कृषि कानूनों से नए बिचौलिए पैदा होंगे

बड़े व्यापारियों के लिए छोटे-छोटे किसानों से उपज खरीदना कोई फायदे का सौदा नहीं है
हरियाणा की होडल अनाज मंडी में धान तुलवाते किसान। फाइल फोटो: श्रीकांत चौधरी
हरियाणा की होडल अनाज मंडी में धान तुलवाते किसान। फाइल फोटो: श्रीकांत चौधरी
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आर रामाकुमार  

नए कृषि कानूनों के माध्यम से सरकार यह बताना चाहती है कि देश में बड़े स्तर पर निजी निवेश से कृषि बाजार में सुधार होगा और किसानों की आमदनी बढ़ जाएगी, लेकिन हमने अब तक एमपीएमसी मंडियों से बाहर कोई ऐसा ढांचागत मॉडल नहीं देखा है, जहां किसी प्राइवेट व्यापारी ने अपना पैसा लगाया हो और फसल की खरीद होती हो। अगर कोई निजी निवेश हुआ भी है तो वह सागर में बूंद के समान है। ये नए कानून बनने के बाद भी निजी निवेश कम ही रहने वाला है।

अगर आप कृषि बाजार में निजी व्यापारियों की भागीदारी या अनुभव का इतिहास देखें तो पता चलेगा कि व्यापारी के लिए किसान से सीधे उपज खरीदना आर्थिक तौर पर कम फायदेमंद रहता है, क्योंकि भारत में छोटे और सीमांत किसानों की संख्या बहुत ज्यादा है, इसलिए ये किसान काफी कम मात्रा में फसल का उत्पादन करते हैं। ऐसी स्थिति में व्यापारी को किसान से सीधे खरीद करने के लिए उसके पास जाना पड़ेगा, जिससे व्यापारी को प्रशासनिक खर्च, श्रम लागत, परिवहन लागत, लोडिंग और अनलोडिंग का खर्च करना पड़ेगा। वर्तमान एपीएमसी फ्रेमवर्क में यह सारा खर्च स्थानीय व्यापारी उठाता है। यही वजह है कि भारत के बहुत से किसान सीधे एपीएमसी मार्केट में अपनी उपज बेचने की बजाय इस व्यापारी को बेच देता है।

व्यापारी जानबूझकर या अनजाने में एक एग्रीगेटर की भूमिका अदा करते हैं और बड़ी मात्रा में कृषि उपज थोक बाजार तक पहुंच जाती है। यदि आपके पास मंडियां नहीं है तो उपज को इकट्ठा करने (एग्रीगेशन) का काम कोई और करेगा। अब बड़ी कंपनियां जैसे रिलायंस फ्रेश या बिग बास्केट ने अब किसानों से सीधा उपज खरीदकर इकट्ठा करना कम कर दिया है, क्योंकि यह उनके लिए फायदे का सौदा नहीं है। पहले, गांवों में रिलायंस के कलेक्शन सेंटर थे, जिन्हें अब बंद कर दिया गया है। इसकी बजाय उनको एपीएमसी में जाकर खरीदना फायदेमंद लग रहा है। यही वजह है कि प्राइवेट कंपनियां सरकार की मंशा है कि देश में अधिक से अधिक किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) बनाए जाएं,  ताकि ये एफपीओ प्राइवेट कंपनियों के लिए एग्रीगेटर की भूमिका अदा करें। वे जानते हैं कि एग्रीगेशन एक बड़ी समस्या है।  

दो राज्यों, केरल और मणिपुर में अपना एपीएमसी एक्ट नहीं है। बिहार में 2006 में एपीएमसी एक्ट खत्म कर दिया था। केरल की बात करें तो यहां मसालों और रोपी जाने वाली फसलें लगाई जाती हैं। चाय, कॉफी, इलायची, अदरक जैसी फसलों के लिए पहले से ही बाजार था, जो विभिन्न मंडियों जैसे कमोडिटी बोर्ड, मसाला बोर्ड और चाय बोर्ड द्वारा शुरू किया गया था। ये 1950 से नीलामी केंद्र चला रहे हैं। इसलिए ये बाजार पहले से ही अच्छी तरह से स्थापित और विनियमित हैं।

नए कानून में यह भी तर्क दिया जा रहा है कि यदि मंडी टैक्स हट जाएगा तो यह पैदा किसान को मिलेगा ठेके पर खेती (कांट्रेक्ट फार्मिंग) आने से किसानों को अच्छी कीमत मिलगी। लेकिन ऐसा नहीं नहीं होगा। यदि एपीएमसी गायब हो जाएगी तो नए बिचौलिये आ जाएंगे। ये बिचौलिये लेन-देन पर जो खर्च करेंगे, वही मंडी टैक्स की जगह ले लेगा। सवाल यह है कि क्या इन बिचौलियों द्वारा वसूला जाने वाला खर्च वर्तमान मंडी टैक्स से कम होगा? तब ही किसान को अच्छी कीमत मिल पाएगी।

(आर रामाकुमार टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ स्कूल साइंसेज के स्कूल ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज में नाबार्ड चेयर प्रोफेसर हैं)

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