करने की भी कोशिश कर रहे हैं। जीन एक्सप्रेशन अध्ययनों के एक हालिया शोध में वैज्ञानिकों ने कुछ चने के नए जीनों की पहचान की है, जो कि काइटिनेज और एंडोकाइटिनेस जैसे एंजाइमों के लिए एन्कोडिंग या बदलाव किया गया हैं। शोधकर्ताओं ने बताया कि यह डीआरआर संक्रमण के खिलाफ कुछ सीमा तक सुरक्षा प्रदान कर सकता है। यह अध्ययन 'फ्रंटियर्स इन प्लांट साइंस' में प्रकाशित किया गया है।

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