भारतीय वैज्ञानिकों ने की तिल की फसलों को प्रभावित करने वाले नए बैक्टीरिया की पहचान

यह सूक्ष्म जीव कैंडिडेटस फाइटोप्लाज्मा नामक मॉलिक्यूट्स बैक्टीरिया का एक प्रकार है, जिसमें कोशिका भित्ति नहीं होती
प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
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भारतीय वैज्ञानिकों ने तिल की फसल को प्रभावित करने वाले एक नए बैक्टीरिया की पहचान की है। आशंका है कि यह बैक्टीरिया पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में तिल के फूलों को प्रभावित करने के लिए जिम्मेवार है।

तिल, जिसे तेल की रानी के रूप में जाना जाता है, एक प्राचीन फसल है। इसके अवशेष हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में भी पाए गए हैं। इसका तेल औषधीय गुणों से भरपूर होता है और स्वास्थ्य के लिए बेहद फायदेमंद माना जाता है।

इसमें एंटीऑक्सीडेंट गुण होते हैं, यही वजह है कि यह हृदय सम्बन्धी बीमारियों से जूझ रहे लोगों के लिए भी अच्छा माना जाता है। हालांकि, आमतौर पर इसका उपयोग खाना पकाने के लिए नहीं किया जाता। शोधकर्ताओं के मुताबिक भारतीय तिल की किस्मों में सुधार की आवश्यकता है, ताकि उनके औषधीय गुणों का फायदा उठाया जा सके।

यह अध्ययन बोस इंस्टीट्यूट के जैविक विज्ञान विभाग के प्रोफेसर गौरव गंगोपाध्याय और उनकी टीम द्वारा किया गया है। वो पिछले चौदह वर्षों से तिल की खेती में सुधार पर काम कर रहे हैं। बोस इंस्टीट्यूट भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान है।

उन्होंने अपनी टीम के साथ मॉलिक्यूलर मार्कर की मदद से ब्रीडिंग करके कई उन्नत किस्मों को सफलतापूर्वक विकसित किया है।

हालांकि पिछले कुछ वर्षों में प्रोफेसर गंगोपाध्याय और उनकी टीम ने पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में दौरे के दौरान तिल के खेतों में एक अजीब रहस्यमय बीमारी देखी है। उन्होंने देखा कि इस बीमारी के चलते फूल और फल लगने के बाद तिल के पौधे अपनी वानस्पतिक अवस्था में लौटने लगे। इसकी वजह से गुलाबी रंगत वाले सफेद फूल हरे हो जाते हैं।

प्रोफेसर गंगोपाध्याय ने जब इस बीमारी की जांच शुरू की तो उन्हें पेड़-पौधों को खाने वाले लीफहॉपर और प्लांट-हॉपर जैसे कीटों की आंत में एक नए सूक्ष्म जीव का पता चला। वैज्ञानिकों के मुताबिक यह सूक्ष्म जीव इस गंभीर बीमारी का कारण हैं।

बैक्टीरिया के बारे में क्या कुछ जानकारी आई है सामने

वैज्ञानिकों के मुताबिक यह सूक्ष्म जीव कैंडिडेटस फाइटोप्लाज्मा नामक मॉलिक्यूट्स बैक्टीरिया का एक प्रकार है, जिसमें कोशिका भित्ति नहीं होती। यह पौधों की पोषक तत्वों से भरपूर फ्लोएम यानी नाली युक्त कोशिकाओं में पनपता है। जो पत्तियों से शर्करा और भोजन को नीचे की ओर लाने में मदद करती हैं।

ये बैक्टीरिया मुख्य रूप से लीफहॉपर, प्लांट-हॉपर, साइलिड्स और डोडर्स जैसे पौधों की फ्लोएम ऊतकों को खाने वाले कीटों द्वारा फैलते हैं। यह बैक्टीरिया कैथेरन्थस, तंबाकू, मक्का और अंगूर जैसी कई व्यावसायिक रूप से मूल्यवान फसलों को संक्रमित करते हैं। इस बीमारी के कारण फूल विकृत हो जाते हैं और उनमें हरा रंग असामान्य रूप से बढ़ जाता है, जिसकी वजह से वे पत्तियों जैसे दिखने लगते हैं।

बता दें कि फाइटोप्लाज्मा इन्फेक्शन के बारे में बेहद सीमित जानकारी उपलब्ध है, जिसकी वजह से इस अध्ययन में यह जांच की गई है कि कैसे बैक्टीरिया चयापचय मार्गों को प्रभावित करता है, जिससे तिल में इस बीमारी के लक्षण दिखने लगते हैं।

शोधकर्ताओं को भरोसा है कि यह अध्ययन जटिल जैविक प्रणालियों को समझने में मददगार साबित होगा। साथ ही यह इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि तिल के पौधे मॉलिक्यूलर स्तर पर फाइटोप्लाज्मा द्वारा होने वाले संक्रमण पर कैसे प्रतिक्रिया करते हैं।

इसके बारे में विस्तृत जानकारी हाल ही में जर्नल प्लांट मॉलिक्यूलर बायोलॉजी रिपोर्टर में प्रकाशित हुई है।

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