डाउन टू अर्थ खास: बीज बाजार पर निजी कंपनियों का कब्जा, मुसीबत में किसान

पैदावार बढ़ाने के बहाने देश में निजी बीज कंपनियों का कारोबार बढ़ता जा रहा है। देसी बीज के बदले पहले किसानों को उन्नत बीज दिए गए और अब संकर बीज के बहाने उनको निजी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है
भारत में आदिवासी इलाकों में देसी बीज अभी भी बचे हुए हैं, लेकिन अधिक उपज का लालच में किसान हाइब्रिड बीज की ओर आकर्षित हो रहे हैं (सभी फोटो: विकास चौधरी / सीएसई)
भारत में आदिवासी इलाकों में देसी बीज अभी भी बचे हुए हैं, लेकिन अधिक उपज का लालच में किसान हाइब्रिड बीज की ओर आकर्षित हो रहे हैं (सभी फोटो: विकास चौधरी / सीएसई)
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दलजीत सिंह अपने साढ़े तीन एकड़ के खेतों में धान लगाते हैं। इन खेतों से हर साल लगभग 100 क्विंटल धान पैदा होता है, लेकिन साल 2022 में केवल 19 क्विंटल ही धान निकला। बाकी धान बौना रह गया या सिकुड़ गया। उन्हें आज तक इसका कारण पता नहीं चल पाया। प्रशासनिक अधिकारियों ने उन्हें सिर्फ इतना बताया कि फिजी वायरस की वजह से बीमारी लग गई थी, लेकिन यह वायरस क्यों लगा, यह अब तक नहीं बताया गया। इस साल क्षेत्र के सभी किसानों ने तय किया कि वे बायर कंपनी का हाइब्रिड बीज नहीं लगाएंगे, क्योंकि पिछले साल इसी कंपनी का बीज लगाया था। हो सकता है कि इस कंपनी के बीज की वजह से धान बौना रह गया हो। इसलिए दलजीत ने भी बायर का बीज नहीं लगाया। दलजीत सिंह हरियाणा के अंबाला जिले के गांव शाहबाद के किसान हैं। वह बताते हैं कि उनके पूरे इलाके में किसानों ने इस साल (2023) बायर की बजाय दूसरी कंपनी का हाइब्रिड बीज लगाया।

दरअसल भारत में हाइब्रिड बीजों के प्रति किसानों का मोह बढ़ रहा है। किसानों का कहना है कि हाइब्रिड बीजों वाली फसल न केवल जल्दी पक कर तैयार हो जाती है, बल्कि देसी बीजों के मुकाबले अधिक उपज भी देती है। अंबाला जिले के मोहरी के किसान मंजीत सिंह कहते हैं, “हाइब्रिड बीजों की वजह से धान की फसल जल्दी तैयार हो जाती है, इसके चलते गेहूं लगाने से पहले वे लोग आलू जैसी कम अवधि की फसल लगा देते हैं।” यही वजह है कि भारत में हाइब्रिड बीजों का कारोबार बढ़ता जा रहा है। हालांकि अमेरिका, चीन के मुकाबले भारत में बीज बाजार की पकड़ काफी कम है, क्योंकि भारत में अभी भी पारंपरिक देशी बीज का इस्तेमाल काफी होता है। बावजूद इसके, देश में प्राइवेट बीज कंपनियों के बढ़ते कारोबार का अंदाजा मार्च 2021 में लोकसभा में प्रस्तुत कृषि संबंधी स्थायी समिति की 25वीं रिपोर्ट से लगाया जा सकता है।

इस रिपोर्ट में केंद्रीय कृषि एवं कृषक कल्याण विभाग के हवाले से बताया गया कि भारत में बीज उत्पादन में सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी कम हो रही है। 2017-18 में सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी 42.72 प्रतिशत थी, जो 2020-21 में घटकर 35.54 प्रतिशत रह गई। जबकि इसी अवधि के दौरान बीज बाजार में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 57.28 प्रतिशत से बढ़कर 64.46 प्रतिशत हो गई। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि देश में लगभग 540 निजी बीज कंपनियां हैं, जिनमें भारतीय मूल के साथ-साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी शामिल हैं। खास बात यह है कि लगभग 80 कंपनियां अपने स्तर पर रिसर्च एवं डेवलपमेंट का भी काम करती हैं। शेष कंपनियां पब्लिक सेक्टर द्वारा विकसित बीज का उत्पादन और विपणन करती हैं। ये कंपनियां ब्रीडर (प्रजनक) बीज का उत्पादन नहीं करती। रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकांश निजी बीज कंपनियां फाउंडेशन और सर्टिफाइड / ट्रथफुल लेबल वाले बीज के उत्पादन में शामिल हैं।

भारतीय खाद्य और कृषि परिषद द्वारा सितंबर 2019 में बीज उद्योग परिदृश्य पर जारी रिपोर्ट के अनुसार 2018 में भारतीय बीज बाजार 4.1 बिलियन (अरब) अमेरिकी डॉलर के मूल्य तक पहुंच गया था। इसमें 2011 से 2018 के दौरान 15.7 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक विकास दर (सीएजीआर) से वृद्धि हुई थी। इस रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि 2019-2024 के दौरान 13.6 प्रतिशत सीएजीआर वृद्धि होगी और निजी बीज का कंपनियों का कारोबार 9.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाएगा।

जहां तक सरकारी नेटवर्क की बात है तो केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 25 मार्च 2022 को राज्यसभा में एक लिखित उत्तर में कहा कि किसानों को बीज उपलब्ध कराने के लिए जिला व तालुका स्तर पर सरकार का एक मजबूत नेटवर्क है। केंद्रीय व राज्यों के 51 कृषि और बागवानी विश्वविद्यालयों, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर) के फसल आधारित 65 संस्थानों, 726 कृषि विज्ञान केंद्रों, राष्ट्रीय बीज निगम लिमिटेड के 3000 डीलरों, 17 राज्य बीज निगमों, सार्वजनिक क्षेत्र के 6 उपक्रमों के माध्यम से किसानों तक बीज पहुंचाया जा रहा है। आईसीएआर के कुछ संस्थानों ने ऑनलाइन बीज पोर्टल विकसित किए हैं। सरकार ने दलहन, तिलहन और बाजरा के गुणवत्तापूर्ण बीज उत्पादन के लिए बीज केंद्र भी शुरू किए हैं। इन सबके बावजूद हाइब्रिड बीज पर निजी क्षेत्र का बढ़ता कब्जा कई सवाल खड़े करता है।



बीज बाजार का इतिहास

हाइब्रिड बीजों के बढ़ते जाल को समझने के लिए भारत में बीज बाजार की संरचना को समझना जरूरी है। देश में पारंपरिक तरीका यह था कि किसानों के पास पुश्तैनी बीज थे और बीज को लगाने का पारंपरिक ज्ञान भी। वह अपनी फसल से उपज लेने के पश्चात अच्छे व पुष्ट उपज को बीज के रूप से संरक्षित कर लेते थे और अगले साल उसी बीज का इस्तेमाल करते थे। मृदा के उपजाऊपन को बचाए रखने के लिए किसान जहां अपने खेतों में बदल-बदल कर फसल लगाता था, वहीं आपस में बीजों की अदला-बदली भी करते थे। लेकिन साठ के दशक में जब देश में अनाज की कमी महसूस की जाने लगी तो सरकार को लगा कि बीजों में सुधार की जरूरत है। इसके बाद देश में हरित क्रांति का उदय हुआ।

“पॉलिटिक्स ऑफ सीड, कॉमन रिसोर्स ऑर ए प्राइवेट प्रॉपर्टी” नामक किताब में लेखक अफसर जाफरी लिखते हैं कि 1960 के दशक के दौरान भारत में औपचारिक बीज क्षेत्र पर सार्वजनिक क्षेत्र का प्रभुत्व था, जो खुले परागण वाले बीज (ओपीवी) प्रदान कर रहा था, लेकिन भारत में हरित क्रांति को लागू करने के शुरुआती वर्षों में विश्व बैंक ने कई कृषि परियोजनाओं को समर्थन देना शुरू किया। इनमें उच्च उपज वाले किस्म के बीजों का उत्पादन, औद्योगिक रासायनिक उर्वरक उद्योग की शुरूआत, पंप सेटों के माध्यम से भूजल दोहन को बढ़ावा देना और औद्योगिक कृषि प्रणाली को वित्तपोषित करने के लिए बैंकिंग संस्थानों की स्थापना करना शामिल था। बाद में विश्व बैंक ने फसल विविधीकरण, अंतरराष्ट्रीय बाजारों के साथ घरेलू बाजारों के एकीकरण और कृषि व्यवसाय उद्यमों को सहयोग करना शुरू कर दिया।

1963 में कृषि मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय बीज निगम की स्थापना की गई और नई उच्च उपज वाली किस्मों (एचवाईवी) का बड़े पैमाने पर आयात किया गया। इसके साथ-साथ 1969 में तराई बीज निगम की शुरुआत विश्व बैंक से मिले 13 मिलियन अमेरिकी डॉलर के ऋण के साथ की गई। इसके बाद विश्व बैंक ने दो अन्य राष्ट्रीय बीज परियोजना को ऋण दिया। इन परियोजनाओं का उद्देश्य सार्वजनिक संस्थानों को विकसित करना और हरित क्रांति बीज के उत्पादन को बढ़ाने के लिए एक नया बुनियादी ढांचा तैयार करना था। अफसर आगे लिखते हैं कि 1988 की “बीज विकास की नई नीति” ने बीज क्षेत्र में निजी उद्यम के एक नए युग की शुरुआत की, साथ ही सार्वजनिक से निजी क्षेत्र के निवेश पर जोर दिया गया। 80 के दशक के अंत में लाइसेंस के माध्यम से संकर (हाइब्रिड) बीजों के उत्पादन पर सरकारी नियंत्रण में ढील दी गई। विश्व बैंक के दबाव में भारत सरकार ने भी किसानों को बीजों की आपूर्ति से हाथ खींचना शुरू कर दिया और विशेष रूप से ब्रीडर और फाउंडेशन बीजों के उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। प्रमाणित बीजों का उत्पादन निजी क्षेत्र पर छोड़ दिया गया। इतना ही नहीं, विश्व बैंक ने प्राइवेट बीज कंपनियों को लोन देना शुरू किया। यह ऋण नाबार्ड के माध्यम से दिया गया। इस तरह देश में बीज बाजार पर सुनियोजित तरीके से निजी क्षेत्र का दखल बढ़ता गया।

उपज का लालच

हरित क्रांति के समय से देश में फसलों की उपज बढ़ाने का जो चलन शुरू हुआ, उसके चलते भी देश के बीज बाजार पर प्राइवेट सेक्टर खासकर मल्टी नेशनल कंपनियों का दबदबा बढ़ता जा रहा है। देसी पारंपरिक बीजों का उत्पादन काफी कम था, जबकि सरकारी शोध संस्थानों द्वारा विकसित किए गए खुले परागण वाले (इंप्रूवड ओपन पॉलीनेटेड, ओपीवी) बीज से उपज अधिक होती है, लेकिन संकर बीज से उपज उससे भी अधिक होती है। धान के बीज की बात करें तो औद्योगिक संगठन फेडरेशन ऑफ सीड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एफएसआईआई) का दावा है कि ओपीवी बीज के मुकाबले संकर बीजों से 20 प्रतिशत से अधिक उत्पादन होता है।

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दावार में कम समय लगता है, जिस कारण कीटनाशकों का कम उपयोग करना पड़ता है और मेहनत भी कम लगती है। भारत की कुल 4.4 करोड़ हेक्टेयर में धान की खेती होती है। अभी इसमें से केवल छह प्रतिशत क्षेत्र में धान के संकर बीज लगाए जाते हैं जो अधिकांशत बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे अविकसित राज्यों में इन्हें लगाया जाता है। इन राज्यों में पंजाब और हरियाणा जैसे अन्य चावल उत्पादक राज्यों की तुलना में कम उत्पादकता है। हालांकि अभी अंबाला जैसे क्षेत्रों में संकर धान लगाने का चलन बढ़ रहा है।

हालांकि विशेषज्ञ औद्योगिक संगठन के दावे से सहमत नहीं हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर) के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक विरेंद्र सिंह लाठर कहते हैं कि सरकारी संस्थानों द्वारा विकसित खुले परागण वाली किस्मों के मुकाबले संकर बीजों से होने वाले उत्पादन में 15 से 20 प्रतिशत का अंतर होता है। किसान कुलजीत सिंह गणित समझाते हुए कहते हैं कि यदि ओपीवी की किस्म पीआर-126 बीज लगाते हैं तो एक एकड़ में 25 क्विंटल तक धान हो जाता है, लेकिन उसकी जगह यदि प्राइवेट कंपनी की संकर बीज लगाते हैं तो 28 से 29 क्विंटल धान होता है, लेकिन उनके इलाके में संकर लगाने का एक बड़ा कारण यह है कि उनका बहुत सा इलाका क्षारीय है, इसलिए उनके इलाके किसान हाइब्रिड लगाते हैं, क्योंकि ओपीवी उस इलाके में नहीं लग पाता। लाठर कहते हैं कि पिछले 2 दशक के दौरान बीजों की किस्में जारी करने वाली सेंट्रल वैरायटी रिलीज कमेटी (सीवीआरसी) चावल की लगभग 20 संकर किस्में जारी कर चुकी है, लेकिन कोई भी किस्म 20 प्रतिशत से अधिक उपज नहीं दे पाई है।

संवेदनशील है संकर

संकर बीजों से जुड़ी एक बड़ी चिंता यह है कि वे खराब अंकुरण के प्रति संवेदनशील होते हैं, खासकर जब उनके मुताबिक तापमान, प्रकाश, लवणता और पर्यावरणीय स्थितियां नहीं मिलती। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के इस दौर में किसानों के लिए संकर बीज नुकसान का सबब बन गए हैं। 2022 में झारखंड में सही समय पर बारिश न होने के कारण किसानों द्वारा लगाई गई धान की फसल खराब हो गई। खूंटी जिले के गांव लुदुरू निवासी चेतन धनवार ने बताया कि हाइब्रिड धान की नर्सरी लगने के 15 से 21 दिन के बीच सिंचाई बेहद जरूरी है। लेकिन बारिश न होने के कारण धान की नर्सरी ही सूख गई। लाठर भी कहते हैं कि उत्तर-पश्चिम भारत में धान के बौनेपन की शिकायत वहां ज्यादा मिली, जहां संकर बीज लगाए गए थे। संकर बीज का केवल सर्टिफाइड बीज ही बाजार में आता है, लेकिन बहुत सी कंपनियां ट्रूथफुल लेबल लगाकर भी बीज बेच रही हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि ट्रूथफुल लेबल वाले बीज की जांच ढंग से नहीं होती, जिसकारण कंपनियां बाजार में बड़े-बड़े दावों के साथ अपने बीज बेचती हैं, लेकिन इनमें से 20 से 25 प्रतिशत पैदावार बताए गए समय पर नहीं होती। भारतीय किसान यूनियन (शहीद भगत सिंह) के प्रवक्ता तेजवीर सिंह कहते हैं कि कंपनियां व डीलर जो वादे मौखिक तौर पर करते हैं, उसके बारे में कहीं भी लिखित में कुछ नहीं होता। यहां तक कि जिन पैकेट में बीज बेचे जाते हैं, उनमें यह तक नहीं लिखा होता कि बीज की पैदावार कितने दिन में हो जाएगी। ऐसे में किसान के पास बीज की शिकायत करने का आधार तक नहीं होता। देसी बीज में प्राकृतिक आपदाओं को झेलने की क्षमता काफी अधिक होती है। झारखंड के किसान भी मानते हैं कि वे लोग देसी धान (गोड़ा धान) लगाया करते थे, जो सूखे में भी उग जाया करता था, लेकिन अब ऐसा नहीं होता।

दरअसल सरकारी शोध संस्थानों द्वारा विकसित वैरायटीज को समय-समय पर वापस ले लिया जाता है। किसान नेताओं को उस पर संदेह है। उनका अंदेशा है कि अच्छी और निजी कंपनियों को टक्कर देने वाली वैरायटीज को सरकार वापस ले लेती है। तेजवीर उदाहरण देते हुए कहते हैं कि वर्ष 1993 के आसपास पीआर-इंदिरा नाम की वैरायटी लाई गई थी, जो एक एकड़ में 30 क्विंटल तक पैदावार देती थी। इस वैरायटी ने किसानों को मालामाल कर दिया, लेकिन 1998 में इस वैरायटी को अचानक वापस ले लिया गया। वापस लेने का कारण तक नहीं बताया गया। इसी तरह वर्ष 2001 में पीआर 201 वैरायटी लाई गई, जिसकी पैदावार 32 क्विंटल थी और रिकवरी 70 प्रतिशत थी। रिकवरी का मतलब धान की फसल से चावल निकलना है। कुछ समय बाद इस वैरायटी को वापस ले लिया गया। तेजवीर कहते हैं कि बड़ी एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए यह सब किया जाता है।

अंबाला के युवा एवं शिक्षित किसान मंजीत सिंह बताते हैं कि जितनी भी निजी कंपनियों के हाइब्रिड बीज हैं, वे कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा विकसित बीज के मुकाबले 10 से 15 दिन पहले पककर तैयार हो जाती हैं। ऐसे में किसानों को गेहूं और धान के बीच एक छोटे समय की फसल लगाने का समय मिल जाता है, जैसे कि अंबाला के एक बड़े हिस्से में आलू लगाया जाता है। अकसर हालात ऐसे बन जाते हैं कि बढ़ती मांग को देखते हुए निजी कंपनियों के हाइब्रिड बीज भी ब्लैक में मिलते हैं। लेकिन किसान एक फसल के लालच में खरीद लेते हैं। देश में प्राकृतिक खेती के लिए मुहिम चलाने वाले सुभाष पालेकर अपने एक वीडियो मे कहते हैं कि संकर बीजों और देसी बीजों की पैदावार में कोई अंतर नहीं होता, बल्कि संकर बीजों में इस्तेमाल हो रही रासायनिक खादों और कीटनाशकों की वजह से पैदावार ज्यादा होती है। रासायनिक खादों के बढ़ते इस्तेमाल के कारण ही हमें खाने के साथ-साथ बीमारियां मिल रही हैं।

कोई कार्रवाई नहीं

हालात यह हैं कि संकर बीजों की विफलता की निगरानी करने के लिए कोई सरकारी तंत्र तक नहीं है। किसान बीटी कॉटन का हवाला देते हुए कहते हैं कि बीटी कॉटन की वजह से किसानों को पहले तो काफी फायदा हुआ, लेकिन बाद में गुलाबी सुंडी की वजह से पूरी फसल बर्बाद हो रही है। जींद जिले के नरवाना तहसील के गांव दानोद गांव के किसान अशोक दानोद कहते हैं कि उनके गांव में 2011 से बीटी कपास लगा रहे थे, लेकिन 2018 के बाद से जब उपज में कमी आई तो उन्होंने कपास लगाना छोड़ दिया। उनके जिले में हर साल लगभग 10 हजार एकड़ में बीटी कॉटन लगाया जाता था, लेकिन अब केवल 400 एकड़ में ही लगाई जा रही है। किसानों ने मूंग की हाइब्रिड बीज लगाए, लेकिन दो साल बाद उनकी उपज भी कम हो गई और ना ही राज्य सरकार ने समर्थन मूल्य पर मूंग की खरीद की, इसलिए किसानों ने मूंग छोड़कर धान लगाना ही शुरू कर दिया।

तेजवीर कहते हैं कि बीटी कॉटन सीड में एक ही कंपनी का वर्चस्व है। यही कंपनी बीज बनाती है और बेचती है, लेकिन सरकार की ओर से इस कंपनी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। हरियाणा में बाजरा भी हाइब्रिड वैरायटी का लगाया जा रहा है। किसान बताते हैं कि बाजरे के देसी बीज से एक एकड़ में 12 से 15 मन पैदावार होती थी, लेकिन हाइब्रिड बीज से 30 से 35 मन पैदावार हो जाती है। एक मन 40 किलोग्राम के बराबर होता है। हिसार के गांव गामड़ा के किसान काला उर्फ सत्यनारायण कहते हैं कि उनके इलाके में लगभग 10 साल पहले बाजरे का हाइब्रिड बीज बाजार में आया था। पहले बीज की कीमत भी कम थी, लेकिन जैसे-जैसे हाइब्रिड बीज का इस्तेमाल बढ़ता गया और किसानों का देसी बीज खत्म हो गया तो कंपनियों ने बीज की कीमत बढ़ा दी।



अब बाजरे के हाइब्रिड बीज की कीमत 650 रुपए प्रति किलो है। बाजार में हाइब्रिड सरसों का बीज भी काफी फैलता जा रहा है। जिसकी कीमत 1,000 रुपए प्रति किलो है। जबकि देशी बीज की कीमत 80 से 100 रुपए प्रति किलो है। काला कहते हैं कि उनके जिले में सरकारी बीज भंडार हैं, लेकिन वहां बीज तब आता है, जब बिजाई का समय निकल जाता है, मजबूरन किसानों को निजी दुकानों से बीज खरीद कर बिजाई करनी पड़ती है। विश्वविद्यालय द्वारा विकसित सरसों के बीज की वैरायटी 725, 749, आरएच-30, लक्ष्मी 30 भी अच्छी वैरायटी है। इन बीजों की पैदावार 20 से 25 मन है और इनका मुफ्त वितरण किया जाता है, लेकिन काला कहते हैं कि ये बीज समय पर नहीं आते। संकर किस्मों की सरसों की पैदावार 30 से 35 मन प्रति एकड़ बताई जाती है।

संकर बीज, खुले परागण वाले बीज के मुकाबले काफी महंगा है। कुलजीत कहते हैं कि इस साल उन्होंने संकर बीज का 3 किलो का पैकेट लगभग 1200 रुपए का लिया है, जबकि सरकारी बीज का पैकेट 10 किलो का होता है, जो 400 रुपए के करीब आता है। यानी कि एक सरकार द्वारा विकसित बीज की कीमत लगभग 40 रुपए प्रति किलोग्राम है और संकर बीज की कीमत लगभग 400 रुपए किलो। खास बात यह है कि संकर बीजों को दो बार इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। इसका मतलब है कि किसान को हर साल संकर बीज खरीदने की आवश्यकता होगी। जबकि सरकारी ओपीवी बीज को चार से पांच साल तक लगाया जा सकता है।

विविधता पर चोट

भारतीय कृषि में एक समय ऐसा था जब कृषि के लिए आवश्यक सभी बीज भारतीय किसानों द्वारा उत्पादित और वितरित किये जाते थे। सीड पॉलिटिक्स किताब में दी गई जानकारी के मुताबिक देश में लगभग धान की एक लाख से अधिक किस्में थी, जिसमें से अभी भी लगभग 5,000 किस्मों की खेती की जाती है। लेकिन हरित क्रांति के बाद आनुवांशिक रूप से समान आधुनिक किस्मों और अब संकर बीजों के कारण स्थानीय किस्मों में लगातार कमी आ रही है। तेजवीर कहते हैं कि सरकार ने किसानों को देशी बीज बदलने के लिए उकसाया और उसके बदले अधिक उपज वाले मॉडिफाइड (उन्नत) ओपीवी बीज दिए। देशी बीज से लगातार पैदावार होती थी, जबकि ओपीवी बीज चार-पांच साल ही उपज देते हैं। अब निजी कंपनियां किसानों को ओपीवी की बजाय संकर बीज बेच रही हैं। हालात यह हो गए हैं कि फसलों की स्थानीय प्रजातियां खत्म हो रही हैं। अधिकांश देसी फसल की किस्में, जिनमें कम उत्पादन के कारण प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवित रहने की विशेष प्रवृत्ति थी, अब नहीं उगाई जातीं। धान की हजारों किस्में या दालें, बाजरा और अन्य मोटे अनाज की सैकड़ों किस्में विविध पोषक तत्व प्रदान करती थी।

वाराणसी स्थित उदयप्रताप स्वायतशासी महाविद्यालय के सस्य विज्ञान विभाग के सहायक प्राध्यापक देवनारायण सिंह कहते हैं कि हमारा पूरा फोकस उत्पादन पर हो गया है। हम ऐसे बीज बना रहे हैं, जो अधिक से अधिक उत्पादन दें, जिससे पौष्टिकता व स्वाद प्रभावित हो रहा है। अगर हमें दो किलो के मुकाबले एक किलो अनाज समान या उससे अधिक पौष्टिकता हासिल कर लेते हैं तो हमें पौष्टिक बीजों की तरफ जाना चाहिए और देसी बीजों में पौष्टिकता अधिक होती है। बीज की इस लड़ाई में किसानों से बीज का अधिकार छीन लिया गया। सरकार के बीज प्रतिस्थापन कार्यक्रम और उच्च उपज वाले संकर बीजों को बढ़ावा देना भारतीय कृषि प्रणाली के लिए अभिशाप बन गया।

अंकुश जरूरी

किसानों के बीच नए-नए बीज लाकर उन्हें देसी बीजों को बदलने या छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इससे न केवल किसान बीज कंपनियों के जाल में फंस रहा है, बल्कि इन बीजों की उपज के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले रासायनिक उर्वरक व कीटनाशकों की वजह से देश में बीमारियां बढ़ रही हैं। ऐसे समय में, कुछ लोग व संस्थाएं देसी बीजों के संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ी हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़ रही प्राकृतिक आपदाओं की वजह से खेती को हो रहे नुकसान व कोरोना महामारी के बाद पोषक अनाज के प्रति बढ़ते रूझान को देखते हुए हमें संकर बीजों के जाल से बाहर निकलना होगा। देसी बीज ने केवल जैव विविधतापूर्ण होते हैं, बल्कि किफायती और विश्वसनीय भी हैं। देवनारायण कहते हैं कि देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बन चुका है, लेकिन पोषण के मामले में अभी भी पिछड़ा हुआ है, इसलिए सरकार को पोषण युक्त बीजों को बढ़ावा देना होेगा। यह सही समय है, जब देश में किसानों के हित में निजी बीज कंपनियों पर अंकुश लगाया जाए।

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