नैनो यूूरिया के इस्तेमाल के बाद घट गया उत्पादन और प्रोटीन, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने किया खुलासा

शोधकर्ताओं ने पाया कि नैनो यूरिया के उपयोग से गेहूं की पैदावार में 21.6 प्रतिशत और चावल की पैदावार में 13 प्रतिशत की कमी आई है
किसानों को यूरिया की बोरी की बजाय नैनो यूरिया अपनाने की सलाह दी जा रही है। फोटो: विवेक मिश्रा
किसानों को यूरिया की बोरी की बजाय नैनो यूरिया अपनाने की सलाह दी जा रही है। फोटो: विवेक मिश्रा
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नैनो यूरिया का इस्तेमाल करने से फसलों की उपज कम हो रही है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है। शोधकर्ताओं ने पाया कि नैनो यूरिया के उपयोग से गेहूं की पैदावार में 21.6 प्रतिशत और चावल की पैदावार में 13 प्रतिशत की कमी आई है। 

यह अध्ययन पीएयू में वरिष्ठ मृदा रसायनज्ञ राजीव सिक्का और नैनोसाइंस के सहायक प्रोफेसर अनु कालिया द्वारा साल 2020-21 और 2021-22 में किया गया था। नैनो यूरिया का इस्तेमाल करने से अनाज में नाइट्रोजन की मात्रा, जो प्रोटीन उत्पादन के लिए आवश्यक है, में भी गिरावट देखी गई।

जून 2021 में भारतीय किसान और उर्वरक सहकारी (इफको) द्वारा नैनो तरल यूरिया लॉन्च किया गया था, जिसमें दावा किया गया था कि नैनो यूरिया की 500 मिलीलीटर स्प्रे बोतल पारंपरिक उर्वरक के पूरे 45 किलोग्राम बैग का स्थान ले सकती है। केंद्र सरकार ने उर्वरक के विकास के बाद से इसे काफी बढ़ावा दिया है।

यूरिया सबसे अधिक नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों में से एक है, जो मिट्टी में आसानी से अमोनिया में परिवर्तित हो जाता है जो पौधों के लिए एक आवश्यक मैक्रोन्यूट्रिएंट का काम करता है। इफको के अनुसार, नैनो यूरिया में नाइट्रोजन कणिकाओं के रूप में होती है जो कागज की शीट से सौ-हजार गुना अधिक महीन होती है।

मृदा विज्ञान विभाग, पीएयू लुधियाना के अनुसंधान फार्मों में लगातार दो वर्षों तक यह अध्ययन किया गया। वैज्ञानिकों ने इफको-अनुशंसित प्रोटोकॉल के अनुसार नैनो यूरिया का इस्तेमाल किया था।  

शोध में उपज में कमी के अलावा चावल और गेहूं के अनाज में नाइट्रोजन कंटेंट में क्रमशः 17 और 11.5 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। 

नाइट्रोजन कंटेंट में कमी से प्रोटीन में कमी आ जाती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह भारत के लिए चिंताजनक है, क्योंकि भारत में अनाज ही प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट का मुख्य स्रोत हैं और अगर अनाज में प्रोटीन की कमी रहती है तो भारतीय लोगों को प्रोटीन की कमी का सामना करना पड़ेगा। 

सिक्का ने कहा, "भले ही इस नैनो फॉर्मूलेशन द्वारा 100 प्रतिशत उपज हासिल कर ली जाए, लेकिन 45 किलोग्राम पारंपरिक यूरिया द्वारा प्रदान की गई नाइट्रोजन की तुलना में अधिक उपज से आवश्यक नाइट्रोजन पोषक तत्व प्रदान नहीं किया जा सकता है।"

इसके अलावा, नैनो यूरिया फॉर्मूलेशन की लागत दानेदार यूरिया की तुलना में 10 गुना अधिक थी और इससे किसानों की खेती की लागत बढ़ जाएगी।

पिछले साल, डाउन टू अर्थ की चार-भाग की रिपोर्ट में इस बात पर गौर किया गया था कि नैनो तरल यूरिया ने खेत में कैसा प्रदर्शन किया और पाया कि उर्वरक का छिड़काव करने से किसानों के लिए इनपुट लागत बढ़ रही है और कोई उल्लेखनीय परिणाम नहीं मिल रहा है।

पीएयू द्वारा किए गए प्रयोगों से यह भी पता चला कि नैनो यूरिया के प्रयोग के बाद जमीन के ऊपर ट्रिलर बायोमास और जड़ की मात्रा कम हो गई, जिसके परिणामस्वरूप फसल की कटाई के बाद रूट बायोमास में कम वृद्धि हुई। इस वजह से रूट सरफेस एरिया में कमी आई, जिससे नाइट्रोजन सहित अन्य पोषक तत्व की कमी हो सकती है। 

वैज्ञानिकों ने यह भी बताया कि दूसरे वर्ष में उपज की कमी की भयावहता बढ़ गई, इससे लगता है कि उपज में कमी क्रमिक हो सकती है, जिसका अर्थ है कि यदि नैनो यूरिया का उपयोग जारी रहा तो उत्पादन साल-दर-साल कम हो सकता है।

सिक्का ने कहा, "मिट्टी में नाइट्रोजन का भंडार सीमित है और कम हो रहा है, इसलिए साल-दर-साल, यदि आप पत्तियों पर नैनो यूरिया का छिड़काव करते हैं और मिट्टी में नाइट्रोजन की भरपाई नहीं करते हैं, तो कमी क्रमिक होगी।" यह अध्ययन पीएयू की मासिक पत्रिका के जनवरी अंक में भी प्रकाशित हुआ था।

ऐसा लगता है कि इफको नैनो यूरिया के साथ पारंपरिक यूरिया की अनुशंसित खुराक के बराबर अनाज की पैदावार प्राप्त करने के दावे के लिए कम से कम 5-7 साल तक दीर्घकालिक मूल्यांकन की आवश्यकता होगी। सिक्का ने कहा कि अब तक के परिणाम उत्साहजनक नहीं हैं और चावल और गेहूं के लिए इफको नैनो यूरिया के उपयोग की अनुशंसा नहीं की जा सकती।

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